सूर्यवंशी दिग्विजयी सम्राट ललितादित्य मुक्तापीढ़ जिनके काल में भारत रूस तक फ़ैल गया था !!
संकलन अश्विनी कुमार तिवारीविजीयते पुण्यबलैर्बर्यत्तु न शस्त्रिणमपरलोकात ततो भीतिर्यस्मिन् निवसतां परम्।।
वहां (कश्मीर) पर शस्त्रों से नहीं केवल पुण्य बल द्वारा ही विजय प्राप्त की जा सकती है। वहां के निवासी केवल परलोक से भयभीत होते हैं न कि शस्त्रधारियों से। - (कल्हणकृत राजतरंगिणी, प्रथम तरंग, श्लोक 39)
इतिहासकार कल्हण ने मां भारती के शीर्ष कश्मीर की गौरवमयी क्षात्र परंपरा और अजेयशक्ति पर गर्व किया है। विश्व में मस्तक ऊंचा करके चार हजार वर्षों तक स्वाभिमानपूर्वक स्वतंत्रता का भोग कश्मीर ने अपने बाहुबल पर किया है। इस धरती के शूरवीरों ने कभी विदेशी आक्रमणकारियों और उनके शस्त्रों के सम्मुख मस्तक नहीं झुकाए थे। इस पुण्य धरती के रणघोष सारे संसार ने सुने हैं। यहां के विश्वविजेता सेनानायकों के युद्धाभिमानों का लोहा समस्त विश्व ने माना है।
रणबांकुरों की भूमि अनेक शताब्दियों तक इस वीरभूमि के रणबांकुरों ने विदेशों से आने वाली घोर रक्तपिपासु एवं अजेय कहलाने वाली जातियों और कबीलों के जबरदस्त हमलों को अपनी तलवारों की नोक पर रोका है। इस भूमि पर जहां अध्यात्म के ऊंचे शिखरों का निर्माण हुआ, वहीं इसके पुत्रों ने वीरभोग्या वसुंधरा जैसे क्षात्रभाव को अपने जीवन का आवश्यक अंग भी बनाया। संस्कृत के अनेक प्राचीन ग्रंथों में कश्मीर के इस वैभव के दर्शन किए जा सकते हैं।
सम्राट ललितादित्य हमारे लिए एक ऐसा ही नाम है जो सिकंदर से अधिक महान और पराक्रमी शासक था।
ललितादित्य मुक्तापीड (राज्यकाल 724-761 ई)कश्मीर के कर्कोटा वंश के हिन्दू सम्राट थे। उनके काल में कश्मीर का विस्तार मध्य एशिया और रूस,पीकिंग तक पहुंच गया।उन्होने अरब के मुसलमान आक्रान्ताओं को सफलतापूर्वक दबाया तथा तिब्बती सेनाओं को भी पीछे धकेला।
कश्मीर के इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठों पर ‘कक्रोटा वंश’ का 245 वर्ष का राज्य स्वर्णिम अक्षरों में वर्णित है।
इस वंश के राजाओं ने अरब हमलावरों को अपनी तलवार की नोक पर कई वर्षों तक रोके रखा था। कक्रोटा की माताएं अपने बच्चों को रामायण और महाभारत की कथाएं सुनाकर राष्ट्रवाद की प्रचंड आग से उद्भासित करती थीं। यज्ञोपवीत धारण के साथ शस्त्र धारण के समारोह भी होते थे, जिनमें माताएं अपने पुत्रों के मस्तक पर खून का तिलक लगाकर मातृभूमि और धर्म की रक्षा की सौगंध दिलाती थीं। अपराजेय राज्य कश्मीर इसी कक्रोटा वंश में चन्द्रापीड़ नामक राजा ने सन् 711 से 719 ई.तक कश्मीर में एक आदर्श एवं शक्तिशाली राज्य की स्थापना की। यह राजा इतना शक्तिशाली था कि चीन का राजा भी इसकी महत्ता को स्वीकार करता था।
इससे कश्मीरियों की दिग्विजयी मनोवृत्ति का परिचय मिलता है। अरब देशों तक जाकर अपनी तलवार के जौहर दिखाने की दृढ़ इच्छा और चीन जैसे देशों के साथ सैन्य संधि जैसी कूटनीतिज्ञता का आभास भी दृष्टिगोचर होता है। उन्होने अरब के मुसलमान आक्रान्ताओं को सफलतापूर्वक दबाया तथा चीन सैनिकों को भी पीछे धकेला।
साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति सम्राट ललितादित्य मुक्तापीढ़ का नाम कश्मीर के इतिहास में सर्वोच्च स्थान पर है। उसका सैंतीस वर्ष का राज्य उसके सफल सैनिक अभियानों, उसकी सर्वधर्मसमभाव पर आधारित जीवन प्रणाली, उसके अद्भुत कला कौशल और विश्व विजेता बनने की उसकी चाह से पहचाना जाता है। लगातार बिना थके युद्धों में व्यस्त रहना और रणक्षेत्र में अपने अनूठे सैन्य कौशल से विजय प्राप्त करना उसके स्वभाव का साक्षात्कार है।
उनका राज्य पूर्व में बंगाल तक, दक्षिण में कोंकण तक पश्चिम में तुर्किस्तान और उत्तर-पूर्व में चीन और रूस,पीकिंग तक फैला था। उन्होने अनेक भव्य भवनों का निर्माण किया। मार्तंड सूर्य मंदिर का निर्माण मध्यकालीन युग के दौरान हुआ था जो सूर्य भगवान को समर्पित है। सूर्यवंशी राजा ललितादित्य ने इस मंदिर का निर्माण एक छोटे से शहर अनंतनाग के पास एक पठार के ऊपर किया था।
ललितादित्य ने दक्षिण की महत्वपूर्ण विजयों के पश्चात अपना ध्यान उत्तर की तरफ लगाया जिससे उनका साम्राज्य काराकोरम पर्वत शृंखला के सूदूरवर्ती कोने तक जा पहुँचा।
साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड का नाम कश्मीर के इतिहास में सर्वोच्च स्थान पर है। उसका सैंतीस वर्ष का राज्य उसके सफल सैनिक अभियानों, उसके अद्भुत कला-कौशल-प्रेम और विश्व विजेता बनने की उसकी चाह से पहचाना जाता है। लगातार बिना थके युद्धों में व्यस्त रहना और रणक्षेत्र में अपने अनूठे सैन्य कौशल से विजय प्राप्त करना उसके स्वभाव का साक्षात्कार है। ललितादित्य ने रूस,पीकिंग को भी जीता और 12 वर्ष के पश्चात् कश्मीर लौटा।
कश्मीर उस समय सबसे शक्तिशाली राज्य था। उत्तर में तिब्बत से लेकर द्वारिका और उड़ीसा के सागर तट और दक्षिण तक, पूर्व में बंगाल, पश्चिम में विदिशा और मध्य एशिया तक कश्मीर का राज्य फैला हुआ था जिसकी राजधानी प्रकरसेन नगर थी। ललितादित्य की सेना की पदचाप अरण्यक (ईरान) और रूस,पीकिंग तक पहुंच गई थी । २८ से अधिक हिन्दू सम्राटो ने विश्व विजय किये पर वहा के लोगों की प्राचीन संस्कृति को नष्ठ नहीं किये ना उनके धर्म इत्यादि को नष्ठ नहीं किया जितने भी विश्व विजय सम्राट हुए उन सभी ने विश्व विजय किया एवं वहा के प्रजा को एक अच्छी जीवन प्रदान किया शिक्षित , आरोग्य एवं विकाशील बनया वनिर्ज्य व्यवसाय के लिए विश्व विजय करते थे एवं जिस राष्ट्र को विजय करते थे वहा व्यवसाय एवं प्रजाओ के उन्नति के लिए कार्य करते थे वही इस्लाम जब जब हिन्दू राष्ट्र पर आक्रमण किया लूट , बलात्कार , मंदिर मठो को ध्वस्त किया एवं नागरिको पर अत्याचार किया । सम्राट ललितादित्य मुक्तापिड़ द्वारा छोटे बड़े सभी युद्ध मिलाकर 350 से अधिक युद्ध लड़ने का लिपि दर्ज हैं जिसमे से कुछ ख़ास युद्ध आपके समक्ष रखूंगी ।
(राज्यकाल 724-761 ई)
१)
