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महाशिवरात्रि व्रत कथा

महाशिवरात्रि व्रत कथा
पृथ्वी का एक वर्ष स्वर्गलोक का एक दिन होता है । पृथ्वी स्थूल है । स्थूल की गति अल्प होती है अर्थात स्थूल को ब्रह्मांड में यात्रा करने के लिए अधिक समय लगता है । देवता सूक्ष्म होते हैं एवं उनकी गति भी अधिक होती है । इसलिए उन्हें ब्रह्मांड में यात्रा करने के लिए अल्प समय लगता है । यही कारण है कि, पृथ्वी एवं देवता इनके कालमान में एक वर्ष का अंतर होता है । शिवजी रात्री एक प्रहर विश्राम करते हैं । उनके इस विश्राम के काल को महाशिवरात्रिकहते हैं । महाशिवरात्रि दक्षिण भारत एवं महाराष्ट्र में शक संवत् कालगणनानुसार माघ कृष्ण चतुर्दशी तथा उत्तर भारत में विक्रम संवत् कालगणनानुसार फाल्गुण कृष्ण चतुर्दशी को आती है ।

१. महाशिवरात्रि का महत्त्व

१. महाशिवरात्रि के दिन शिवतत्त्व नित्य की तुलना में १००० गुना अधिक कार्यरत रहता है । शिव तत्त्व का अधिकाधिक लाभ प्राप्त करने हेतु महाशिवरात्रि के दिन शिव की भावपूर्ण रीति से पूजा-अर्चा करने के साथ ॐ नमः शिवाय ।यह नामजप अधिकाधिक करना चाहिए ।
२. एक निर्दयी एवं महापापी व्याध (बहेलिया), एक दिन आखेट (शिकार)करने निकला । मार्ग में उसे शिवमंदिर दिखाई दिया । उस दिन महाशिवरात्रि थी । इस कारण, शिवमंदिर में भक्तजन पूजन, भजन, कीर्तन करते दिखाई दे रहे थे । पत्थर को भगवान माननेवाले मूर्ख लोग, ‘शिव शिवऔर हर हरकह रहे हैं’, इस प्रकार से उपहासात्मक वक्तव्य करते हुए वह वन में गया । आखेट (शिकार) ढूंढने के लिए वह एक वृक्ष पर चढकर बैठ गया । किंतु पत्तों के कारण उसे आखेट दिखाई नहीं दे रहा था । इस कारण उसने एक-एक पत्ता तोडकर नीचे गिराना आरंभ किया । यह कृत्य करते समय वह शीत से पीडित होकर, ‘शिव शिवकहता जा रहा था । तोडकर नीचे पेंâके जानेवाले बेल के पत्ते उस वृक्ष के नीचे स्थित शिव की पिंडी पर गिर रहे थे, जिसका ज्ञान बहेलिए को नहीं था । प्रातःकाल उसे एक हिरण दिखाई दिया । बहेलिया उसे बाण मारने ही वाला था कि हिरण उससे बाण न मारने की विनती करने लगा । तत्पश्चात पाप का परिणाम बताकर वहां से चला गया । अनजाने हुआ महाशिवरात्रि का जागरण, शिव पर चढे बेलपत्र और शिव के जप के कारण बहेलिए के पाप नष्ट हुए एवं ज्ञान भी प्राप्त हुआ । इस कथा से ज्ञात होता है कि अनजाने में भी हुई शिवजी की उपासना से शिव कितने प्रसन्न होते हैं !

२. व्रत के प्रधान अंग

इस व्रत के तीन अंग हैं उपवास, पूजा एवं जागरण ।

३. व्रत की विधि

फाल्गुन कृष्ण पक्ष त्रयोदशी पर एकभुक्त रहें । चतुर्दशी के दिन प्रातःकाल व्रत का संकल्प करें । सायंकाल नदी पर अथवा तालाब पर जाकर शास्त्रोक्त स्नान करें । भस्म और रुद्राक्ष धारण करें । प्रदोषकाल में शिवजी के मंदिर जाएं । शिवजी का ध्यान करें । तदुपरांत षोडशोपचार पूजा करें । भवभवानी प्रीत्यर्थ (यहां भव अर्थात शिव) तर्पण करें । नाममंत्र जपते हुए शिवजी को एक सौ आठ कमल अथवा बिल्वपत्र अर्पित करें । पुष्पांजलि अर्पित कर, अघ्र्य दें । पूजासमर्पण, स्तोत्रपाठ तथा मूलमंत्र का जाप हो जाए, तो शिवजी के मस्तकपर चढाए गए फूल लेकर अपने मस्तकपर रखें और शिवजी से क्षमायाचना करें ।’ ‘महाशिवरात्रि पर शंकरजी को आम्रमंजरी (आम के बौर का गुच्छा) भी अर्पण करते हैं ।’ – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी
अ. महाशिवरात्रि को हर एवं हरि एक होते हैं; इसलिए शंकर को तुलसी तथा विष्णु को बेल चढाते हैं ।

४. यामपूजा

शिवरात्र की रात्रि के चारों प्रहरों में चार पूजा करने का विधान है, जिसे यामपूजा कहा जाता है । प्रत्येक यामपूजा में देवता को अभ्यंगस्नान कराएं, अनुलेपन करें, साथ ही धतूरा, आम तथा बेलपत्र अर्पित करें । चावल के आटे के २६ दीप जलाकर देवता की आरती उतारें । पूजा के अंत में १०८ दीप दान करें । प्रत्येक पूजा के मंत्र भिन्न होते हैं; मंत्रोंसहित अघ्र्य दें । नृत्य, गीत, कथाश्रवण इत्यादि करते हुए जागरण करें । प्रातःकाल स्नान कर, पुनः शिवपूजा करें । पारण अर्थात व्रत की समाप्ति के लिए ब्राह्मणभोजन कराएं । आशीर्वाद प्राप्त कर व्रतसमाप्ति हो जाती है । बारह, चौदह अथवा चौबीस वर्ष जब व्रत हो जाएं, तो उनका उद्यापन करें ।

