आदरणीय पाठकों,
काबे के काले पत्थर का रहस्य : हिंदू राजा विक्रमादित्य से जुड़ा है अरब का इतिहास
हम अपने पाँचवे वर्ष के नवम अंक के साथ आप के समक्ष प्रस्तुत हो रहा हूँ| बड़ा आश्चर्य लगता है जब लोग प्रत्येक दिन भारत में धर्मनिरपेक्षता की बात सुनने को मिलती है अगर भारत धर्मनिरपेक्ष होता तो हमारे देश के संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष के द्वार के ऊपर पंचतंत्र का एक संस्कृत श्लोक अंकित कैसे होता । वह श्लोक इस प्रकार है :–अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।(पंचतंत्र 5/38)
हिन्दी में इस श्लोक का अर्थ है:-“यह निज, यह पर, सोचना,संकुचित विचार है।उदाराशयों के लिए अखिल विश्व परिवार है।” वसुधैव कुटुंबकम की यह पवित्र भावना भारतीय शासन और शासकीय नीतियों का ध्येय वाक्य है। यदि इसके बारे में यह कहा जाए कि प्राचीन काल से अब तक भारत इसी नीति पर कार्य करने वाला देश रहा है तो कोई अतिशयोक्ति न होगी । भारत का धर्म उसे ‘वसुधैव कुटुंबकम ‘ की पवित्र भावना में विश्वास रखने के लिए प्रेरित करता है।
भारत के संविधान निर्माताओं ने धर्म की अनिवार्यता को कहीं पर भी भंग नहीं किया ,अपितु उन्होंने धर्म को अपने लिए अनुकूल , उपयुक्त , उचित और प्रासंगिक मानकर उसकी कदम – कदम पर अनिवार्यता को अनुभव किया है । तभी तो संसद भवन की लिफ्ट संख्या 1 के निकटवर्ती गुम्बद पर महाभारत का यह श्लोक अंकित है:-
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा,
वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
धर्म स नो यत्र न सत्यमस्ति,
सत्यं न तद्यच्छलमभ्युपैति।(महाभारत 5/35/58)
इस श्लोक का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-
“वह सभा नहीं है जिसमें वृद्ध न हों,
वे वृद्ध नहीं है जो धर्मानुसार न बोलें,
जहां सत्य न हो वह धर्म नहीं है,
जिसमें छल हो वह सत्य नहीं है।”
बात स्पष्ट है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने संसद के दोनों सदनों अर्थात राज्यसभा और लोकसभा में ऐसे धर्मप्रेमी , ज्ञानवृद्ध लोगों को भेजने का सपना संजोया था , जो संसद भवन में बैठकर धर्मानुसार शासन करने की नीतियों पर विचार करने वाले हों , उनका गंभीर ज्ञान रखने वाले हों । सचमुच भारत का यह दुर्भाग्य रहा कि स्वतंत्र भारत में कुछ देर पश्चात ही ऐसे लोग संसद में पहुंचने में सफल हो गए जो धर्म शब्द से ही घृणा करते थे , क्योंकि वह धर्म शब्द का अर्थ नहीं जानते थे ।
लोक सभा के भीतर अध्यक्ष के आसन के ऊपर यह शब्द अंकित है:- धर्मचक्र-प्रवर्तनाय “धर्म परायणता के चक्रावर्तन के लिए” प्राचीन काल से ही भारत के शासक धर्म के मार्ग को ही आदर्श मानकर उस पर चलते रहे हैं और उसी मार्ग का प्रतीक धर्मचक्र भारत के राष्ट्र ध्वज तथा राज चिह्न पर सुशोभित है। इसमें आठ चक्र हैं । इस धर्म चक्र का अर्थ है , अष्टांग योग की भारत की प्राचीन परंपरा को आज के साथ समन्वित करना। स्पष्ट है कि हमारे संविधान निर्माता भारत के अष्टांग योग की परंपरा के अनुसार भारत के लोगों को एक ऐसा न्यायपूर्ण शासन देने के पक्षधर थे जो लोगों को धर्मानुकूल आचरण करने के लिए प्रेरित करते हुए मोक्ष प्राप्ति का रास्ता बताता । ऐसे विद्वान जनों से जो संसद बनती जरा कल्पना कीजिए कि वह कितनी भव्य होती ?
भारतीय शासन के ध्येय वाक्य ‘सत्यमेव जयते ‘ के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि इसे भारत के राष्ट्रीय पटल पर स्थापित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पंडित मदन मोहन मालवीय जी हैं । जिन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष रहते हुए 1918 में इसे ध्येय वाक्य बनाकर चलने की प्रेरणा तत्कालीन कांग्रेसियों को दी थी । यह मुंडकोपनिषद का मंत्र है । भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में निष्णात रहे पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने इस धेय वाक्य को कांग्रेस को दिया तो स्वतंत्रता उपरांत यही ध्येय वाक्य भारतीय शासन का ध्येय वाक्य भी बना ।
शास्त्रों में आत्मा, परमात्मा, प्रेम और धर्म को सत्य माना गया है। इसका अभिप्राय है कि जहां आत्मा , परमात्मा , धर्म और प्रेम की बात होती हो वहां जीत होती है । बात स्पष्ट है कि जहां धर्मनिरपेक्षता हो अर्थात धर्म से दूरी बनाकर चलने की भावना हो , वहां जय न् होकर पराजय होती है । ‘ सत्यमेव जयते ‘ को भारत के शासन का ध्येय वाक्य बनाना एक अलग बात है परंतु ‘ सत्यमेव जयते ‘ की परंपरा के गूढ़ और रहस्यपूर्ण अर्थ को न समझना एक अलग बात है । निश्चित रूप से ‘सत्यमेव जयते ‘ की परंपरा के वास्तविक और रहस्यपूर्ण अर्थ को समझकर चलने की परंपरा का भी भारत में आगे बढ़ना नितांत आवश्यक था ।
राजनीति में अशिक्षित और गुणहीन लोगों को राजनीतिक दलों के द्वारा थोक के भाव में भरा गया और अधर्मी , नीच , पापी और अपराधी प्रकृति के लोगों को संसद और विधानसभाओं में भेजा गया।
यह भी मानना पड़ेगा कि तथाकथित हिंदूवादी दलों के पास भी भारतीय संस्कृति , धर्म और इतिहास की विशुद्ध परंपरा को समझने वाले जनप्रतिनिधियों का अभाव रहा। जिसका परिणाम यह निकला कि ‘ सत्यमेव जयते ‘ केवल दीवारों पर लिखा गया ध्येय वाक्य मात्र बनकर रह गया । उसकी भावना हमारे शासन , शासन की नीतियों और परंपराओं में विकसित नहीं हो पाई । हमने सत्य को अर्थात धर्म को ही अफीम कहना आरंभ कर दिया। अफीम , भांग और गांजा पीने वाले को धर्म वैसे ही प्रिय नहीं होता जैसे चोर को घर में जलता हुआ दीपक प्रिय नहीं होता।
कहा जाता है कि सत्य से बढ़कर कुछ भी नहीं। सत्य के साथ रहने से मन हल्का और प्रसन्न चित्त रहता है। मन के हल्का और प्रसंन्न चित्त रहने से शरीर स्वस्थ और निरोगी रहता है।
सत्यमेव जयते (संस्कृत विस्तृत रूप: सत्यं एव जयते) भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य है। इसका अर्थ है : सत्य ही जीतता है / सत्य की ही जीत होती है। यह भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे देवनागरी लिपि में अंकित है। यह प्रतीक उत्तर भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश में वाराणसी के निकट सारनाथ में 250 ई.पू. में सम्राट अशोक द्वारा बनवाये गए सिंह स्तम्भ के शिखर से लिया गया है, लेकिन उसमें यह आदर्श वाक्य नहीं है। ‘सत्यमेव जयते’ मूलतः मुण्डक-उपनिषद का सर्वज्ञात मंत्र 3.1.6 है। पूर्ण मंत्र इस प्रकार है:—