सन 725 (ईस्वी) में चीन ने आक्रमण किया था हरिवर्ष पर (उत्तरी तिब्बत तथा दक्षिणी चीन का समीपवर्ती भूखंड जान पड़ता था) तांग राजवंश के राजा आनजोंग एक बहुत ही क्रूर एवं कपटी राजा था अपने साम्राज्य विस्तार के लिए अपने ही प्रजाओं को मौत के घाट उतार देता था एवं उसका नज़र भारतवर्ष के धन सम्पदा पर था साथ इसलिए एक साथ 56,000 सेना लेकर आक्रमण किया था भारतवर्ष पर सम्राट ललितादित्य से हार कर वापस अपने चीन लौटा परन्तु शांत नहीं बैठा दोबारा आक्रमण किया परन्तु इस बार सम्राट ललितादित्य ने परस्त कर मृत्युलोक पहुँचा दिया एवं चीन राज्य की राजधानी चांग आन , लुओयांग , बीजिंग , पूर्वी चीन सागर क्षेत्र का दूसरा सब से बड़ा आर्थिक केंद्र था जो पूरी तरह से सम्राट ललितादित्य मुक्तापिड़ ने अपने अम्राज्य में मिलाकर भगवा परचम लहराया था सम्राट ललितादित्य ने चीन में कई हरी मंदिर बनवाए थे चीन में इस विषय का उल्लेख विस्तारित तांग, खंड की किताब एवं चीनी इतिहास की रूपरेखा बो-यांग द्वारा लिखा गया हैं ।
चीन के अन्य राज्यों के राजा ने सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड के साथ सैनिक संधि किया जिसमे चीनी राजा ने आत्मसमर्पण करते हुये यह संधि किया जब जब भारत पर आक्रमण होगा चीन सम्राट सैनिक भेज कर सहायता करेगा एवं उनके साम्राज्य में अन्य चीनी राजा कभी दखल नहीं देंगे चीन के अन्य राज्य जो ललितादित्य के साम्राज्य सूचि में सम्मिलित किया गया हैं उन राज्यों में व्यापर करने की अनुमति माँगा था जिसके बदले चीन कर (tax) देंगे सम्राट ललितादित्य को यह सब उस संधि में लिखा था एवं इसका प्रमाण चीन के एक राज्य वंश ‘ता-आंग’ के सरकारी उल्लेखों में मिलता है।
सम्राट ललितादित्य का यूरोप विजय अभियान-:
१) सम्राट ललितादित्य मुक्तापीढ़ ने यूरोप को जीत कर भगवा ध्वज लहराया था सन 730 ईस्वी अफ्रीका के राजा युक्नूम तुक को हराकर मेसोअमेरिका( केन्द्रीय मैक्सिको से लगभग बेलाइज, ग्वाटेमाला, एल सल्वाडोर, हौंड्यूरॉस, निकारागुआ और कॉस्टा रिका तक फैला हुआ था) पे भगवा परचम लहराया था वैदिक सभ्यता खूब फैला था ललितादित्य मुक्तापीढ़ के बहुबल माया सभ्यता के लोग ने हीएरोंगल्यफिक लिपि (hieroglyphic script) में वर्णन किया हैं ललितादित्य के शौर्य एवं पराक्रम का वर्णन इस लिपि में २,३८२३ पन्नो में अंकित हैं । अफ्रीका के राजा युक्नूम तुक ने ललितादित्य के कदमो की आहट सुन कर आत्मसमर्पण किया था अफ्रीका के राजा युक्नूम तुक एक दरिंदा था अफ्रीका की लिपिबद्ध ग्रन्थ (hieroglyphic script) में वर्णन हैं किस प्रकार भगवान कुलकुलकन (Kukulkan) का ( यह एक देवता थे जिन्हें माया सभ्यता के लोग पूजते थे माया सभ्यता के लोगों का मानना था) अवतार लेकर सम्राट ललितादित्य मेसोअमेरिका की रक्षा के लिए आये थे । राजा युक्नूम तुक से मेसोअमेरिका की रक्षा एवं प्रजा की रक्षा करने हेतु हुनाह्पू नामक दूत आये थे सन्देश लेकर अत्याचार से त्रस्त हो चुके मेसोअमेरिका माया सभ्यता की प्रजा की और से सम्राट ललितादित्य के आक्रमण करने मात्र की खबर सुनकर युक्नूम तुक ने हथियार समेत राजपाठ ललितादित्य के समक्ष त्याग दिये थे ।
२)
सन 734 (ईस्वी) Battle of the Pass के नाम से जाना जाता हैं -:
उम्मायद खलीफा से खलीफा अब्द-अल-हिशाम ने 76,000 ऊठ सवार लश्कर भेजे सिंहपुर (वर्तमान में पिण्डदादनखाँ के पास, पाकिस्तान) पर आक्रमण किया था सम्राट ललितादित्य की धन संसाधन की राजधानी था हिशाम का आक्रमण सिंध पर हुआ सर्वप्रथम सम्राट ललितादित्य की दूरदर्शिता का परिचय करवाते हुए सैन्यबल की टुकड़ी दस से बारह हजार की टुकड़ी सिंहपुर सीमा के पार तैनात किया 76000 लश्कर पर सम्राट ललितादित्य के पराक्रमी सेनापती माहिवल वर्धना ने दस से बारह हजार की सेना के साथ युद्ध कर खलीफा अब्द-अल-हिशाम को खदेरा एवं रोम , दमास्कस जैसे उम्मायद खलीफा के राजधानी पर कब्ज़ा कर भगवा लहराया था ललितादित्य मुक्तापिड़ा ने आज जिसे रियाध (Riyadh) कहते है प्राचीन नाम नाज्द था जिसपे ललितादित्य मुक्तापिड़ा ने भगवा लहराया था । आज जो अरब खुद के शेख होने पर घमंड करते थे वह हमारे सम्राट ललितादित्य द्वारा गुलाम बनाये गए थे ।
३)
सन 737-745 (ईस्वी) तक लड़ें गये सबसे लम्बा युद्ध था जिसे “Battle Of Khamra” खामरा युद्ध के नाम से जाना जाता हैं जिसमे सम्राट ललितादित्य के 28,000 सैनिक मारे गए थे और खलीफा मूसा का 5,20,0000 सैनिक मारे गए थे -:
खलीफा महादी- मोहम्मद – मूसा ने दमास्कस पर आक्रमण किया जिसपर सम्राट ललितादित्य का कब्ज़ा था हिशाम को परास्त कर ललितादित्य ने दमास्कस पर भगवा परचम लहराया था परन्तु मूसा ने दमास्कस पर आक्रमण कर वहाँ इस्लामी शासन विस्तार करना चाहता था परन्तु सम्राट ललितादित्य ने मूसा को वहा से भी खदेरा एवं मूसा को बंदी बनाया खलीफा मूसा के रिहाई के बदले तुर्क, बेबीलोन (वर्तमान बगदाद) , मिस्र (बनिर्ज्य एवं व्यापर का शहर काहिरा नील नदी के किराने बसा काहिरा अफ्रीका महाद्वीप का सबसे बड़ा राज्य था) , इराक , मोरक्को , कजाखस्तान पर सम्राट ललितादित्य ने भगवा लहराकर हिंदुत्व की शक्ति से परिचय करवाया था खलीफा को , खलीफा मूसा ने रिहाई संधि के बदले इन सभी राज्य को सम्राट ललितादित्य को दे दिया साथ में नील , तिग्रिस जैसी मुख्या नदी के आर पार भगवा ध्वज शान से लहरा रहा था तिग्रिस नदी में मजबूत नौसेना तैनात किया था ललितादित्य ने जिससे तिग्रिस नदी से जो भी व्यापर करने जाते थे उसमे सम्राट ललितादित्य के पास कर चुकाना पड़ता था जिससे हिन्दू साम्राज्य का विकास प्रजाओ की उन्नति एवं सनातन धर्म विस्तार कार्य में ऋषिमुनि एवं वेदी गुरुकुल मठों की उन्नति कार्य के लिए खर्च किया जाता था सम्राट ललितादित्य ने आरोग्य स्वस्थ केंद्र हर छोटे बड़े शहर , गाँव , ज़िला तहसील हर जगह निर्माण करवाया सम्राट ललितादित्य ने सड़क निर्माण आजके इक्कसवी सताब्दी से ज्यादा अत्याधुनिक सड़क निर्माण आठवीं सताब्दी में सम्राट ललितादिया के शासनकाल के समय हुआ था ।
इस तरह से सम्राट ललितादित्य ने लगातार 18 युद्ध लड़े थे राशिदुन साम्राज्य, उमाय्यद साम्राज्य, अब्बासिद साम्राज्य के खलीफा के साथ और सम्राट ललितादित्य से युद्ध में परास्त होने के बाद खलीफाओं ने सम्राट ललितादित्य के साथ संधि कर खलीफा साम्राज्य अरब , सीसिली (sicily),मेसोपोटामिया, ग्रेटर अर्मेनिआ, कैरौअन (Kairouan) (वर्तमान में इसे तुनिशिया देश के नाम से जाने जाते हैं ) तुर्क , कजाखस्तान , मोरक्को , अफ्रीका , पर्शिया एवं अनेक देश सामिल थे ये (सारे इस्लामी देश खलीफा साम्राज्य से हिन्दू साम्राज्य में परिवर्तित होगया था) 72 प्रतिशत खलीफा साम्राज्य का भूभाग एवं पूरी अरब सागर , तिग्रिस , नील नदी पर सम्राट ललितादित्य ने भगवा ध्वज लहराया था