५. महाशिवरात्रिपर हुई एक अनुभूति

महाशिवरात्रिपर सायंकाल में आकाश की ओर देखते हुए नामजप करते समय वातावरण सात्त्विक बनने का भान दो साधिकाओं को एक-साथ होना
अ. महाशिवरात्रिपर सायंकाल में मेरा नामजप एकाग्रता से हो रहा था और भगवान के प्रति कृतज्ञता का भाव जागृत हो रहा था ।
आ. आकाश की ओर देखकर मुझे अत्यधिक अच्छा लग रहा था । वातावरण शिवलोक के समान प्रतीत हो रहा था; सात्त्विकता का अनुभव हो रहा था । यह अनुभूति हुई कि, ‘शारीरिक कष्ट होते हुए भी मंगलमय वातावरण में नामजप मन:पूर्वक एवं अपनेआप होता है ।उसी समय वहां सूक्ष्म-ज्ञानसंबंधी विभाग की साधिका श्रीमती अंजली गाडगीळ भी नामजप कर रही थी । उन्हें देखकर लगा मानो वे ब्रह्मांड की रिक्ति में बैठकर नामजप कर रही हैं ।ऐसा लगा जैसे वातावरण नित्य की तुलना में अधिक सात्त्विक हो गया है ।

शिवपिंडी पर बिल्वपत्र चढाने की पद्धति

अथर्ववेद, ऐतरेय एवं शतपथ ब्राह्मण, इन ग्रंथों में बिल्ववृक्ष का उल्लेख आता है । यह एक पवित्र यज्ञीय वृक्ष है । ऐसे पवित्र वृक्ष का पत्ता सामान्यतः त्रिदलीय होता है । यह त्रिदल बिल्वपत्र त्रिकाल, त्रिशक्ति तथा ओंकार की तीन मात्रा इनके निदर्शक हैं ।

१. शिवपिंडीपर बिल्वपत्र चढानेकी पद्धति तथा बिल्वपत्र तोडनेके नियम

         बिल्ववृक्ष में देवता निवास करते हैं । इस कारण बिल्ववृक्ष के प्रति अतीव कृतज्ञता का भाव रखकर उससे मन ही मन प्रार्थना करनेके उपरांत उससे बिल्वपत्र तोडना आरंभ करना चाहिए । शिवपिंडी की पूजा के समय बिल्वपत्र को औंधे रख एवं उसके डंठल को अपनी ओर कर पिंडी पर चढाते हैं । शिवपिंडी पर बिल्वपत्र को औंधे चढाने से उससे निर्गुण स्तरके स्पंदन अधिक प्रक्षेपित होते हैं । इसलिए बिल्वपत्र से श्रद्धालुको अधिक लाभ मिलता है । सोमवार का दिन, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तथा अमावस्या, ये तिथियां एवं संक्रांति का काल बिल्वपत्र तोडने के लिए निषिद्ध माना गया है । बिल्वपत्र शिवजी को बहुत प्रिय है, अतः निषिद्ध समय में पहले दिन का रखा बिल्वपत्र उन्हें चढा सकते हैं । बिल्वपत्र में देवतातत्त्व अत्यधिक मात्रा में विद्यमान होता है । वह कई दिनोंतक बना रहता है ।
त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रंच त्रयायुधम् ।
त्रिजन्मपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ।। – बिल्वाष्टक, श्लोक १
अर्थ : त्रिदल (तीन पत्र) युक्त, त्रिगुण के समान, तीन नेत्रों के समान, तीन आयुधों के समान एवं तीन जन्मों के पाप नष्ट करनेवाला यह बिल्वपत्र, मैं शंकरजी को अर्पित करता हूं ।

२. शिवजी को त्रिदल बेल चढाने के विविध मनोवैज्ञानिक कारण

अ. सत्त्व, रज एवं तम से उत्पत्ति, स्थिति एवं लय की निर्मिति होती है । कौमार्य, यौवन एवं जरा (वृद्धावस्था), इन अवस्थाओं के प्रतीकस्वरूप शंकरजी को बिल्वपत्र अर्पित करें अर्थात त्रिगुणों की इन तीनों अवस्थाओं से परे जाने की इच्छा प्रकट करें; क्योंकि त्रिगुणातीत होने से ही ईश्वर मिलते हैं ।’ (संदर्भ : अज्ञात)
आ. बेल एवं दूर्वा के समान गुणातीत अवस्था से गुण को लेकर कार्य करने से, वह कार्य कर के भी अलिप्त रह पाना : शिवजी को प्रिय है त्रिदल बेल। अर्थात जो सत्त्व, रज एवं तम, अपने तीनों गुण शिवजी को समर्पित कर भगवत्कार्य करता है, उससे शिव संतुष्ट होते हैं । श्रीगणेश को भी त्रिदल दूर्वा स्वीकार्य है । गुणातीत अवस्था में रहते हुए, बेल एवं दूर्वा अपने गुणोंद्वारा भगवत्कार्य करते हैं । इसीलिए भक्तों को वे उपदेश करते हैं, ‘तुम भी गुणातीत होकर भक्तिभाव से कार्य करो । गुणातीत अवस्था से गुण को लेकर कार्य करनेसे, वह कार्य करके भी अलिप्त रहोगे ।’ – प.पू. परशराम माधव पांडे, पनवेल.
विवरण : सर्वसाधारण व्यक्ति के लिए निर्गुण, निराकार की उपासना कठिन है । इसलिए बेल एवं दूर्वा जैसी गुणातीत सामग्री से सगुण भक्ति करते हुए, भक्त के लिए सगुण से निर्गुण की ओर अग्रसर होना सरल हो जाता है ।

३. शिवपिंडी पर बेल चढाने की पद्धति से संबंधित अध्यात्मशास्त्र

अ. तारक अथवा मारक उपासना-पद्धति के अनुसार बिल्वपत्र कैसे चढाएं ?