सत्यमेव जयते नानृतम सत्येन पंथा विततो देवयानः।येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत् सत्यस्य परमम् निधानम्॥
भावार्थ है कि अंततः सत्य की ही जय होती है , अर्थात आत्मा , परमात्मा , धर्म और प्रेम के अनुकूल किए गए आचरण व्यवहार और नीतियों की ही जय होती है । जो लोग आत्मा , परमात्मा , धर्म और प्रेम के विपरीत नीतियों को अपनाते हैं , उनकी देर सवेर पराजय होती है । असत्य की कभी जीत नहीं होती । यही वह मार्ग है जिससे होकर आप्तकाम (जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों) मानव जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।
जिन शासकों ने अपने शासनकाल में किसी वर्ग विशेष के लोगों के नरसंहार किए या अपने से विपरीत विचारधारा रखने वाले लोगों को मौत के घाट उतारा या किसी भी कारण से शांति प्रिय लोगों पर अत्याचार किए , उनके इतिहास में नाम हो जाने का अभिप्राय यह नहीं है कि सत्य जीत गया था । इसके विपरीत उनके इन पापों का परिणाम यह हुआ कि इतिहास की तो हत्या हुई ही साथ ही सत्य एवं धर्म को परेशान करने की परंपरा का आरंभ भी हुआ । यह परंपरा अभी तक भी जारी है । लोग सत्ता स्वार्थों के लिए पता नहीं कैसे-कैसे पाप कर रहे हैं ? – सारे संसार में सत्ता स्वार्थ की पूर्ति की आग लगी हुई है । यदि सूक्ष्मता से इस लगती हुई आग पर दृष्टिपात किया जाए तो पता चलता है कि सत्य आज भी परेशान हो रहा है । इतिहास चाहे किन्हीं तानाशाहों के और अवैध व अनैतिक शासकों के कितने ही गुणगान कर ले , लेकिन संसार में लगती हुई आग एक दिन इन सारे तानाशाहों , क्रूर शासकों और अनैतिक लोगों के क्रियाकलापों को भस्मसात कर देगी।
भारत के सत्यमेव जयते की भांति ही हम देखते हैं कि पूर्ववर्ती चेकोस्लोवाकिया का आदर्श वाक्य “प्रावदा वीत्येज़ी” (“सत्य जीतता है”) का भी समान अर्थ है।
भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप में विश्वास रखने वाले लोगों को धर्म और सत्य के समानार्थी स्वरूप पर अवश्य चिंतन करना चाहिए । सचमुच वह दिन बड़ा महान होगा जब धर्म और सत्य पर धर्म और सत्य की सुरक्षा के लिए समर्पित हमारे संविधान की मूल भावना का सम्मान करते हुए संसद में चर्चा होगी।
अब आते हैं यतो धर्मः ततो जयः (या, यतो धर्मस्ततो जयः) पर , जो कि एक संस्कृत श्लोक है। यह भारत के सर्वोच्च न्यायालय का ध्येय वाक्य है। यह महाभारत में कुल ग्यारह बार आता है और इसका मतलब है “जहाँ धर्म है वहाँ जय (जीत) है।”
इस ध्येयवाक्य का अर्थ महाभारत के उस श्लोक (संस्कृत: यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः) से आता है जब कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन युधिष्ठिर की अकर्मण्यता को दूर कर रहे हैं। वो कहते हैं, “विजय सदा धर्म के पक्ष में रहती है, एवं जहाँ श्रीकृष्ण हैं वहाँ विजय है ।” गांधारी भी अपने पुत्रों के मृत्यु के बाद समान उद्गार कहती है।
यतो धर्मः ततो जयः के इस ध्येय वाक्य पर भी यदि चिंतन किया जाए तो इसका अर्थ भी ‘सत्यमेव जयते’ ही है । इस प्रकार स्पष्ट है कि हमारा सर्वोच्च न्यायालय और भारत का शासन अपने जिन ध्येय वाक्यों के आधार पर भारत में न्याय प्रदान करता है या शासन करता है उनका मूल चिंतन समानार्थी है ।
इसके उपरांत भी शासन अपने आपको धर्म से दूर रखने की नीति पर कार्य करता हुआ दिखाई देता है । ‘ गुड़ खाएं , पर गुलगुलों से परहेज ‘ — करने की शासन की नीतियां कार्य कर रही हैं । जिन्हें भारतीय संविधान के निर्माताओं की मूल भावना के विपरीत तो कहा ही जाएगा , साथ ही हमारे राजनीतिज्ञों का ऐसा आचरण उनकी अज्ञानता को भी प्रकट करता है।
हिंदुत्व की चेतना के इन मूल स्वरों को यदि हमारे संविधान निर्माताओं ने अपनाने का संकल्प लिया तो उन्हें बाद के शासकों ने क्यों विस्मृत कर दिया या शासन की ऐसी नीतियां क्यों बनाई गयीं जो भारतीयता के अनुकूल हिंदुत्व के इन स्वरों को समाप्त करती हुई जान पड़ती हैं ?
गंभीर प्रश्न है । जो आज की संपूर्ण राजनीति के लिए न केवल एक यक्ष प्रश्न है बल्कि उसकी आत्मा को झकझोर देने वाला प्रश्न भी है।
आप जिस तरह अपने घर का बजट (Budget) बनाते हैं, उसी तरह सरकार हर साल अपना बजट (Budget) बनाती है. Union Budget में सरकार की आमदनी और खर्च का हिसाब-किताब होता है.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 112 में Union Budget का उल्लेख वार्षिक वित्तीय विवरण के रूप में है. Union Budget में सरकार की आमदनी और प्रस्तावित योजनाओं पर होने वाले खर्च का भी विवरण होता है.
Union Budget को लागू करने से पहले उसे संसद के दोनों सदन (लोक सभा और राज्य सभा) में पारित करवाना जरूरी है.
आइये जानते हैं Union Budget के बारे में 10 दिलचस्प बातें:
1. बजट (Budget) की उत्पति: बजट शब्द वास्तव में लैटिन शब्द बुल्गा से लिया गया है. बुल्गा का अर्थ होता है चमड़े का थैला. इसके बाद यह शब्द फ्रांस की भाषा में बोऊगेट बना. इसके बाद थोड़े से अपभ्रंश के बाद अंग्रेजी में यह शब्द बोगेट या बोजेट बना. बाद में यही शब्द बजट बन गया.
2. भारत में बजट (Union Budget) की शुरुआत: भारत में पहला बजट ईस्ट इंडिया कंपनी के जेम्स विल्सन ने 18 फरवरी 1860 को पेश किया था. जेम्स विल्सन को भारतीय बजट (Budget) व्यवस्था का जनक भी कहा जाता है.
भारत में 1 अप्रैल से 31 मार्च तक चलने वाले वित्त वर्ष की शुरुआत 1867 में हुई थी. इससे पहले तक 1 मई से 30 अप्रैल तक वित्त वर्ष होता था.
3. आजाद भारत का पहला बजट (Budget): स्वतंत्र भारत का पहला बजट (Budget) वित्त मंत्री आर के षणमुखम चेट्टी ने 26 नवंबर 1947 को पेश किया. गणतंत्र भारत का पहला बजट (Budget) 28 फरवरी 1950 को जॉन मथाई ने पेश किया.
चेट्टी ने 1948-49 के बजट (Budget) में पहली बार अंतरिम (Interim) शब्द का प्रयोग किया. इसके बाद ही छोटी अवधि के बजट के लिए ‘अंतरिम'(Interim) शब्द का प्रयोग शुरू हुआ.
सीडी देशमुख भारत के वित्त मंत्री के साथ रिजर्व बैंक (RBI) के पहले गवर्नर भी थे.