इस बारे में -: Muhammad", Antiquity; Page 145, Prophets and Princes: Saudi Arabia from Umayyad to the Present By Mark Weston 1992 Page 61 Blankinship (1994), pp. 20 इन तीन किताब में मिलता हैं बाइजेंटाइन साम्राज्य को अरब ने हराया था फिर अरब को परास्त कर सम्राट ललितादित्य ने खलीफा साम्राज्य पर भगवा लहराया था ।
४)
सन 747 से 759 (ईस्वी) पूर्वी यूरोप विजय करने निकले थे रणक्षेत्र में अपने अनूठे सैन्य कौशल से विजय प्राप्त किया बाईज़न्टाइन साम्राज्य के राजा कांस्टेंटाईन पंचम के साथ युद्ध की व्याखान मिलता हैं इन्हें हराकर सम्राट ललितादित्य ने कोंस्तान्तिनोपाल पर कब्ज़ा किया आठवी सदी तक कोंस्तान्तिनोपाल राजधानी था यूरोप का । इसके उपरांत लेस्ज्को द्वितीय डुक पोलिश राजा को परास्त कर पोलिश (पोलैंड) विजय कर भगवा झंडा लहरा था ।
सम्राट ललितादित्य ने मेर्कौरिऔस (Merkourios) को परस्त कर रूस के साथ साथ बॉस्निया एवं मेर्कौरिऔस (Merkourios) के अधीन अन्य यूरोपी देशो को अपने विजय अभियान में सम्मिलित कर साम्राज्य को यूरोप तक फैलाया था एवं इसके उपरांत सम्राट ललितादित्य मुक्तापिड़ ने पश्चिम और दक्षिण में क्रोएशिया पूर्व में सर्बिया और दक्षिण में मोंटेनेग्रो उत्तरपूर्वी यूरोप अल्बानिया उत्तर में कोसोवो पूर्व में भूतपूर्व यूगोस्लाविया और दक्षिण में यूनान तक सफलतापूर्वक सैन्य अभियान कर विश्व विजयता की उपाधि हासिल कर लिया था ।
ललितादित्य विश्व विजयी होकर लगभग 12 वर्ष के पश्चात् कश्मीर लौटा एवं तीन साल बाद अंतिम सांस लिया कश्मीर में ।
अंततः इनके शौर्य और पराक्रम को भूलने का नतीजा हुआ कश्मीर में आज एक भी कश्मीरी हिन्दू कश्मीर में नहीं रह पाए अगर कश्मीरी हिन्दू अपने पुर्बज को एक बार के लिए पढ़ लिए आज यह दुर्दशा नहीं होता कश्मीरी पंडितो का होकर रहता कश्मीर ।
संदर्भ-:
राजतरंगिणी कल्हण के अलावा जिन किताबो से सहायता लिया हैं
Muhammad", Antiquity; Page 145,
Prophets and Prince: Saudi Arabia from Umayyad to the Present By Mark Luciyad 1992 Page 61
Blankinship (1994), pp. 20
Revenge Through Rios 1989 Edition
Early and Classical Islam, by John Bernards
✍🏻मनीषा सिंह
#एकगौरवशालीइतिहास
#चक्रवर्तीसम्राटललितादित्य_मुक्तपीड
"सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड़ हमारे गौरवशाली इतिहास के प्रातः स्मरणीय महापुरुषों में से एक थे। आपका शासन मध्य एशिया और ईरान से लेकर तुर्क तक था।"
मार्टैंड के महान सूर्य मंदिर के खंडहर, इसका वास्तुशिल्प को देखकर आप आश्चर्य चकित हो जाते एवं आप की सांसें खुली की खुली रह जाये, ज्यादातर लोगो से इसे बॉलीवुड के फिल्म निर्माता विशाल भारद्वाज की भूतिया फिल्म हैदर (2014) में देखा होगा। यह दुख की बात है कि हमें एक फिल्म सेट की ज़रूरत के रूप में इसका उपयोग कर रहे हैं, वह भी एक संदर्भ बिंदु के रूप में, जो एक समय भव्य विशाल, उत्कृष्ठ सूर्य मंदिर था, किसी भी, उपमहाद्वीप में इतना सुंदर मन्दिर शायद देखने को न मिले।