बिल्वपत्र, तारक शिव-तत्त्व का वाहक है, तथा बिल्वपत्र का डंठल मारक शिव-तत्त्व का वाहक है ।
  • १. शिव के तारक रूप की उपासना करनेवाले : सर्वसामान्य उपासकों की प्रकृति तारक स्वरूप की होनेसे, शिव के तारक रूप की उपासना करना ही उनकी प्रकृति से समरूप होनेवाली तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिए पोषक होती है । ऐसे लोगों को शिव के तारक तत्त्व से लाभान्वित होने के लिए बिल्वपत्र का डंठल पिंडी की दिशा में और अग्रभाग अपनी दिशा में रखते हुए चढाएं । (बिल्वं तु न्युब्जं स्वाभिमुखाग्रं च ।)
  • २. शिव के मारक रूप की उपासना करनेवाले : शाक्तपंथीय शिव के मारक रूप की उपासना करते हैं ।
·         अ. ये उपासक शिव के मारक तत्त्व का लाभ लेने हेतु बिल्वपत्र का अग्रभाग देवता की दिशा में और डंठल अपनी दिशा में कर चढाएं ।
·         आ. पिंडी में दो प्रकार के पवित्र कण होते हैं आहत (पिंडी पर सतत गिरनेवाले जल के आघात से उत्पन्न) नाद के ± अनाहत (सूक्ष्म) नाद के । ये दोनों पवित्र कण एवं चढाए हुए बिल्वपत्र के पवित्रक, इन तीनों पवित्र कणों को आकर्षित करने के लिए तीन पत्तों से युक्त बिल्वपत्र शिवजी को चढाएं । कोमल बिल्वपत्र आहत (नादभाषा) एवं अनाहत (प्रकाशभाषा) ध्वनि के एकीकरण की क्षमता रखते हैं । इन तीन पत्तोंद्वारा एकत्र आनेवाली शक्ति पूजक को प्राप्त हो इस उद्देश्य से बिल्वपत्र को औंधे रख एवं उसका डंठल अपनी ओर कर बिल्वपत्र पिंडी पर चढाएं । इन तीन पवित्रकों की एकत्रित शक्ति से पूजक के शरीर में त्रिगुणों की मात्रा घटने में सहायता मिलती है ।

आ. बिल्वपत्र चढाने की पद्धति के अनुसार व्यष्टि एवं समष्टि स्तर पर होनेवाला शिवतत्त्व का लाभ

बिल्वपत्र का डंठल पिंडी की ओर तथा अग्र (सिरा) अपनी ओर कर जब हम बिल्वपत्र चढाते हैं, उस समय बिल्वपत्र के अग्र के माध्यम से शिवजी का तत्त्व वातावरण में अधिक पैâलता है । इस पद्धति के कारण समष्टि स्तर पर शिवतत्त्व का लाभ होता है । इसके विपरीत बिल्वपत्र का डंठल अपनी ओर तथा अग्र पिंडी की ओर कर जब हम बिल्वपत्र चढाते हैं, उस समय डंठल के माध्यम से शिवतत्त्व केवल बिल्वपत्र चढानेवाले को ही मिलता है । इस पद्धति के कारण व्यष्टि स्तर पर शिवतत्त्व का लाभ होता है ।

इ. बिल्वपत्र को औंधे क्यों चढाएं ?

शिवपिंडी पर बिल्वपत्र को औंधे चढाने से उस से निर्गुण स्तर के स्पंदन अधिक प्रक्षेपित होते हैं, इसलिए बिल्वपत्र से श्रद्धालु को अधिक लाभ मिलता है । शिवजी को बेल ताजा न मिलने पर बासी बेल अर्पित कर सकते हैं; परंतु सोमवार का तोडा हुआ बेल दूसरे दिन अर्पित नहीं करते हैं ।

४. बेल के त्रिदलीय पत्ते की सू्क्ष्म-स्तरीय विशेषताएं दर्शानेवाला चित्र


अ. चित्र में अच्छे स्पंदन : ४ प्रतिशत’ – प.पू. डॉ. जयंत आठवले
आ. बिल्वपत्र के त्रिदलीय पत्ते में स्पंदनों की मात्रा : शिवतत्त्व ५ प्रतिशत, शांति ३ प्रतिशत, चैतन्य (निर्गुण) ३ प्रतिशत, शक्ति (मारक) २.२५ प्रतिशत
इ. अन्य सूत्र : बेल के एक पूर्ण पत्ते में ३ उपपत्ते अंतर्भूत होते हैं । इसलिए यहां पर पूर्ण पत्ते का उल्लेख त्रिदलीय पत्ताऐसा किया है ।
  • १. बेल के त्रिदलीय पत्ते की ओर देखने से मुझे उसमें ध्यानस्थ शिवजी के अर्धोन्मिलित नेत्र दिखाई दिए तथा बेल के त्रिदलीय पत्तेमें से ऊपरी (उप)पत्ते में शिवजी का तृतीय नेत्र दिखाई दिया ।
  • २. सूक्ष्म-ज्ञानसंबंधी परीक्षण करते समय मुझे सूक्ष्म से एक दृश्य दिखा, ‘एक ऋषि बेल के वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ बैठकर उपासना कर रहे हैं एवं उनके समक्ष की शिवपिंडी पर बेल के पत्तों की बौछार हुई ।’’
    कु. प्रियांका लोटलीकर
ई. सूक्ष्म-ज्ञानसंबंधी परीक्षण
  • १. ऐसा लगा कि बिल्वपत्र त्रिगुणात्मकता का प्रतीक है ।
  • २. शिवतत्त्व की अनुभूति : बिल्वपत्र से बहुत शीतल तरंगें प्रक्षेपित हो रही थीं । इससे शांति के स्पंदनों की जबकि पत्र के बाह्य भाग में शक्ति के ऊर्जात्मक स्पंदनों की अनुभूति हो रही थी । ये दोनों अनुभूतियां बिल्वपत्र में विद्यमान शिवतत्त्व के कारण हुर्इं ।
  • ३. बिल्वपत्र के कारण ध्यान लगने में सहायता मिलना : ऐसा अनुभव हुआ कि बिल्वपत्र के डंठल से वातावरण में चैतन्य के स्पंदन प्रक्षेपित हो रहे थे और इसी कारण वे ध्यान लगने में (मन के एकाग्र होनेमें) सहायक हैं ।
  • ४. अनाहत नाद की अनुभूति होना : मेरे मन को अनाहत नाद का भान हो रहा था तथा वह नाद सूक्ष्म से भी सुनाई दे रहा था ।
    कु. प्रियांका लोटलीकर, रामनाथी, गोवा.