4. बजट (Budget) की छपाई: बजट (Budget) पेपर पहले राष्ट्रपति भवन में ही छापे जाते थे. लेकिन साल 1950 में Budget पेपर लीक हो जाने के बाद से इन्हें दिल्ली के मिंटो रोड स्थित सिक्योरिटी प्रेस में छापा जाने लगा. साल 1980 से बजट (Budget)पेपर नॉर्थ ब्लॉक से प्रिंट होने लगे.
शुरुआत में बजट (Budget)अंग्रेजी में बनाया जाता था. लेकिन साल 1955-56 से बजट (Budget)दस्तावेज हिन्दी में भी तैयार किए जाने लगे.
साल 1955-56 में बजट (Budget) में पहली बार कालाधन उजागर करने की योजना शुरू की गई थी.
5. बजट (Budget) की गोपनीयता: बजट (Budget)छपने के लिए भेजे जाने से पहले वित्त मंत्रालय में हलवा खाने की रस्म निभाई जाती है. हलवा खाने की इस रस्म के बाद बजट (Budget) पेश होने तक वित्त मंत्रालय के अधिकारी किसी के संपर्क में नहीं रहते. इस दौरान वे अपने परिवार से भी दूर रहते हैं. वे इस दौरान वित्त मंत्रालय में ही ठहरते हैं. बजट (Budget) की गोपनीयता के हिसाब से नॉर्थ ब्लॉक में मोबाइल जैमर लगा होता है.
6. प्रधानमंत्री ने पेश किया बजट (Budget): साल 1958-59 में देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बजट (Budget) पेश किया. इसकी वजह यह थी कि उस समय वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारी उनके पास ही थी. Union Budget पेश करने वाले वे देश के पहले प्रधानमंत्री बने. नेहरू के बाद उनकी बेटी इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने भी प्रधानमंत्री रहते हुए बजट (Budget) पेश किया.
7. महिला वित्त मंत्री का बजट (Budget): भारत की पहली महिला वित्त मंत्री के रूप में इंदिरा गांधी ने 1970 में आम बजट (Union Budget) पेश किया था. उस समय वे देश की प्रधानमंत्री थीं. साथ में वित्त मंत्रालय का प्रभार भी उनके पास ही था. भारत के इतिहास में वे इकलौती महिला हैं, जिन्होंने आम बजट (Budget)पेश किया था. लेकिन, निर्मला सीतारमण देश की पहली महिला वित्त मंत्री हैं.
8. सबसे अधिक बजट (Budget) पेश करने का रिकॉर्ड: देश के पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने अब तक सबसे अधिक 10 बार बजट पेश किया. वे 6 बार वित्त मंत्री और 4 बार उप प्रधानमंत्री रहे. इनमें 2 अंतरिम बजट (Interim Budget) भी शामिल हैं. अपने जन्मदिन पर 2 बार बजट (Budget) पेश करने वाले भी वे देश के एकमात्र वित्त मंत्री रहे.
देसाई का जन्म 29 फरवरी को हुआ था जो 4 साल में एक बार आता है. पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी वित्त मंत्री के रूप में 7 बार बजट पेश कर चुके हैं.
9. Budget के समय में बदलाव: साल 2000 तक अंग्रेजी परंपरा के हिसाब से बजट (Budget) शाम 5 बजे पेश किया जाता था. साल 2001 में अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने इस परंपरा को तोड़ा. अब सुबह 11 बजे संसद में बजट (Budget)पेश करने की परंपरा शुरू की गयी. शाम में बजट पेश करने का चलन ब्रिटिश संसद के आधार पर तय किया गया था.
पहली बार सुबह 11 बजे बजट (Budget) तत्कालीन वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा ने पेश किया था. शाम 5 बजे बजट पेश करने की परंपरा सर बेसिल ब्लैकेट ने 1924 में शुरू की थी.
10. फिर बदली Budget की तारीख: साल 2017 से पहले बजट फरवरी महीने के आखिरी कामकाजी दिन पेश किया जाता था. साल 2017 से इसे 1 फरवरी या फरवरी के पहले कामकाजी दिन पेश किया जाने लगा. साल 2017 के बजट (Budget)से ही केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने रेल बजट (Budget) को आम बजट (Budget)में समायोजित कर एक और प्रयोग किया.
संस्कृत भाषा से भारत वासियों की दूरी बनाकर विदेशी लेखकों , विद्वानों , साहित्यकारों और इतिहासकारों को भारत और भारत के बारे में झूठी और भ्रामक धारणाएं स्थापित करने का अच्छा अवसर उपलब्ध हुआ । भारत वासियों ने अज्ञानता के कारण और पश्चिमी जगत के विद्वानों को ही विद्वान मानने की अपनी मूर्खता के कारण उनकी धारणाओं को सच मानना आरंभ कर दिया । जिसका परिणाम यह हुआ कि हमारे देश में भी है । पश्चिमी विद्वानों की देखादेखी हमारे देश में ही कई ऐसे लोग निकलकर सामने आए जिन्होंने वेदों में इतिहास मानने की पश्चिमी जगत की फैलाई गई भ्रामक धारणा का समर्थन करना आरंभ कर दिया ।
इसका परिणाम यह हुआ कि वेदों में आए संस्कृत नामों को या शब्दों को इतिहास के नामों के साथ या ऐतिहासिक स्थलों के साथ जोड़ने की कसरत आरंभ हो गई । यह कसरत इतनी बढ़ी कि मोहम्मद साहब , ईसामसीह , कबीर और अन्य मत या संप्रदायों के प्रवर्तकों के नामों को भी वेदों में खोजने का क्रम आरंभ हो गया । हिन्दू समाज में भी ऐसे अनेकों लोग हैं जो श्री राम, कृष्ण, गणेश, विभिन्न देवी-देवता जैसे इन्द्र, वरुण, अग्नि आदि से लेकर भौगोलिक पर्वत, राजाओं के राज्य आदि का वर्णन वेदों में मानते हैं। कई लेखक वेदों में गंगा, सरस्वती आदि नदियों का वर्णन होना मानते है।
वेदों में इतिहास मानने की इस भ्रामक धारणा का लाभ उन लोगों को अधिक हुआ जो वेदों को ईश्वरीय वाणी नहीं मानते और उनकी गरिमा को कमतर करके आते हैं । इन लोगों ने वेदों को ग्वालों के गीत कहा और भारतवासियों की दृष्टि में इनकी महिमा को कम करने का प्रयास किया । जिससे वेदों का आध्यात्मिक पक्ष भारत के लोगों की दृष्टि से ओझल हो जाए और वे पश्चिम के भौतिकवादी अध्यात्म को ही वास्तविक अध्यात्म मान लें। भारत से द्वेष भावना रखने वाले विदेशी लोगों के ऐसे प्रयास तो समझ में आ सकते थे परंतु जब इन कुत्सित प्रयासों का समर्थन भारत के लोगों ने करना आरंभ किया तो वेदों की उत्कृष्ट मान्यताओं और धारणाओं का गुड़ गोबर होने लगा।
ऐसी धमक धारणाओं का शिकार होकर हम यह भूल गए कि वेद शाश्वत है और परमात्मा की वाणी है जो कि सृष्टि प्रारंभ में अग्नि , वायु ,आदित्य और अंगिरा के अंतःकरण में प्रकट हुई , इसलिए सृष्टि प्रारंभ में ही ईद ईश्वरीय वाणी के प्रकट होने के कारण इसमें बाद की घटनाओं का कोई उल्लेख संभव ही नहीं है । इसमें किसी व्यक्ति विशेष का या मानवकृत किसी घटना का या किसी भी ऐसी प्राकृतिक आपदा का उल्लेख होना संभव नहीं है जो सृष्टि प्रारंभ होने के हजार दो हजार , लाख दो लाख या और भी अधिक समय बाद घटित हुई हो। वेदो में दिया गया ज्ञान सृष्टि दर सृष्टि चलता है । यह शाश्वत है सनातन है । यह व्यक्ति के जीवन को उत्कृष्ट बनाने की साधना का मार्ग दिखाने वाला ज्ञान है , ना कि उसके इतिहास की घटनाओं को अंकित करने वाला कोई दस्तावेज।