यह लेख मार्टंड मंदिर के बारे में नहीं है, जिसे 15 वीं शताब्दी के अंत में ध्वस्त कर दिया गया। यह उस राजा के बारे में है, जिन्होंने इसे बनाया था। मार्टैंड सूर्य मंदिर, भारत के कश्मीर के महान शासक सम्राट ललितपादित्य का एकमात्र जीवित उदाहरण है, जिसका साम्राज्य मध्य एशिया से गंगा के मैदान तक फैला था।
विद्वानों द्वारा कश्मीरी सम्राट ललितिदित्य को 'कश्मीरी इतिहास' का 'अलेक्जेंडर' करार दिया गया है। जिनके शासन-काल में कश्मीर का विस्तार मध्य एशिया और ईरान से लेकर तुर्क तक था।
कश्मीर के इसी कर्कोटा वंश के सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड़ हमारे गौरवशाली इतिहास के प्रातः स्मरणीय महापुरुषों में से एक थे। वे युगाब्द 3826(सन् 724) में कश्मीर के सम्राट बने। उनके शासन को कश्मीर स्वर्ण युग माना जाता है, जब कला, वास्तुकला, संस्कृति और शिक्षाएं बढ़ीं। उनके महान विजय के कारण, लेखकों और विद्वानों ने उन्हें 'अलेक्जेंडर ऑफ कश्मीरी इतिहास' कहा है आज, जब 11 वीं शताब्दी ईसवी में दक्षिण पूर्व एशिया में चोल राजा, राज राजा चोल का विजय दिवस मनाया जाता है, इस महान कश्मीरी राजा के कारनामों को समय के पन्नों में दफन कर भुला दिया गया है।
कश्मीर के शुरुआती इतिहास के बारे में हम जो कुछ जानते हैं, वह संस्कृत ग्रन्थों काव्यों से आता है, जिसे राजतरंगणिनी (किंग ऑफ किंग्स) के रूप में जाना जाता है, जो 12 वीं शताब्दी में कश्मीरी विद्वान कल्हण द्वारा 1148 से 1150 सीई के बीच लिखा गया था। यह कश्मीर के विभिन्न शासकों का एक कालानुक्रमिक खाता है जिन्होंने कश्मीर पर शासन किया। यह एक व्यापक काव्य है, जिसमे 8000 संस्कृत छंदों समाहित आठ पुस्तकों में फैली हुई है, और यही एक मात्र कश्मीर के राजा ललितपादित्य के जीवन और समय का सबसे व्यापक विवरण भी है। 1900 में इस महान काव्य का पहला अंग्रेज़ी अनुवाद इंडोलोजिस्ट एमए स्टीन ने किया था।
कल्हण द्वारा रचित राजतरंगिणी में से हमे जानकारी मिलती है कि कश्मीर में कलकत्ता राज का एक राजवंश, जिसमे आगे राजा ललितित्यता हुए थे, की स्थापना 625 ईसवी में राजा दुरभभावन ने की थी। राजा ललितादित्य, कार्कोट राजवंश के पांचवे शासक थे और दुरस्थभावना के महान पोते थे।
ललितदित्य मुक्तापीड, 724 सीई में कार्कोटा वंश के पांचवे शासक बने, और उनके राज्य में कश्मीर घाटी शामिल थी ।
8 वीं शताब्दी तक गुप्त साम्राज्य समाप्त हो गया था और उपमहाद्वीप एक बार फिर कई छोटे युद्धरत राज्यों में विभाजित हुआ था। हजरत मोहम्मद साहब के गुजरने के बाद नये खलीफा ने दुनिया को इस्लाम के झण्डे तले लाने का अभियान शुरू किया था। बात की बात में ईरान को जीत कर खलीफा की गिद्ध-दृष्टि भारत पर भी पड़ने लगी। महाराज ललितादित्य जानते थे कि भारत की स्वतंत्रता के लिये अरब हमलावर एक बहुत बड़ा खतरा होंगे। इस चुनौती का सामना करने के लिये पूरे भारत को एक-सूत्र में बाँधना जरूरी था। इसलिये एक चक्रवर्ती साम्राज्य की स्थापना के उद्देश्य से वे कश्मीर से सेना लेकर निकले। बारह वर्ष के सैनिक अभियान के परिणामस्वरूप बंगाल-उड़ीसा तक का पूरा क्षेत्र एक शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में खड़ा हो गया।