५. स्वास्थ्य की दृष्टि से बेल के लाभ

अ. आयुर्वेद के कायाकल्प में त्रिदलरस-सेवन को महत्त्व दिया गया है ।
आ. बेलफल को आयुर्वेद में अमृतफल कहते हैं । ऐसा कोई भी रोग नहीं, जो बेल से ठीक नहीं हो । यदि किसी परिस्थिति में औषधि न मिले, तो बेल का प्रयोग करना चाहिए; केवल गर्भवती स्त्री को बेल न दें, क्योंकि उससे गर्भपात होने की संभावना होती है ।

१. दैहिक एवं भौतिक विशेषताएं

अ. शिवजी का धूसर रंग

मूल श्वेत रंग के स्पंदन साधक सहन नहीं कर पाएगा; इसलिए शिवजी के शरीर पर धूसर रंग का आवरण होता है ।

आ. गंगा

  • व्युत्पत्ति एवं अर्थ
·         १. गमयति भगवत्पदमिति गङ्गा ।अर्थात जो (स्नानकर्ता जीव को) भगवत्पदतक पहुंचाती है, वह गंगा है ।
·         २. गम्यते प्राप्यते मोक्षार्थिभिरिति गङ्गा । शब्दकल्पद्रुमअर्थात जिसके पास मोक्षार्थी अर्थात मुमुक्षु जाते हैं, वह गंगा है ।
  • पृथ्वी पर गंगा
·         गंगा नदी का उद्गम हिमालय में गंगोत्री से है । वहां से वह अनेक उपनदियों के साथ बंगाल की खाडी में मिल जाती है । इसकी कुल लंबाई २५१० कि.मी. है । इस आध्यात्मिक गंगा का अंशात्मक तत्त्व है पृथ्वी पर गंगा नदी, जो प्रदूषित होने पर भी अपनी पवित्रता सर्वदा कायम रखती है । इसीलिए विश्व के किसी भी जल की तुलना में गंगाजल अधिक पवित्र है; यह सूक्ष्म के जानकार ही नहीं, अपितु वैज्ञानिक भी मानते हैं । (गंगासंबंधी विस्तृत जानकारी सनातन के ग्रंथ गंगामाहात्म्यके अंतर्गत दी गई है ।)
शिवजी ने अपने मस्तक पर कैसे धारण किया मां गंगा को..
गंगा को शास्त्रों में देव नदी कहा गया है। इस नदी को पृथ्वी पर लाने का काम महाराज भागीरथ ने किया था। महाराज भागीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने भगवान विष्णु के चरण से निकलने वाली गंगा को अपने सिर पर धारण करके पृथ्वी पर उतारने का वरदान दिया।
भागीरथ एक प्रतापी राजा थे। उन्होंने अपने पूर्वजों को जीवन-मरण के दोष से मुक्त करने के लिए गंगा को पृथ्वी पर लाने की ठानी। उन्होंने कठोर तपस्या आरम्भ की। गंगा उनकी तपस्या से प्रसन्न हुईं तथा स्वर्ग से पृथ्वी पर गिरेंगीं तो पृथ्वी उनका वेग सहन नहीं कर पाएगी और रसातल में चली जाएगी।
गंगा को यह अभिमान था कि कोई उसका वेग सहन नहीं कर सकता। तब उन्होंने भगवान भोलेनाथ की उपासना शुरू कर दी। संसार के दुखों को हरने वाले शिव शम्भू प्रसन्न हुए और भागीरथ से वर मांगने को कहा। भागीरथ ने अपना सब मनोरथ उनसे कह दिया।
गंगा जैसे ही स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरने लगीं गंगा का गर्व दूर करने के लिए शिव ने उन्हें जटाओं में कैद कर लिया। वह छटपटाने लगी और शिव से माफी मांगी। तब शिव ने उसे जटा से एक छोटे से पोखर में छोड दिया, जहां से गंगा सात धाराओं में प्रवाहित हुईं।

इ. चंद्र

शिवजी के मस्तक पर चंद्र है । चंद्रमाममता, क्षमाशीलता एवं वात्सल्य (आह्लाद) के तीन गुणों की संयुक्त अवस्था है ।

ई. तीसरा नेत्र

शिव का बायां नेत्र है प्रथम, दाहिना है द्वितीय एवं भ्रूमध्य के कुछ ऊपर सूक्ष्मरूप में स्थित ऊध्र्व नेत्र है तृतीय । ऊध्र्व नेत्र दाहिने एवं बाएं नेत्रों की संयुक्त शक्ति का प्रतीक है । वह अतींद्रिय शक्ति का महापीठ है । इसी को ज्योतिर्मठ, व्यासपीठ इत्यादि नाम से भी जाना जाता है ।
शिव का तीसरा नेत्र तेजतत्त्व का प्रतीक है । इसलिए शिव के चित्र में भी तीसरे नेत्र का आकार ज्योति के समान है ।
शिवजी ने तीसरे नेत्र से कामदहन किया है । (खरे ज्ञानी पर काम के प्रहार थोथरे प्रमाणित होते हैं । इतना ही नहीं, अपितु खरा ज्ञानी अपने ज्ञान के तेज से समस्त कामनाओं को ही भस्म कर देता है ।)
योगशास्त्रानुसार तीसरा नेत्र अर्थात सुषुम्ना नाडी ।
शिवजी त्रिनेत्र हैं, अर्थात वे भूतकाल, वर्तमानकाल एवं भविष्यकाल अर्थात, त्रिकाल की घटनाओं का अवलोकन कर सकते हैं ।

उ. नाग

  • नाग को शिव का आयुध भी माना जाता है । विश्व के नौ नागों को नवनारायणभी कहते हैं । नवनाथों की उत्पत्ति नौ नागों से ही हुई है । नवनारायण एवं नवनाथसंबंधी विवेचन सनातन के ग्रंथ श्रीविष्णु, श्रीराम एवं श्रीकृष्णमें दी है ।
  • कार्तिकेय, जोतिबा, रवळनाथ एवं सब्बु । ये सभी नागरूप देवता हैं ।
  • सर्व देवी-देवताओं के रूप में किसी न किसी संदर्भ में नाग जुडा रहता है ।
  • नाग पुरुषतत्त्व का प्रतीक है । वह संतानदाता देवता है ।