भारत के लोग अपने आप को सनातनधर्मी कहने और मानने में इसीलिए गर्व और गौरव की अनुभूति करते हैं कि उनका ज्ञान का खजाना शाश्वत है , सनातन है । वेदज्ञान जब सृष्टि दर सृष्टि चलता है तो इसका अर्थ यही है कि यह ज्ञान कभी समाप्त होने वाला नहीं है , यह कभी पुरातन नहीं होता , यह सदा अधुनातन रहता है। यदि यह पुरातन पड़ता तो स्वाभाविक रूप से यह मिट जाता , क्योंकि जिसके भीतर पुरातन या पुराना हो जाने का रोग होता है , वह जरावस्था को प्राप्त होता है और फिर मिटता भी है , जैसे हमारा शरीर है। हम सनातन के उपासक हैं । इसका अभिप्राय यह है कि हम आत्मा और परमात्मा के रहस्यों को खोजने और समझने वाले लोग हम इतिहास के मरणशील लोगों की मरणधर्मा प्रकृति के उपासक नहीं हैं ।
वेद इतिहास बनाने के लिए व्यक्ति को प्रेरित कर सकता है अर्थात ऐसे उत्कृष्ट कार्य करने के लिए व्यक्ति की साधना को बलवती कर सकता है जो उसे उसकी आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनाए । परंतु वह उस व्यक्ति के कार्यों को कभी अपने किसी नए संस्करण में समाविष्ट नहीं करता , क्योंकि सनातन संसार के खेलों से सदा निरपेक्ष रहता है। जिन लोगों ने वेदों में इतिहास माना है , उनकी यह भी मान्यता है कि रामचंद्र जी महाराज को जिस प्रकार इस सृष्टि में वनवास भोगना पड़ा है , वैसे ही उन्हें हर सृष्टि में वनवास भोगना पड़ा है ,और पड़ता रहेगा । यह सारी बातें युक्तियुक्त नहीं हैं । वेदों में इतिहास मानने की बात करने वाले लोग मनुस्मृति के इस श्लोक को भी अपने पक्ष में उदधृत करते हैं :—
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्।
वेद शब्देभ्यः एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे।।
अर्थात ब्रह्मा ने सब शरीरधारी जीवों के नाम तथा अन्य पदार्थों के गुण, कर्म, स्वभाव नामों सहित वेद के अनुसार ही सृष्टि के प्रारम्भ में रखे और प्रसिद्ध किये और उनके निवासार्थ पृथक् पृथक् अधिष्ठान भी निर्मित किये।
यदि इस श्लोक का भी गहराई से अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि मनु महाराज भी वेदों में इतिहास नहीं मान रहे , अपितु केवल इतना संकेत मात्र दे रहे हैं कि जब यह सृष्टि प्रारंभ हुई तो ब्रह्मा जी ने वेद में आए शब्दों के आधार पर स्थानों के नाम रखे । ऐसा होना संभव है और यह स्वाभाविक भी है , परंतु इसका अभिप्राय यह नहीं कि वेद में पहले ही इतिहास रच दिया गया था।
सायणचार्य आदि भाष्यकारों ने अपने भाष्यों में वेदों में इतिहास होने की बातों को अधिक हवा दी है।
इन भाष्यकारों ने वेदों के मंत्रों की ऐसी व्याख्याऐं की हैं जैसे उनमें किन्हीं कथा कहानियों का वर्णन किया जा रहा हो । कालांतर में इन किस्से कहानियों को आधार बनाकर वेदों में इतिहास खोजने की मूर्खता का क्रम आरंभ हुआ। यह अलग बात है कि इन किस्से कहानियों ने वेदों की गरिमा को कम किया और वेदों के बारे में अनेकों भ्रान्तियों को भी जन्म दिया। यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि विदेशी विद्वानों जैसे मैक्समूलर, ग्रिफ्फिथ आदि ने सायण आचार्य जैसे वेद भाष्यकारों के इन किस्से कहानियों को पकड़कर ही वेदों में इतिहास होने का प्रचार किया।
स्वामी दयानंद जी महाराज ने वेदों में इतिहास माननीय मूर्खता ओं का विरोध किया । उन्होंने इस विषय में सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है – “इतिहास जिसका हो, उसके जन्म के पश्चात लिखा जाता है। वह ग्रन्थ भी उसके जन्में पश्चात होता है। वेदों में किसी का इतिहास नहीं। किन्तु जिस जिस शब्द से विद्या का बोध होवे, उस उस शब्द का प्रयोग किया हैं। किसी विशेष मनुष्य की संज्ञा या विशेष कथा का प्रसंग वेदों में नहीं है । ”
ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में भी स्वामी जी वेदों में इतिहास ने होने की अपनी मान्यता का प्रबल समर्थन करते हुए लिखते है- ” इससे यह सिद्ध हुआ कि वेदों में सत्य अर्थों के वाचक शब्दों से सत्य विद्याओं का प्रकाश किया है, लौकिक इतिहास का नहीं। इससे जो सायणाचार्य आदि लोगों ने अपनी अपनी बनायीं टीकाओं में वेदों में जहाँ-तहाँ इतिहास वर्णन किये हैं, वे सब मिथ्या हैं । ”
यजुर्वेद का उदाहरण देकर स्वामी जी सिद्ध करते है कि वेदों की संज्ञाएँ यौगिक हैं, रूढ़ नहीं हैं। इस मंत्र में जमदग्नि, कश्यप मुनियों और इन्द्रादि देवों का उल्लेख मिलता है। दूसरे भाष्यकर्ता इस मंत्र में इतिहास की खोज करते हैं।जबकि स्वामी दयानंद जमदग्नि से चक्षु, कश्यप से प्राण एवं देव से विद्वान मनुष्यों का आशय प्रस्तुत करते हैं। स्वामी जी अर्थ करते हैं कि हमारे चक्षु और प्राण तिगुनी आयु वाले हों और देव विद्वान लोग जैसे ब्रह्मचर्य आदि द्वारा दीर्घ आयु को प्राप्त करते हैं , वह हमें भी प्राप्त हो। इसी क्रम से स्वामी दयानंद ने सभी वेद मन्त्रों का भाष्य किया है , जिनका पठन-पाठन करने से स्पष्ट होता है कि वेदों में कहीं पर भी किसी भी मंत्र में इतिहास नहीं है । स्वामी दयानंद ने अपने वेदभाष्य में यह स्पष्ट कर दिया कि वेदों में व्यक्तिवाचक लगने वाले शब्द वस्तुत: विशेषणवाची हैं तथा किन्हीं गुण-विशेषों का बोध कराते हैं।
यूँ तो वेदों में इतिहास ढूंढने वाले लोगों ने वेदों के अनेकों स्थलों की ऐसी मनमानी व्याख्या की है जिनसे वेदों के अर्थ का अनर्थ तो होता ही है साथ ही वेदों के बारे में भ्रांतियां भी खेलते हैं । हम यहां पर एक दो उदाहरण देकर यह स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे कि वेदों में इतिहास मानने वाले लोगों ने किस प्रकार वेदों के अर्थ का अनर्थ करते हुए भारतीय संस्कृति के बारे में भ्रांतियां फैलाने का काम किया है ?