ललितित्यतिय की पहली बड़ी जीत, कन्नौज के राजा यशोवर्मन पर थी, जिन्होंने गंगा के मैदानों पर शासन किया और नियंत्रित किया। इसके बाद गौर (बंगाल) के राजा पर जीत हासिल हुई। अफसोस की बात है कि हमारे पास ललितिदित्य के पूर्वी विजय से संबंधित कोई तारीख नहीं है, लेकिन इसका अनुमान लगभग 733 सीई है। लगभग 735-736 सीई, ललितिदित्य ने दक्षिण के लिए चढ़ाई की और राष्ट्रकूट पर हमला किया। जाहिर है, इस मिशन का उद्देश्य दक्षिणपथा को नियंत्रित करना था, जो उत्तर और दक्षिण भारत से जुड़ा हुआ महान व्यापार मार्ग है। हालांकि, यह नहीं दिखता कि ललितादित्य द्वारा दक्षिण अभियान ने दक्षिण के राजनीतिक नियंत्रण स्थापित कर पाए। इन विशाल युद्ध से उसे अकूत धन प्राप्त हुआ, जिसे दक्षिण में अपने अभियानों से कश्मीर लाया था।
पूर्वी और दक्षिणी अभियानों के बाद उनके अभियान उत्तर-पश्चिम में चल रहे थे, जहां ललितादित्य ने मध्य एशिया के माध्यम से चलने वाले सिल्क रूट के सभी महत्वपूर्ण केंद्रों काराकोरम की पर्वत श्रंखलाओं पर नियंत्रण किया। मध्य एशिया में ललितादित्य के विजय अभियान से इन चीनी क्षेत्रों पर चीनी कमजोर हो गए थे, और तिब्बत से लेकर चीन के झिंजियांग तक ललितादित्य का प्रभुत्व हो गया, इसी तरह ईरान में सासोनियन साम्राज्य आक्रमण आगे बढ़ते हुए, अरब और तुर्क (टर्की) तक क्षेत्र को जीतने वाले राजा ललितिदित्य की सेना में बड़ी संख्या में मध्य एशियाई तुर्क भी कार्यरत थे, इससे उनके विजय आसान हो गई कहा जाता है कि वह चीन के आज के झिंजियांग प्रांत में टरफान, कुचान और कई अन्य शहरों पर वह विजय प्राप्त कर चूका था। । चीन के तत्कालीन नरेश को परास्त कर उन्होंने एक विजेता की तरह पीकिंग (बीजिंग) में प्रवेश किया। मध्य एशिया में आज के ताजकिस्तान, किर्गिजिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उजबेकिस्तान आदि तक ललितादित्य का परचम लहराता था। तिब्बत भी उनके राज्य का अंग था। राजतंगिनी में वर्णित तिब्बतियों पर मिली विजय को आज भी कश्मीरी लोग द्वारा विजय दिवस के चैत्र का दूसरा दिन मनाया जाता था।
ललितित्यतिय का महान योद्धा और 'विश्व विजेता' (कलहण के शब्दों में दिग्विजय) का दर्जा एक प्रमुख विषय है, यह भी उनके महान सार्वजनिक कार्यों, इमारतों और शिक्षा का संरक्षण का भी उल्लेख करता है।
प्रारंभिक इतिहास के माध्यम से, झेलम नदी के सिलेटिंग के कारण कश्मीर लगातार बाढ़ से ग्रस्त हो गया था। माना जाता है कि ललितादित्य को क्षेत्रों में पानी लाने के लिए सिलिंग और दूर तक नहर निर्माण किया गया है। यह भी कहा जाता है कि उनके द्वारा निचले स्तर पर दलदलों और निचले इलाकों में बांधों का निर्माण किया गया ताकि वे उन्हें खेती के लिए तैयार कर सकें। यह भी उल्लेख मिलता है कि ललितादित्य ने सिंचाई के लिए पानी की आपूर्ति करने के लिए पानी की चक्रों में व्यवस्था की हैं।
ललितिदित्य द्वारा अपनी राजधानी परिहासपुर या 'मुस्कुराहट शहर' सहित कई शहरों की स्थापना कर चुके हैं। यह श्रीनगर से लगभग 22 किलोमीटर दूर स्थित है और आज पारस्पेर के रूप में जाना जाता है, यहां सिर्फ कुछ पुराने खंडहर हैं जो हमें यहां बनाए गए भव्य शहर को देखते बनता हैं।