ऊ. भस्म

शिवजी ने अपने शरीर पर भस्म लगाया है । भस्म को शिव का वीर्यभी मानते हैं ।

ए. रुद्राक्ष

अपने बालों के जूडे, गले, भुजाओं, कलाइयों एवं कटि पर (कमर पर) शिव ने रुद्राक्षमालाएं धारण की हैं ।

ऐ. व्याघ्रांबर

बाघ (रज-तम गुण) क्रूरता का प्रतीक है । ऐसे बाघ का अर्थात रज-तम गुणों को नष्ट कर, शिवजी ने उसका आसन बनाया है ।

२. आध्यात्मिक विशेषताएं

अ. उत्तम गुरुसेवक

महाविष्णु पर शंकरजी की अत्यधिक श्रद्धा है । उन्होंने महाविष्णु के चरणों के निकट स्थित गंगा को अपने मस्तक पर धारण
किया है ।

आ. महातपस्वी एवं महायोगी

निरंतर नामजप करनेवाले देवता एकमात्र शिव ही हैं । वे सदैव बंध-मुद्रा में आसनस्थ रहते हैं । अत्यधिक तप के कारण बढे तापमान को न्यून (कम) करने के लिए उन्होंने गंगा, चंद्र, सर्प आदि धारण किए जो उन्हें शीतलता प्रदान करते हैं एवं उनका निवास स्थान भी हिम से ढंके कैलाश पर्वत पर है ।

इ. क्रोधी

अखंड नामजप करने में ध्यानमग्न शिव यदि स्वयं विराम करें तो उनका स्वभाव शांत ही रहता है; परंतु नामजप में कोई बाधा उत्पन्न करे (उदा. जिस प्रकार कामदेव ने विघ्न डाला), तो साधना के कारण बढा हुआ तेज तत्क्षण (एकदम से) प्रक्षेपित होता है एवं समीप खडा व्यक्ति उस तेज को सह न पाने के कारण भस्म हो जाता है । अर्थात इसे ही कहते हैं, ‘शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोलकर भस्म कर दिया ।मान लें कि, विघ्न-बाधाएं डालनेवाले व्यक्ति को इस प्रक्रिया से १०० प्रतिशत कष्ट होता है तो शिव को मात्र ०.०१ प्रतिशत ही । उस कष्ट से शिव का नाडीबंध छूट जाता है; परंतु आसन नहीं छूटता । तत्पश्चात शिव पुनः बंध लगा लेते हैं ।

ई. वैरागी

विषयभोग सामग्री के सान्निध्य में भी जिसका चित्त अविकारी रहता है, वह कूटस्थ है । जंघा पर पार्वतीजी होते हुए भी, शिवजी निर्विकार रहते हैं, उन्हें कामवासना का स्पर्श भी नहीं होता । ऐसा शिव ही खरा जीतेंद्रिय है ।

उ. दूसरों के सुख के लिए किसी भी प्रकार का कष्ट सहने के लिए सिद्ध (तैयार) रहनेवाले

समुद्र-मंथन से उत्पन्न हालाहल विष संपूर्ण विश्व को जला रहा था । उस समय किसी भी देवता ने उस विष को ग्रहण करने का साहस नहीं किया । तब शिव ने हलाहल का प्राशन किया एवं संपूर्ण विश्व को विनाश से बचा लिया । इस विषप्राशन के कारण उनका कंठ नीला पड गया और वे नीलकंठकहलाए ।

ऊ. महाकाली के आवेग को शांत करनेवाला शिवत्व

दैत्यसंहार करते समय महाकाली अनियंत्रित चक्रवात के समान भयंकर बन गई । उन्हें नियंत्रित करना असंभव हो गया ! शंकरजी ने प्रेतरूप धारण किया तथा कालनृत्य के मार्ग में शिव का शव गिरा । राक्षसों के शव कुचलते हुए, वह कालरात्रि शंकरजी के शवतक पहुंची । उस शव का स्पर्श होते ही कालरात्रि के नृत्य का भयंकर चक्रवात शांत हो गया, वेग शांत हो गया । यही है शिवत्व ! वही परमतत्त्व है !!’ – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (१)

ए. सहज प्रसन्न होनेवाले (आशुतोष)

ऐ. प्रसन्न होने पर मुंह-मांगा वरदान देनेवाले

एक बार शिव ने रावण के तप से प्रसन्न होकर उसे अपनी पत्नी ही नहीं, बल्कि आत्मलिंग (आत्मा) भी दे दिया । (आत्मलिंग प्राप्त होने पर रावण स्वयं शिव बनना चाहता था ।)

ओ. देवता एवं दानव दोनोंद्वारा पूजे जानेवाले

क्षुद्रदेवता, कनिष्ठ देवता, स्वर्गलोक के कुछ देवता तथा स्वयं श्रीविष्णु शिव के उपासक हैं । (शिव श्रीविष्णु के उपासक हैं ।) केवल देवता ही नहीं; अपितु दानव भी शिवजी के उपासक हैं । यह शिवजी की विशेषता है । बाणासुर, रावण आदि दानवों ने कभी श्रीविष्णु की तपस्या नहीं की और न ही श्रीविष्णु ने किसी दानव को वरदान दिया । दानवों ने शिवजी की उपासना कर, उन्हें प्रसन्न किया एवं मनोवांच्छित वरदान प्राप्त किया । अनेक बार इस प्रकार वरदान देकर, अन्य देवताओंसहित शिवजी स्वयं भी संकट में पड गए और तब प्रत्येक बार श्रीविष्णु ने उन्हें संकटों से उबारने की युक्ति निकाली ।

औ. भूतों के स्वामी

शिवजी भूतों के स्वामी हैं; इसलिए शिव-उपासकों को प्रायः भूतबाधा नहीं होती ।

अं. परस्परविरोधी विशेषताओं से (स्वीकृति एवं विकृति से) युक्त

उत्पत्ति-लय क्षमता, शांत-क्रोधी, चंद्र (शीतलता)-तीसरा नेत्र (भस्म करनेवाला तेज), सात्त्विक-तामसिक इत्यादि परस्परविरोधी विशेषताएं शिवजी में हैं ।
शिवजी के रूप जो दुःख का नाश करता है वह है रुद्र, शिव के क्रोध से उत्पन्न हुए कालभैरव, नटराज, यमधर्म एवं दक्षिणलोक के प्रमुख वीरभद्र, विकृतियों को अपनी ताल पर नचानेवाले वेताल, भूतनाथ, इत्यादि की जानकारी इस लेख में दी है ।