ऋग्वेद के मंत्र में इंद्र और वृत्रासुर का उल्लेख मिलता है , जिसका अर्थ का अनर्थ करते हुए लोगों ने इसे एक कहानी का रूप दे दिया । जिसके अनुसार त्वष्टा के पुत्र वृत्रासुर ने देवों के राजा इन्द्र को युद्ध में निगल लिया। तब सब देवता भयभीत होकर कांपने लगे और वे अपनी प्राण रक्षा के लिए विष्णु के पास गए । उनकी व्यथा कथा को सुनकर विष्णु ने उन्हें एक उपाय सुझाया कि मैं समुद्र के फेन में प्रविष्ट हो जाऊंगा। तुम लोग उस फेन को उठा कर वृत्रासुर को यदि मारोगे तो वह मर जायेगा।
स्वामी दयानंद इस मंत्र का तार्किक और बुद्धि संगत अर्थ करते हुए कहते हैं कि इन्द्र सूर्य का ही एक नाम है और वृत्रासुर मेघ को कहते हैं। आकाश में मेघ कभी सूर्य को निगल लेते हैं तो कभी सूर्य अपनी किरणों से मेघों को हटा देता है। दोनों के बीच लुकाछिपी का यह खेल तब तक चलता रहता है जब तक मेघवर्षा बनकर पृथ्वी पर बरस नहीं जाते हैं । फिर उस जल की नदियाँ बनकर सागर में जाकर मिल जाती हैं। स्वामी जी ने इंद्र तथा वृत्र, सूर्य तथा मेघ के दृष्टान्त से राजा के गुणों का उल्लेख किया हैं।
स्वामी जी के द्वारा किए गए इस प्रकार के अर्थ से वेदों की वास्तविक मान्यता का बोध होता है और साथ ही वेदज्ञान की गहराई और गंभीरता का भी पता चलता है कि उसने विज्ञान को भी किस प्रकार हमारे समक्ष प्रस्तुत कर दिया है ?
ऋग्वेद के आधार पर एक कथा प्रसिद्द हैं की एक बार वृत्र नामक राक्षस ने सारी त्रिलोकी में उपद्रव मचा रखा था। देवता भी उससे तंग आ गए थे। तब सभी देवता विष्णु जी की शरण में गए। उन्होंने बताया की दधीचि ऋषि की हड्डियों से बने वज्र से वृत्र को मारा जा सकता है। तब देवो की प्रार्थना पर दधीचि ने अपना शरीर त्याग दिया। इन्द्र ने उनकी हड्डियों से वज्र तैयार किया जिससे वृत्र मारा गया।
स्वामी दयानंद द्वारा इस मंत्र का आधिदैविक अर्थ करते हुए स्पष्ट किया गया है कि दधीचि सूर्य का ही दूसरा नाम है जबकि किरणें उसकी हड्डियां हैं और वृत्र का अर्थ है मेघ। मर्सी दयानंद जी कहते हैं कि जब सर्वत्र मेघ आच्छादित हो जाते हैं , तब सूर्य अपनी किरणों से मेघों को छिन्न-भिन्न कर वर्षा कर डालता है । इसी मंत्र का एक और अर्थ है , जो इसकी आध्यात्मिक गहराई का बोध कराता है। जिसके अनुसार इन्द्र का अर्थ है आत्मा, दधिची का अर्थ है मन, दधिची की हड्डियां हैं उच्च मनोवृत्तियां । वृत्र का अर्थ है पाप वासना रूपी विचार। आत्मा अपने मन के उच्च विचारों से पापवासना आदि कुविचारों का नाश कर देता है।
जब हम विज्ञान संगत इन अर्थों पर विचार करते हैं तो वेद की वास्तविकता का पता चलता है। साथ ही यह भी पता चलता है कि वेद विज्ञान कितना परिमार्जित शुद्ध और सनातन है ?
हमारे देश में प्राचीन काल से विज्ञान की अनेकों खोजें हुई हैं । जितने आविष्कार भारतवर्ष में हुए उतने संसार के किसी अन्य देश में आज तक नहीं हुए। यह तभी संभव हुआ जब हमने वेद के मंत्रों के वैज्ञानिक और बुद्धि संगत अर्थ समझे , निकाले और उनके अनुसार काम करने का या अनुसंधान आदि करने का संकल्प लिया । भारत ने बौद्धिक नेतृत्व देते हुए संसार का मार्गदर्शन किया और अपने इसी महान संस्कार के कारण भारत विश्वगुरु के सम्मानपूर्ण स्थान पर विराजमान हुआ । इस प्रकार विज्ञानवाद में विश्वास रखना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाकर वैज्ञानिक अनुसंधान और आविष्कारों में रत रहना भारत की मौलिक चेतना का एक विशेष गुण है।
हमने सदैव प्रकाश की अर्थात ऊर्जा की साधना की। हमने तेज को अपना आदर्श माना और सत्य को अपने जीवन का आधार बनाया । वैज्ञानिक उन्नति के साथ – साथ हमने आध्यात्मिक उन्नति भी की। आध्यात्मिक उन्नति का परिणाम यह निकला कि हमारा विज्ञान हमारे लिए कभी भस्मासुर नहीं बना और वह सदा सकारात्मक ऊर्जा के साथ प्रवाहित होता रहा । कहने का तात्पर्य है कि हमने विनाशकारी भौतिक विज्ञान को नहीं अपनाया जैसा कि आज का यूरोप अपना रहा है।
इसका कारण यह है कि भारतीय मनीषा सदा सात्विक रही । उसने सात्विक आहार-विहार तथा आचार – विचार पर ध्यान दिया । अपने आहार – विहार व आचार – विचार को सात्विक बनाकर सात्विक विज्ञान के माध्यम से भौतिकवाद और अध्यात्मवाद का समन्वय कर जीवन जीने की कला विकसित की । विज्ञान को सात्विकता के साथ मानव हित और प्राणी मात्र के हित में प्रयोग करना और उस पर मनुष्य का नियंत्रण भी स्थापित रखना यह केवल भारतीय मनीषा का और भारतीय चेतना का ही विषय है । शेष संसार आज तक विज्ञान पर शासन नहीं कर पाया । विज्ञान ने ही संसार पर शासन किया और विनाश मचाया ।
आज के संसार को भी हिंदुत्व की मौलिक चेतना के इस संस्कार स्वर को स्वीकार करना होगा कि विज्ञान को सात्विकता के साथ समन्वित कर प्राणीमात्र के हितानुकूल प्रयोग करना मनुष्यमात्र का उद्देश्य होना चाहिए । हमारे ऐसा कहने का अभिप्राय यह है कि भारत ने दुष्ट और पापाचारी का विनाश करने के लिए अस्त्र-शस्त्र की खोज की। उसने कभी शरीफ और गरीब को सताने के लिए तलवार का प्रयोग नहीं किया । ये ही विज्ञान का सात्विक सदुपयोग करना है। जितना जिसका अपराध हो उसको उसके अपराध के अनुपात में उतना ही दण्ड हो । विज्ञान अपराध के अनुपात में दंड देने में सहभागी हो ना कि निर्बल और सज्जन शक्ति के विनाश के लिए आइंस्टीन के परमाणु बम की भांति विनाशकारी स्वरूप में लोगों के सामने आए । विज्ञान भय दूर करने वाला हो न कि भय फैलाने वाला हो। विज्ञान आतंकी के हृदय में भय पैदा करने वाला और सज्जन शक्ति के हृदय में से भय को भगाने वाला हो। जब इस प्रकार का विज्ञान हमारे सामने आता है तो वह सात्विक बौद्धिक शक्तियों के द्वारा दोहा गया विज्ञान होता है और यह तभी संभव है जब वेद जैसे पवित्र शास्त्रों की यौगिक व्याख्या हो और इस यौगिक व्याख्या के आधार पर विज्ञान को सहज रूप में प्रवाहित होने दिया जाए। यदि वेद में इतिहास ढूंढने की मूर्खता की गई तो विज्ञान के सात्विक स्वरूप का मनुष्य के सात्विक आहार – विहार और आचार – विचार के साथ समन्वय स्थापित नहीं हो पाएगा और विज्ञान हृदयहीन होकर विनाश मचाने के लिए उद्दंड हो जाएगा।