अपने साम्राज्य में ललितादित्य ने भी विष्णु, शिव, आदित्य (सूर्य भगवान) के साथ-साथ स्तूप और बुद्धों को समर्पित मूर्तियों के लिए बड़ी संख्या में मंदिर बनाए हैं। राजतरंगिन्नी (संभवतः अतिरंजित) में कुछ मंदिरों का निर्माण और उसमें स्थापित मूर्तियों का एक शानदार वर्णन है -
पारीहसा-केशव की एक मूर्ति, जो 3600 किलोग्राम चांदी से बना थी
मुक्ता-केशव की एक मूर्ति 99 किलोग्राम सोने का बना है
नाहारी की एक मूर्ति जो इसे ऊपर और नीचे मैग्नेट फिक्सिंग द्वारा हवा में स्थापित कर दी गई थी।
एक विष्णु स्तंभ जो ऊंचाई में 54 हाथों को मापा, और शीर्ष पर गरुड़ की एक छवि थी
62,000 किलोग्राम तांबे के बने बुद्ध की एक बड़ी मूर्ति, जिसे कल्हण के शब्दों में 'आकाश तक पहुंच'
लेकिन दुर्भाग्य से, आज भी इन महान मंदिरों का कुछ भी अवशेष नहीं है। ललितादित्य द्वारा जिस पैमाने पर इन्हें बनाया गया, उसका एकमात्र संकेत मार्टैंड सूर्य मंदिर के खंडहरों में देखा जा सकता है।
मार्टैंड सूर्य मंदिर महान कश्मीरी सम्राट ललितपादित्य का एकमात्र जीवित उदाहरण है
अनंतनाग से पांच मील की दूरी, ललितपादित द्वारा निर्मित मार्टेंड सूर्य मंदिर के खंडहर हैं। यह एक पठार पर बनाया गया था, जहां से कश्मीर की संपूर्ण घाटी और पीर पंजाल सीमा भी आज भी देखी जा सकती है। इसकी निर्माण की सटीक तिथि के बारे में नहीं जानते इस मंदिर परिसर के भव्य पैमाने के अलावा, जो भी वास्तुशिल्प संगम का प्रतिनिधित्व करता है, वह यह दर्शाता है। यह गलतिहरण, गुप्त और चीनी जैसी स्थापत्य शैली को जोड़ती है, जो ललितादित्य के राज्य की विविधता, मध्य एशिया, चीन और गंगा के मैदान से भिन्न प्रभाव दिखाती है।
इस मंदिर में 84 छोटे तीर्थों से घिरे एक केंद्रीय मंदिर शामिल थे। जबकि 15 वीं शताब्दी में सुल्तान सिकंदर बुतशिकन के आदेश पर मंदिर का विनाश हुआ था, इसके प्रभावशाली खंडहर अभी भी लंबा खड़ा है।
सर फ्रांसिस यंगहसबैंड, मध्य एशिया में अपनी यात्रा के लिए प्रसिद्ध ब्रिटिश एक्सप्लोरर, कश्मीर में अपनी पुस्तक में मार्टंड सूर्य मंदिर का लिखा -
'पूरी तरह से खुले और सादे मैदान पर, धीरे-धीरे हिमाच्छन्न पहाड़ों की पृष्ठभूमि से दूर ढलकर पूरी तरह से मुस्कुराते हुए कश्मीर घाटी और हिमाच्छन्न पर्वतमाला की पूरी लंबाई से दूर रहना, जो वास्तव में घिरा हुआ है, अभी तक बर्फीले पहाड़ों से घिरा नहीं हुआ, मिस्र में केवल एक मस्जिद के लिए एक मंदिर के खंडहर और ताकत और ग्रीक के लिए लालित्य और अनुग्रह से खड़ा हुआ ... प्राकृतिक सुंदरता की आंखों के बिना कोई भी उस निर्माण के लिए विशेष स्थल नहीं चुना होता एक मंदिर का और क्षणिक और क्षणिक के किसी झुकाव के साथ कोई भी इतना बड़े पैमाने पर बनाया और एक पैमाने पर स्थायी होगा।
राजा ललितादित्य 761 सीई में निधन हो गया था, हालांकि हम उस समय उनकी सटीक उम्र नहीं जानते थे और बाद में वह कमजोर शासकों के उत्तराधिकारी द्वारा पीछा किया गया। शताब्दियों में, राजा ललितादित्य या उनकी विरासत का कोई उल्लेख नहीं था।सादर_आभार 🙏🙏🙏
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