१. रुद्र

अ. व्युत्पत्ति एवं अर्थ

१.रोदयति इति रुद्र ।
अर्थ : जो रुलाता है, वह रुद्र है ।
२. रु अर्थात रोना एवं द्रु अर्थात भागना । रुद्र अर्थात रोनेवाला, रुलानेवाला; देवतादर्शन के लिए बिलखनेवाला । जो मुिक्त हेतु क्रंदन करता है, वह रुद्र ।
३. रुतं राति इति रुद्रः ।
अर्थ : रुतं दुःख एवं राति नाश करता है । जो दुःख का नाश करता है, वह है रुद्र । दुःख का अर्थ है अविद्या अथवा संसार । रुद्र अविद्या से निवृत्त करनेवाला ।
४. रुत् अर्थात सत्य अर्थात शब्दरूपी उपनिषद् । रुद्र वह है जिसने रुत् को समझा अथवा प्रतिपादित किया ।
५. रुत् अर्थात शब्दरूप वाणी अथवा तत्प्रतिपाद्य आत्मविद्या । जो अपने उपासकों को यह वाणी अथवा विद्या देते हैं, वे हैं रुद्र ।
६. रुद्र का एक अन्य नाम है वृषभ। वृषभ शब्द वृष्धातु से बना है । उसके दो अर्थ हैं वृष्टि करनेवाला एवं अत्यधिक प्रजननशक्तियुक्त । रुद्र वृष्टि करते हैं, जिससे वनस्पति जगत में बहार आती है, ऐसी स्पष्ट धारणा ऋग्वेद के रुद्रसंबंधी मंत्र में व्यक्त की गई है । आजकल वृषभशब्द अधिकतर बैलके अर्थ से प्रयुक्त होता है । उसका कारण है बैल में विद्यमान विशेष प्रजननशक्ति ।

आ. रुद्रगण

ये रुद्र के पार्षद (सेवक) हैं, अर्थात सदैव रुद्र के समीप रहकर सेवा करते हैं । ऐसा बताया जाता है कि इन गणों की संख्या एक करोड है । भूतनाथ, वेताल, उच्छुष्म, प्रेतपूतन, कुभांड इत्यादि गण रुद्रद्वारा उत्पन्न किए गए हैं । रुद्रगण रुद्रसमान ही वेष धारण करते हैं । वे स्वर्ग में निवास करते हैं, पापियों का नाश करते हैं, धार्मिकों का पालन करते हैं, पाशुपतव्रत धारण करते हैं, योगियों की विघ्न-बाधाएं दूर करते हैं तथा शिवजी की अविरत सेवा करते हैं ।

२. कालभैरव

ये आठ भैरवोंमें से एक हैं एवं इनकी उत्पत्ति शिव के क्रोध से हुई है । शिव ने ब्रह्मदेव का पांचवा मस्तक कालभैरवद्वारा तुडवाया एवं उसके उपरांत उन्हें काशीक्षेत्र में रहने की आज्ञा दी । इन्हें काशी का कोतवालभी कहा जाता है । काशी में प्रवेश करने पर सर्वप्रथम इनके दर्शन करने पडते हैं । दर्शन से लौटते समय कालभैरव का काला धागा हाथ पर बांधते हैं ।

३. वीरभद्र

यमधर्म एवं दक्षिणलोक के प्रमुख वीरभद्र भी शिवगण हैं । दक्षिणलोक से प्रत्यक्ष संबंध रखनेवाले वीरभद्र एक ही देवता हैं; इसलिए ये भूतमात्रों के नाथ अर्थात भूतनाथ हैं । वीरभद्र ने वेताल को अपना वाहन बनाया है । प्रचलित कथा के अनुसार, शिव के लिंगरूप की प्रथम पूजा वीरभद्रने की थी ।

४. भैरव (भैरवनाथ)

शिवागम में भैरवों के चौंसठ प्रकार बताए गए हैं । भैरवों के आठ वर्ग हैं एवं प्रत्येक वर्ग में आठ भैरव हैं । इन आठ वर्गों के प्रमुख अष्टभैरव के नाम से प्रसिद्ध हैं । इसके साथ ही, कालभैरव, बटुकभैरव भी प्रसिद्ध हैं । तंत्रग्रंथ में चौंसठ भैरवों को चौंसठ योगिनियों का स्वामी मानकर शक्तियों एवं भैरवों के बीच निकटता का संबंध दर्शाया गया है । ऐसी मान्यता है कि, ‘भैरव प्रत्येक शक्तिपीठ का संरक्षण करते हैं ।महापीठनिरूपण ग्रंथ के अनुसार जिस शक्तिपूजा में भैरव को वर्जित किया गया हो, वह पूजा निष्फल सिद्ध होती है ।

अ. उपासना

महाराष्ट्र में आम तौर पर भैरव को ही ग्रामदेवता मानकर पूजा जाता है । उन्हें भैरोबा, बहिरोबा अथवा विरोबा नाम से भी संबोधित करते हैं । प्रायः प्रत्येक गांव में इस देवता का निवासस्थान होता है, जो बांबी (सांप का बिल) अथवा श्मशान जैसी जगहों पर रहते हैं । कभी उनकी मूर्ति होती है अथवा कभी गोल पत्थर होता है । ऐसा कहा जाता है कि रात को जब घोडे पर सवार वे गश्त लगाने निकलते हैं, तो उनके साथ एक काला कुत्ता होता है ।भैरव क्षुद्रदेवता हैं, इसलिए साधना के तौर पर भैरव की उपासना नहीं करते