डॉ राकेश
युग प्रवर्तक थे महर्षि दयानन्द
भारत महापुरूषों की भूमि है। समय समय पर कभी मानव रूप में तो कभी आप्तपुरूषों के रूप में आर्यावत्र्त की इस देवभूमि में अवतरित होकर बहुत सी दिव्य आत्माओं ने सम्पूर्ण मानवता का कल्याण किया।
स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वदेशोन्नति, और स्वसंस्कृति के ध्वजवाहक, समग्रक्रांति के अग्रदूत, ‘कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम्’ अर्थात ‘सारे संसार को आर्य बनाओ’-श्रेष्ठ मानव बनाओ, के प्रवत्र्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती महाराज का जन्म 12 फरवरी 1824 (तदानुसार फाल्गुन कृष्णपक्ष दशमी) को गुजरात के एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इस महापुरूष का जन्म उस समय हुआ जब ईसाई व मुस्लिम शक्तियां भारतीय संस्कृति के दोहन-तिरोहण का कार्य कर रही थीं। उस समय शंकराचार्य के बाद बुराईयों पर चोट करने वाले इस संन्यासी योद्घा का जन्म हुआ। यह महापुरूष निर्भीक, निडर व राष्ट्रीय हितों का क्रांतिदूत बनकर जनमानस में पूजनीय और वंदनीय हो गया। इनके दिव्यगुणों से प्रभावित होकर ‘कांग्रेस का इतिहास’ के लेखक डा. पट्टाभिसीतारमैया ने कहा था कि-‘गांधीजी राष्ट्रपिता हैं पर स्वामी दयानंद राष्ट्रपितामह हैं।’
स्वामी दयानन्द महाराज जी के गुरू ब्रजानन्द ‘दंडी’ ने आपको मानव से महामानव बनाया। वेद और उपनिषदों में शिक्षित-दीक्षित होने के बाद आपने कर्म सिद्घांत, पुर्नजन्म, ब्रह्मचर्य तथा संन्यास को अपने दर्शन के चार स्तंभ बनाया। स्वामी जी ने ही सबसे पहले ‘स्वराज्य’ का नारा दिया। जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया। देश के असंख्य क्रांतिकारी इनसे प्रभावित थे, जिनमें विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल, स्वामी श्रद्घानंद जी महाराज, लाला लाजपतराय इत्यादि प्रमुख थे। स्वामी दयानंद जी ने हिंदी भाषा को ‘आर्य भाषा’ कहा। राष्ट्र के आद्य निर्माता स्वामी जी ने हिन्दू धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर के बारे में गम्भीर चिन्तन किया।
गुरू ब्रजानन्द ने पाणिनीय व्याकरण, पातंजलि योगसूत्र और वेद वेदांग में आपको पारंगत किया। एक बार कुम्भ में ‘पाखण्ड-खण्डिनी’ पताका स्थापित की और अपना देश जागरण का कार्य बड़ी कर्मठता से करना प्रारम्भ किया। महर्षि दयानन्द के भीतर आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि की नियति को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक दृष्टि से युगानुकूल चिन्तन करने की तीव्र इच्छा थी। उन्होंने भारतीयता की अलख जगाकर हिन्दू समाज का कायाकल्प करने का भागीरथ और स्तुत्य प्रयास किया। 1875 में 10 अप्रैल (वैदिक सम्वत=हिन्दू नववर्ष) को आपने आर्यसमाज की स्थापना कर शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त कर संसार के लोगों को इस ओर आकर्षित करने का अभिनन्दनीय प्रयास किया। वेदों की श्रेष्ठता सिद्घ करने के लिए और जनजागरण हेतु भारत भ्रमण किया। स्वामीजी तर्कशक्ति और संस्कृत भाषा के महान पंडित थे। उन्होंने ईसाई और मुस्लिम धर्मग्रन्थों का अध्ययन करके एक साथ तीन मोर्चों पर लड़ाई शुरू की। दो मोर्चे ईसाई व इस्लाम के थे तो तीसरा मोर्चा पौराणिक धर्मी हिन्दुओं से था। उन्होंने तीनों मोर्चों पर एक साथ अपनी सेना को अर्थात अपनी तर्कशक्ति और ज्ञान गाम्भीर्य को शास्त्रार्थ के महा-अस्त्र के साथ मैदान में उतार दिया।
स्वामी जी ने देश में बुद्घिवाद की अनुपम ज्योति जलाई। इसके लिए उन्होंने अनेकों कष्ट उठाये और कलंक व अपमान को भी सहन किया। उन्होंने पौराणिक धर्म की पोंगापंथी पर भी तीव्र प्रहार किया। उन्होंने अपने अमरग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में सभी मतों में व्याप्त बुराईयों का खण्डन किया। स्वामी जी ने सत्य के लिए आजीवन अनवरत अनुसंधान कार्य किया। दिल्ली व पंजाब प्रांत तो उनके विचारों की साधनास्थली सिद्घ हुए। उस समय के समाज में व्याप्त कुरीतियों, कुप्रथाओं व रूढिय़ों पर निर्भीकता से प्रहार किया। इसलिए उन्हें संन्यासी योद्घा के नाम से भी जाना जाता है।
महर्षि दयानन्द ने जन्मना जाति का विरोध किया। तथा कर्म के आधार पर वेदानुकूल वर्ण निर्धारण की बात कही। वे दलितोद्घार के प्रबल समर्थक थे। उनके विचारों में दार्शनिकता थी और ज्ञान-गाम्भीर्य था। वह एक सिद्घहस्त योगी थे। उनका प्राणायाम पर विशेष बल था, उन्होंने स्त्री शिक्षा के लिए प्रभावशाली आन्दोलन चलाया। बाल विवाह और सतीप्रथा का निषेध किया, किंतु विधवा विवाह का समर्थन किया। वह त्रैतवाद के समर्थक थे, सामाजिक पुनर्निमाण में स्वामी जी सभी वर्णों और स्त्रियों की भागीदारी के प्रबल पक्षधर थे। राष्ट्रीय जागरण की दिशा में वे सांस्कृतिक क्रांति के अग्रदूत और आध्यात्मिक पुनरूत्थानवाद के पितामह थे। महर्षि दयानन्द राष्ट्रवादी होने के साथ-साथ राजनैतिक आदर्शवादी भी थे। उन्होंने सदैव न्याय की व्यवस्था, ऋषि प्रणीत ग्रंथों के आधार पर किये जाने का पक्ष लिया।