आ. अनिष्ट शक्तियों का निवारण करनेवाले

इन उपचारों में कांटे से कांटा निकालना’, इस नियम का उपयोग किया जाता है । इसके अनुसार भैरव के जप से जो शक्ति निर्मित होती है, वह अनिष्ट शक्तियों की पीडा को दूर करती है । जब यह प्रक्रिया होती है, उस समय व्यक्ति को कष्ट का अनुभव हो सकता है । मृत्युपरांत व्यक्ति का मार्गक्रमण दक्षिणमार्ग अथवा क्षेत्र की ओर होता है । भैरव वहां के देवता हैं जबकि नारायण उत्तरमार्ग अर्थात आनंदमार्ग के देवता हैं ।

४. वेताल

यह वैतालशब्द से बना है । वैताल अर्थात विकृतियों को अपनी ताल पर नचानेवाला । जहां आहत एवं अनाहत नाद एकत्रित
होते हैं, वहां वैनामक स्पंदन उत्पन्न होते हैं जो विकृतियों को सीधी राह पर लाते हैं । वेताल को आग्यावेताल, ज्वालावेताल अथवा प्रलयवेताल भी कहते हैं ।

अ. विशेषताएं

वेताल इत्यादि स्कंदसैनिकों का भूतगणों में समावेश किया जाता है । मत्स्यपुराण में वेताल को लहु एवं मांस का भक्षण करनेवालाबताया गया है । शिवजी ने वेताल को पिशाचों का स्वामी बनाया । मांत्रिक, वेताल को वीरकहते हैं । वेताल की मां वैताली ने मातृकाके नाम से भी महत्ता पाई है ।

आ. मूर्तियां

वेताल की मूर्तियां लकडी अथवा पाषाण की होती हैं । ग्रामदेवता के स्वरूप में वेताल गोल पत्थर के आकार का होता है । गोमंतक (गोवा) क्षेत्र में उनकी मूर्तियां लकडी अथवा पाषाण की होती हैं, जिनमें से कुछ मूर्तियां नग्न भी हैं । इनके हाथ में त्रिशूल अथवा डंडा होता है ।

इ. उपासना

गोमंतक में प्रियोळ, आमोणे, सावर्डे इत्यादि ग्रामों के अथवा महाराष्ट्र में पुणे क्षेत्र के अनेक गांवों के ये ग्रामदेवता हैं । पश्चिम महाराष्ट्र में सिंदूर से सने गोल पत्थर के स्वरूप में वे गांव की सीमा पर विश्राम करते हैं । उनके आस-पास सिंदूर मले हुए अन्य गोल पत्थर रखे रहते हैं, जो उनके सैनिक कहलाते हैं । वेताल मंदिर के आस-पास अधिकतर नवग्रहों के मंदिर होते हैं । महाराष्ट्र की महार नामक जाति इनकी उपासक है । इनकी पूजा नग्नावस्था में की जाती है । उन्हें प्रसन्न करने हेतु मुर्गी-बकरियों की बलि दी जाती है । कुछ जगह मिष्ठान्न भी चढाते हैं एवं उत्सव के दौरान उन्हें पुष्पों से सुशोभित पालकी में ले जाते हैं ।
क्षुद्रदेवताओं को बलि चढाने का उद्देश्य : क्षुद्रदेवताओं को प्रसन्न करने हेतु प्राणियों की बलि चढाते हैं । क्षुद्रदेवता पृथ्वी एवं आप तत्त्वों से संबंधित हैं तथा उच्च देवता तेज, वायु एवं आकाश के तत्त्वों से संबंधित हैं । पृथ्वी एवं आप तत्त्वों से संबंधित होने के कारण पृथ्वीतत्त्व से बना तमप्रधान प्राणी अर्पित करने पर क्षुद्रदेवता संतुष्ट होते हैं । इसके विपरीत उच्च देवताओं को गंध (चंदन), अक्षत, फूल इत्यादि सात्त्विक वस्तुए अर्पित करने पर वे प्रसन्न होते हैं । इसीलिए उच्च देवताओं को बलि नहीं चढाते ।
क्षुद्रदेवताओं को बलि चढाने का आधारभूत दृष्टिकोण : बलि चढाते समय किए जानेवाले मंत्रोच्चारण से प्राणी को मुक्ति मिलती है तथा जिस पर आए संकट को दूर करने के लिए बलि दी जाती है, उसकी समस्या देवता की कृपा से मिट जाती है । दोनों को लाभ प्राप्त होने हेतु आवश्यक है कि प्राणी का बलिदान स्वेच्छापूर्वक हो । मूक प्राणी स्वेच्छा से बलि चढ रहा है अथवा नहीं, यह उसके आचरण से ज्ञात होता है । यदि वह गर्दन सीधी रख बलिवेदी की ओर जाए, उसे रस्सी से बांधकर ले जाते समय रस्सी पर तनाव न आए, बिना चीखे वह बलिवेदी पर शांति से शस्त्र के आघात की प्रतीक्षा करे, तो वह आत्मबलिदान, आत्मसमर्पण है । ऐसी बलि से ही दोनों को लाभ मिलता है । यदि प्राणी की इच्छा न हो, तो बलि अर्पित करनेवाले को उसे मारने का पाप लग सकता है ।
हिन्दू धर्मविरोधी पशुप्रेमी संगठन एवं अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’ (अंनिस) : पशुप्रेमी संगठनों एवं अंनिस (अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति) जैसे बुद्धिवादी संगठन बलि चढाने के अध्यात्मशास्त्रीय आधार अथवा सिद्धांत से अपरिचित रहते हैं । इसके बोध के बिना ही वे हिन्दू धर्म को जीवहत्या का दंड देनेवाला धर्मबताते हैं तथा इसे कलंकित करने का प्रयास करते हैं । इस कारण वे बलि की प्रथा रोकने का आवाहन करते हैं । पशुप्रेम का केवल दिखावा करनेवाले ऐसे संगठन केवल हिन्दुओं की बलि प्रथा का ही विरोध करते हैं । इन लोगों को संपूर्ण विश्व में मांसाहार के लिए मारे जानेवाले एवं इस्लाम धर्म में कुर्बानीके समय कत्लकिए जानेवाले पशुओं पर किंचित भी दया नहीं आती !

६. भूतनाथ

यह वेताल के वर्ग के ही एक क्षुद्रदेवता हैं । गोमंतक क्षेत्र में भूतनाथ के मंदिर हैं । लोगों की धारणा है कि वे मध्यरात्रिमें, हाथ में एक डंडा एवं कंधे पर कंबल लेकर, अपने सैनिकोंसहित गश्त लगाते हैं । महाराष्ट्र के सावंतवाडी क्षेत्र  के लोगों की मान्यता है कि भूतनाथ पैदल भ्रमण करते हैं, जिससे उनकी चप्पलें घिस जाती हैं । इसलिए प्रतिमाह लोग उन्हें नई चप्पलें अर्पित करते हैं ।

७. नटराज

शिवजी की दो अवस्थाएं मानी जाती हैं । उनमें से एक है समाधि अवस्था एवं दूसरी है तांडव अथवा लास्य नृत्य अवस्था । समाधि अवस्था का अभिप्राय निर्गुण अवस्था से है एवं नृत्यावस्था का सगुण अवस्था से । जब किसी निश्चित घटना अथवा विषय को अभिव्यक्त करने के लिए भाव-भंगिमाओं सहित शरीर के अवयवों से विविध मुद्राएं की जाती हैं, उसे नटन अथवा नाट्यकी संज्ञा दी जाती है तथा ऐसे नटन करनेवाले को नट कहते हैं । एक पारंपारिक धारणा यह है कि नटराज के रूप में शिवजी ने ही नाट्यकला को प्रेरित किया है । लोगों की यह धारणा है कि वे ही आद्य (प्रथम) नट हैं, इसीलिए उन्हें नटराज की उपाधि दी गई । ब्रह्मांड नटराज की नृत्यशाला है । वे नर्तक भी हैं एवं इस नृत्य के साक्षि भी । जब उनका नृत्य आरंभ होता है तो उससे उत्पन्न होनेवाली ध्वनि से संपूर्ण विश्व को गति मिलती है । जब यह नृत्य समाप्त होता है, तो वे चराचर विश्व को अपने अंदर समेटकर अकेले ही आनंद में निमग्न रहते हैं ।यही नटराज संकल्पना की भूमिका है । संक्षेप में, ईश्वर के समस्त क्रियाकलापों के उत्पत्ति एवं लय के प्रतिरूप नटराज हैं । नटराज का नृत्य सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव (माया का आवरण) एवं अनुग्रह (माया से परे जाने के लिए कृपा), इन पांच ईश्वरीय क्रियाओं का द्योतक माना जाता है ।
तांडवनृत्य : ‘संगीतरत्नाकर में तांडवनृत्य की उत्पत्ति इस प्रकार दी गई है
प्रयोगमुद्धतं स्मृत्वा स्वप्रयुक्तं ततो हरः ।
तण्डुना स्वगणाग्रण्या भरताय न्यदीदिशत् ।।
लास्यमस्याग्रतः प्रीत्या पार्वत्या समदीदिशत् ।
बुद्ध्वाऽथ ताण्डवं तण्डोः मत्र्येभ्यो मुनयोऽवदन् ।।
संगीतरत्नाकर, अध्याय ७, श्लोक ५,
अर्थ : तदुपरांत शिवजी को अपने पूर्व किए गए उद्धतनृत्य का स्मरण हुआ । उन्होंने अपने गणों में तंडू नामक प्रमुख गण के माध्यम से वह नृत्य भरतमुनि को दिखाया । उसी प्रकार लास्य नृत्य भी पार्वती के माध्यम से बडे चाव से भरतमुनि को दिखलाया ।
लास्य स्त्रीनृत्य है, जिसमें हाथ मुक्त रहते हैं । जो तंडूने कर दिखाया वह तांडव नृत्य है, भरतादि मुनियोंने यह जाना एवं उन्होंने यह नृत्य मनुष्यों को सिखाया ।
जिस नृत्य को करते समय शरीर की प्रत्येक पेशी का नाद शिवकारक होता है, उसे तांडवनृत्य कहते हैं । यह पुरुष-नृत्य मुद्रांकित होता है, उदा. ज्ञानमुद्रा अंगूठे एवं तर्जनी के सिरों को एक-दूसरे से जोडना । इससे तर्जनी के मूल पर स्थित गुरु का उभार एवं अंगूठे के मूल पर स्थित शुक्र का उभार, ये दोनों जुड जाते हैं । अर्थात पुरुष एवं स्त्री जुड जाते हैं ।
इस नृत्य के ७ प्रकार हैं १. आनंदतांडव, २. संध्यातांडव (प्रदोषनृत्य), ३. कालिकातांडव, ४. त्रिपुरतांडव, ५. गौरीतांडव, ६. संहारतांडव, ७. उमातांडव ।

=== शिव - ताण्दव स्तोत्रम्===


जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले

गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्

डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं

चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥१॥


जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी_

विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि

धगद्धगद्धगज्जलल्ललाटपट्टपावके

किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥२॥


धराधरेन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर

स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे

कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि

क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥


लताभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा

कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे

मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे

मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥४॥


सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर_

प्रसूनधूलिधोरणी बिधूसराङ्घ्रिपीठभूः

भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक

श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ॥५॥


ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा

निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम्

सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं

महाकपालिसम्पदेशिरोजटालमस्तु नः ॥६॥


करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्_

धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके

धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक

प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥७॥


नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत्_

कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः

निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः

कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः ॥८॥


प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा_

वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम्

स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं

गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ॥९॥


अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरी_

रसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम्

स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं

गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥१०॥


जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वसद्_

विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट्

धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल_

ध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्डताण्डवः शिवः ॥११॥


स्पृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्_

गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः

तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः

समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥१२॥


कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्

विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरस्थमञ्जलिं वहन्

विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः

शिवेति मन्त्रमुच्चरन्कदा सुखी भवाम्यहम् ॥१३॥


इदम्हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं

पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम्

हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं

विमोहनंहि देहिनां सुशङ्करस्य चिन्तनम् ॥१४॥


पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः

शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे

तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां

लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१५॥

इति श्रीरावण - कृतम् शिव - ताण्दव स्तोत्रम् सम्पूर्णम्