महर्षि दयानन्द केवल आर्य समाज के संस्थापक और समाज में व्याप्त बुराईयों के निवारक ही नहीं थे-अपितु स्वतन्त्रता का प्रथम उद्घोष करने वाले युग पुरूष भी थे। 1857 की क्रांति की पूरी योजना में स्वामी दयानन्द जी महाराज की सक्रिय और सराहनीय भूमिका रही थी। उस क्रांति के मौलिक सूत्रधार महर्षि दयानन्द ही थे। 1855 में आबू पर्वत से जगह-जगह प्रवचन करते हुए वे हरिद्वार कुम्भ में पहुंचे थे। हरिद्वार में ही एक पहाड़ी के एकान्त में उन्होंने पांच ऐसे व्यक्तियों से वार्ता की थी जो 1857 की क्रांति के कर्णधार बने। ये पांच व्यक्ति थे नाना साहब, अजीमुल्लाखान, बाला साहब, तात्यां टोपे व बाबू कुंवर सिंह। क्रांति को जन-जन तक पहुंचाने के लिए ‘रोटी व कमल’ की इतिहास प्रसिद्घ योजना यहीं बैठकर तैयार की गयी थी। क्रांति के समय स्वामी जी लगातार सभी क्रांतिकारियों के संपर्क में रहे। स्वामीजी के मार्गदर्शन में पूरे देश में साधु संतों ने राष्ट्रवाद का संदेश दिया। वे क्रांति की असफलता से कभी निराश नही हुए। उन्होंने 1857 की क्रांति के पश्चात कहा था कि अब हमें स्वतंत्रता के लिए सौ वर्ष का संघर्ष करना पड़ सकता है, और 1947 में जब देश आजाद हुआ तो उस समय महर्षि दयानंद की भविष्यवाणी को 90 वर्ष पूर्ण हो चुके थे। इस प्रकार देश की आजादी की मशाल को 1947 में सौंपने वाले अदृश्य हाथ स्वामी दयानंद के ही थे। आज हमारा देश पुन: कई चुनौतियों से जूझ रहा है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, (हिंदुस्तान) आर्यभाषा, (हिंदी) आर्यसंस्कृति (हिंदू, हिंदुत्व) सभी को अभूतपूर्व संकट है। जिनके लिए आज पुन: महर्षि दयानन्द जैसे दिव्य पुरूष की हमें आवश्यकता है। उनके जन्मोत्सव के अवसर हमें उनके जीवन से प्रेरणा लेकर राष्ट्र के सम्मुख उपस्थित समस्याओं का समाधान करने की दिशा में ठोस कार्य करने की आवश्यकता है।
काबे के काले पत्थर का रहस्य : हिंदू राजा विक्रमादित्य से जुड़ा है अरब का इतिहास
प्रति वर्ष मक्का में हज पर काबा की परिक्रमा करने लाखों मुस्लमान आते हैं. भारत से हज जाने वालों की संख्या अब दो लाख मुस्लिम प्रति वर्ष हो गयी है | ऐसा माना जाता है कि दुनिया भर के मुसलमानों के लिए काबा मात्र एक कमरा नहीं अपितु सारी कायनात के मालिक अल्लाह का घर है. और इस काबा के एक दीवार पर संगे अस्वद नाम का एक काला पत्थर लगा हुआ है | अरब के इतिहास और भारतीयों के परम्परागत में यह स्पष्ट है कि निश्चित रूप से एक पवित्र शिवलिंग ही है. यह शिव लिंग इस्लाम के प्रारम्भ होंसे से पूर्व काबा के अन्दर प्रतिष्ठित था ।
मुहम्मद के बाल्य जीवन की एक घटना में काबा की टूटी छत और फर्श के पुनर्निर्माण के बाद शिवलिंग को पुनः प्राण प्रतिष्ठित करने में कबीलों में विवाद हो गया कि किसके हाथों यह पुनीत कार्य हो । जिसे मुहम्मद की सलाह पर सभी सरदारों ने एक चादर में शिवलिंग को रखकर और फिर चादर के कोनों को सभी कबीलों के मुखियाओं ने पकड़ कर काबा के मध्य में स्थापित कर दिया | मुहम्मद के जीवनी कार इस घटना का उल्लेख करने का एक ही उद्देश्य बताते है कि छोटी आयु में भी मुहम्मद ने अपनी सूझबूझ से एक बड़ा धार्मिक खून खराबा टाल दिया ।
अब अरब के मूर्तिपूजक इतिहास को स्मरण करने में कुफ़्र के भय से उस काले पत्थर को मध्य से निकाल कर काबा की एक दीवार के कोने में इसे जड़वा दिया | अपने सनातन शैव धर्म की पहचान से खुद को बिलकुल जुदा रखने वाले उसे अन्तरिक्ष से आया एक उल्का पिंड के रूप में प्रचारित करते हैं | मुहम्मद ने मक्का पर अपना अधिकार करने के तुरंत बाद काबा से सैकड़ों मूर्तियों को खंडित कर फिंकवा दिया, किन्तु संगे असवद को मात्र स्थानांतरित कर दीवार के कोने में लगवा दिया |
मुहम्मद की मृत्यु के दो वर्ष बाद, तीसरे उत्तराधिकारी ख़लीफ़ा हज़रत उमर के शासनकाल (634-645 ई॰) ने इस पर विचार किया कि कहीं आगे चलकर लोग अज्ञानतावश या भावुक होकर इस काले पत्थर को, पत्थर से ‘कुछ अधिक’ यानी महादेव न समझने लगें, इसलिए उसने काबा में ही ‘शिवलिंग’ के सामने खड़े होकर कहा: ”तू एक पत्थर है, सिर्फ़ पत्थर ! हम तुझे बस इस वजह से चूमते हैं कि हमने पैग़म्बर मुहम्मद को तुझे चूमते हुए देखा था. इससे ज़्यादा तेरी कोई हैसियत, कोई महत्व हमारे लिए नहीं है. हमारा विश्वास है कि तू एक निर्जीव वस्तु, हमें न कोई फ़ायदा पहुंचा सकता है, न ही हानि, हम अरब वासियों का पूज्य व उपास्य होना तो दूर की बात, असंभव बात है ” ।
शारदा द्वारिका व ज्योतिर्पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी और सर्वज्ञ शारदा पीठ काश्मीर के शंकराचार्य अमृतानंद देव तीर्थ जी व अंतरराष्ट्रीय आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रवि शंकर जी, जैसे संत भी घोषित कर चुके है कि काबा का संगे असवद ही शिव लिंग है । यही बात सभी हिन्दू धर्मगुरु कहने लगे और भारत के मुल्ला वर्ग भी समझ जाए तो करोड़ों मुसलामानों की कट्टरता में बदलाव आएगा ।शैव मत के अरबी इतिहास व परम्परा को विश्व पटल पर लाने की आवश्यकता है ।
अरब में मुहम्मद पैगम्बर से पूर्व शिवलिंग को ‘लाट’ कहा जाता था । यह शिव लिंग जिस कमरे में था वह पूरी तरह वर्गाकार नहीं है. पूर्वी दीवार 48 फुट और 6 इंच है. हतीम की ओर दीवार 33 फुट है. काले पत्थर और येमेनी कोने के बीच का अंतर 30 फुट है. पश्चिमी दीवार 46.5 फुट है । मुस्लिम जन काबा को एक बैतुल्ला यानी अल्लाह का घर और, साथ ही इसे अल्लाह द्वारा बनाया गया बैतूल माअमूर यानी स्वर्ग के आकार भी मानते हैं |
इस स्थान पर पैगंबर मोहम्मद के समय से पहले कई बार निर्माण किये गए थे. मुहम्मद के जीवन काल में जब ये छोटे थे, तब एक दिन अचानक आई बाढ़ के कारण काबा क्षतिग्रस्त हो गया था और इसकी दीवारें फट गयी, और जमीन भी उबड़-खाबड़ होने के कारण पानी भी भर जाता था | इसलिए इसके पुनर्निर्माण की जरूरत आकर खड़ी हो गयी थी. यह जिम्मेदारी क़ुरैश की चार जनजातियों के बीच विभाजित की गयी. जब काबा का जीर्णोंद्धार हो गया, फिर जो शिवलिंग मध्य में स्थापित था, उसकी पुनर्प्राण प्रतिष्ठा का समय आया. तो कबीलों में युद्ध छिड़ गया. उस समय एक सुलह हुई, कि जो भी शिव भक्त अगले दिन सूर्योदय से पूर्व इस काबे में आएगा, वही इसकी प्राण प्रतिष्ठा करेगा. मुहम्मद ने सबसे पहले पहुँच कर सबको चौंका दिया | किन्तु कबीलों के सरदार इस बाद के लिए तैयार नहीं हुए कि कुरैशी खानदान का यह लड़का इस धार्मिक अनुष्ठान को करें और वे देखते रहें. फिर एक और सुलह हुई, एक चादर लेकर उसमें शिवलिंग को रखकर चारों और से चार कबीलों के सरदारों ने चादर के कोने पकड़ कर काबा में प्राण प्रतिष्ठा की. ऐसा मानते हैं कि इससे कुरैशी कबीले के बीच एक खुनी टकराव होते होते बचा ।
कुरैशी व काबा के विषय में शोध करने की आवश्यकता है ।
पुराणों की एक कथा के आधार पर वीर सावरकर ने एक लेख लिखा । जिसमें कौरवों के भारत के पश्चिमी तट से नौका द्वारा अरब जाने का उल्लेख हुआ है | कुरुक्षेत्र के युद्ध में पांडवों से हारने के बाद बचे हुए कौरवों को भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम ने द्वारिका से समुद्री मार्ग से अर्ब मरुस्थल में सुरक्षित स्थान में बसाया. जिस स्थान ‘काबा’ में आज विश्व भर से मुस्लिम लोग हज करने जाते हैं |
द्वापर युग में उस स्थान पर गुरु शुक्राचार्य की तपस्थली ‘काव्याः पीठ’ थी. शुक्राचार्य के निर्देशन में निरंतर यज्ञ, मन्त्र सिद्धि व अनेक रहस्यमय देवताओं की साधना के लिए उनके शिष्यों ने उस ‘काव्याः पीठ’ के संरक्षण हेतु ‘मुख’ नाम से एक शैव ग्राम की स्थापना की | शुक्राचार्य ने भगवान शिव की कठोर तपस्या की और शिव लोक से एक विशिष्ट दिव्य ज्योतिर्लिंग प्राप्त किया, जिसको देखने मात्र से सर्व कष्ट दूर हो जाते है, यह आज भी भूलवश ‘काबा’ के कक्ष के बाहरी दीवार के कोण में लगा हुआ, जबकि इसे कक्ष के मध्य में ही होना चाहिए |
संग-ए -असवद अर्थात् अश्वेत शिला खंड की विधिवत पूजा अर्चना मुख्य रूप से कुरैशी कबीले के नियंत्रण में थी, जो कौरवों के ही वंशज हैं. इस काव्याः ज्योतिलिंग मंदिर के चारों ओर कौरव वंश और उनके राज भक्त परिवार द्वारा बसाया हुआ ‘मुख’ ग्राम आज मक्का शहर के रूप में प्रसिद्ध है |
वैदिक इतिहास के विलुप्त हो चुके अनेक पन्नों में इस बात के भी अनेक प्रमाण होंगे कि दिव्य शक्ति पाने के लिए व अमर होने के लिए संजीविनी विद्या की सिद्धि भी महादेव के श्रीचरणों में हुई होगी | यह ज्योतिर्लिंग देखने में अत्यंत विलक्षण है |
शुक्राचार्य ने भगवान शिव के आशीर्वाद से प्राप्त एक विशिष्ट ज्योतिर्लिंग को अपने जिस प्रकार भीम ने दुशासन का रक्त पान किया, और सभी भाइयों का वध कर हस्तिनापुर की सत्ता पर अधिकार किया, उससे कौरव राजपरिवार की गर्भिणी स्त्रियां व बचे हुए बुजुर्ग अपमानित जीवन जीने को विवश हो गए. विजयी सेना के अनेक संकट खड़े हो गए. अर्ब ही वर्तमान का सऊदी अरब है, हिन्दू इतिहासकारों के अनुसार वर्तमान के सऊदी अरब में स्थित मक्का की काबाः में शिवलिंग था, जिसे भगवान शिव की उपासना होती थी ।
विष्य पुराण के अनुसार, “शालिवाहन अर्थात् सात वाहन वंशी राजा भोज दिग्विजय करते हुए समुद्र पार मरुस्थल तक पहुंचे, फिर मक्का में जाकर वहां स्थित प्रसिद्ध शिव लिंग मक्केश्वर महादेव का पूजन किया था, इसका वर्णन भविष्य-पुराण में निम्न प्रकार है :-
“नृपश्चैवमहादेवं मरुस्थल निवासिनं !
गंगाजलैश्च संस्नाप्य पंचगव्य समन्विते :
चंद्नादीभीराम्भ्यचर्य तुष्टाव मनसा हरम !
इतिश्रुत्वा स्वयं देव: शब्दमाह नृपाय तं!
गन्तव्यम भोज राजेन महाकालेश्वर स्थले !!
इसके पश्चात् वहां महादेव ने स्वयं दर्शन दिए और कहा कि यहाँ मलेच्छों के इस क्षेत्र मै कैद हूँ, यहाँ से लौट जाओ ! ” इस शास्त्रीय प्रमाण हमें संकेत करते हैं, कि मुहम्मदी मत के मानने वालों से हमें निश्चित दूरी बनाकर रखनी चाहिए. इस धरती पर देवासुर संग्राम तो चलता ही आ रहा है. किसी एक नास्त्रेदमस नामक व्यक्ति की प्रसिद्ध भविष्यवाणी है कि सागर और चाँद को मानने वाले धर्म के बीच निर्णायक युद्ध होगा | इस विश्व युद्ध में सागर के नाम वाले यानी हिन्दू ही विजयी होंगे.
मुहम्मद और मुसलमानों के विषय में भविष्य पुराण के प्रतिसर्ग पर्व 3, अध्याय 3, खंड 3, कलियुगीयेतिहास समुच्चय में कहा गया है—
लिंड्गच्छेदी शिखाहीनः श्मश्रुधारी स दूषकः।
उच्चालापी सर्वभक्षी भविष्यति जनो मम ।25।
विना कौलं च पशवस्तेषां भक्ष्या मता मम।
मुसलेनैव संस्कारः कुशैरिव भविष्यति।26।।
तस्मान्मुसलवन्तो हि जातयो धर्मदूषकाः।
इति पैशाचधर्मश्च भविष्यति मया कृतः।। (श्लोक 25-27)
इन तीन श्लोकों का सार यह है कि —” यहाँ के मनुष्यों का ख़तना होगा, वे शिखाहीन होंगे, वे दाढ़ी रखेंगे, ऊंचे स्वर में आलाप करेंगे यानी अज़ान देंगे. शाकाहारी होंगे, किन्तु उनके लिए बिना कौल यानी बिस्मिल्ला बोले बिना कोई पशु खाने योग्य नहीं होगा. ईश्वर के नाम पर अनुयायियों का मुस्लिम संस्कार होगा. उन्हीं से मुसलवन्त यानी ईमानवालों का दूषित धर्म फैलेगा और ऐसा मेरे यानी भगवान शिव के कहने से पैशाच धर्म का अंत भी होगा”
अब विचारणीय बात यह है कि राजा भोज को महादेव ने मरुस्थल से लौटा दिया. किन्तु वर्तमान में 1400 वर्ष के बाद क्या महाकाल द्वारा मुसलमानों के धर्म का अंत का समय आ गया है. क्या किसी शिव शक्ति की प्रेरणा से इस कार्य की शुरुआत हो चुकी है ?
अभी हाल ही में ईरान में वहां के निवासियों ने इस्लाम को त्यागकर स्वयं को ‘आर्य’ होने की घोषणा की. इस्लाम के प्रसार से पहले इजराइल और अन्य यहूदियों द्वारा भी वैदिक देवी-देवताओं की पूजा किए जाने के स्पष्ट प्रमाण मिले हैं. इराक और सीरिया में सुबी नाम से एक जाति -साईबेरियन को अरब के लोग बहुदेववादी मानते थे. ठीक से यदि प्राचीन इतिहास पर शोध हो तो विश्व भर में वैदिक काल के चिन्ह निश्चित प्राप्त होंगे । इसके बाद मक्का के गेट पर साफ-साफ लिखा था कि काफिरों का अंदर जाना गैर-कानूनी है । मक्का शहर के मार्गों में स्पष्ट रूप से आज भी लिखा गैर-मुस्लिम का प्रवेश वर्जित है. इसका मतलब है कि ईसाई, जैनी या बौद्ध धर्म को भी मानने वाले इसके अंदर नहीं जा सकते हैं ।