अगर नहीं होती रोटी तो...
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अगर नहीं होती रोटी तो
कितना अच्छा होता!
तब तो यह कलुआ का बेटा
नहीं भूख से रोता।
थका हुआ जब कलुआ आता,
बेटे को जब रोता पाता,
छाती उसकी फट जाती है।
रात आँख में कट जाती है।
इसी तरह अपने जीवन का
भार रोज है कलुआ ढोता-
अगर नहीं होती रोटी तो
कितना अच्छा होता!
बीवी उसकी रोज कोसती।
जैसे-तैसे 'लाल' पोसती।
गाली देती और चूमती।
लिए गोद में उसे घूमती।
लाख यत्न वह करती है,
पर बेटा उसका नहीं है सोता-
अगर नहीं होती रोटी तो
कितना अच्छा होता!
जमींदार की गाली खाकर।
कड़े ब्याज पर पैसे लाकर।
आटा लेकर आती है वह।
गीत 'दर्द' के गाती है वह।
भूखा रहकर भी कलुआ है
जमींदार की फसलें बोता-
अगर नहीं होती रोटी तो
कितना अच्छा होता!
जाने क्यों कलुआ है जीता!
कड़वी गाली को है पीता।
ईश्वर ही जाने निज माया।
कलुआ क्यों धरती पर आया!
दुःख के सागर में कलुआ क्यों
रोज-रोज है खाता गोता-
अगर नहीं होती रोटी तो
कितना अच्छा होता!
इस समाज के नेता हैं जो।
नूतन धर्म प्रणेता हैं जो।
देखो बहरे उनके कान।
व्यर्थ ही पाते वे सम्मान।
लानत है हमसबको जो
यह नन्हा बच्चा भूख से रोता-
अगर नहीं होती रोटी तो
कितना अच्छा होता!
-मिथिलेश कुमार मिश्र 'दर्द'
कबतक सहते?
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बोलो,आखिर कबतक सहते?
थक गये थे कहते-कहते।
विश्व बिरादरी मान रही थी।
तुमने किया है, जान रही थी।
किसके बल तुम तने हुए थे?
क्यों यों भोले बने हुए थे?
रोना है, तुझको रोना है।
तेरे किए न कुछ होना है।
प्रतिशोध की ज्वाला में हम
कबतक दहते रहते-
बोलो,आखिर कबतक सहते?
सोचो,अब तुम कहाँ खड़े हो?
चारो खाने चित्त पड़े हो।
करनी का फल भोग रहे हो।
दो-दो युद्ध की हार सहे हो।
रे मूर्ख, मूर्खता छोड़ो अब तो।
रे दुष्ट, दुष्टता छोड़ो अब तो।
वीरों की है हुई शहादत,
मौन भला हम कबतक रहते-
बोलो,आखिर कबतक सहते?
-मिथिलेश कुमार मिश्र 'दर्द'
कोई राह दिखाना
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लगता है, कुछ कर न सकूँगा।
खाली गागर भर न सकूँगा।
लगा दिया पूरा जीवन, पर
भर ना इसको पाया।
आज सोचता हूँ, तो लगता
कुछ भी हाथ न आया।
गिने-चुने ही क्षण जीवन के
शेष बचे हैं मेरे।
मृत्यु-देवता के अगणित हैं
दूत चतुर्दिक घेरे।
हिचक रहा स्वागत करने में
खाली गागर लेकर।
ऐसे में संतुष्ट करूँ,क्या
मृत्यु-दूत को देकर?
दुःख है, मैं आतिथ्य-धर्म का
पालन कर न सकूँगा।
रहा अशांत जीवन भर,
शांति से मर भी क्या न सकूँगा!
ऐसे में तो, व्यर्थ हो जाएगा
इस जग में आना।
हे ईश्वर, इस अंतिम क्षण में
तो कोई राह दिखाना।
-मिथिलेश कुमार मिश्र 'दर्द'
छिः!बनोगे मास्टर तुम!
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'छिः! बनोगे मास्टर तुम!',
प्रोफेसर साहब बोले।
अपने बेटे के सम्मुख,
निज हृदय-द्वार को खोले।
मास्टर की नौकरी से अच्छा,
पकौड़े बेचो जाकर।
कोस रहा हूँ भाग्य मैं अपना,
तुम-सा कुपुत्र को पाकर।
-मिथिलेश कुमार मिश्र 'दर्द'
और दर्द को जीना
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मारक उतनी कविता होगी,
जितना दर्द पचाओगे तुम।
लिख पाओगे एक शब्द ना,
आँसू अगर बहाओगे तुम।
आँसू को तुम पीना सीखो,
और दर्द को जीना।
दिख जाए ना जख्म किसी को,
सीखो उसको सीना।
-मिथिलेश कुमार मिश्र 'दर्द'
बापू के बंदर
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रात को मेरे सपने में,
आये बापू के बंदर।
सनसनी थी दौड़ गयी,
सच ही,तब मेरे अंदर।
जिसका मुँह खुला था, बोला,
'चुप रहना तुम सीखो।'
देश के अंदर जो भी हो,
'नहीं कभी तुम चीखो।'
चीखों को भी नहीं सुनो तुम,
अगर चीखती कोई।
आता जाता है क्या तेरा(?),
अगर कहीं कोई रोयी।
आँखें खुली हुईं क्यों तेरी(?),
उनको बंद करो तुम।
कैद रहो अपने ही घर में,
मत स्वच्छंद फिरो तुम।
चौंका, उसकी बातें सुनकर,
'है यह बापू का बंदर!'
'नहीं नहीं, यह नकली है',
बोला कोई मेरे अंदर।
आश्वस्त हुआ, जब कोई मेरे
अंदर से यह बोला।
तथाकथित बापू के बंदर
का रहस्य जब खोला।
-मिथिलेश कुमार मिश्र 'दर्द'
चुप हो जाओ
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अक्सर छद्म शत्रु
गहरे मित्र बनकर उभरते हैं
और
आपके हृदय में गहरे उतरते हैं
जब
आप सब कुछ सौंप देते हैं
उनको
उनपर विश्वास कर
तब
वे आप पर
ऐसा निर्लज्ज प्रहार करते हैं
कि
ब्रूटस भी
लज्जा के मारे
मुँह छिपा लेता है
और जूलियस सीजर
एक बार फिर आश्चर्यचकित हो
दम तोड़ देता है
यह खेल सीजर के जमाने से
जारी है अबतक
और जारी रहेगा
सृष्टि के अन्त तक
अगर आप चाहते हैं
कि
सीजर जैसा न हो आपका अंत
लूट न ले जाए कोई
आपके मन का
वसंत
तो
आप चुप हो जाओ
और अगर गाना ही है
तो मन-ही-मन गाओ
पर बाहर
चुप
एकदम चुप हो जाओ।
-मिथिलेश कुमार मिश्र 'दर्द'
स्वर्ग की रचना मुश्किल है
टकराते आदेश जहाँ हैं,
साधारण जन क्या करे?
गलती कोई और करे और,
साधारण जन कटे-मरे।।
अपराध करे कोई और मगर
निर्दोष जहाँ पर दंडित हों।
अपराध भयंकर करनेवाले
लोग जहाँ पर मंडित हों।।
वह जगह रसातल जाएगी ही,
उसका बचना मुश्किल है।
जहाँ धधकता नरक वहाँ पर,
स्वर्ग की रचना मुश्किल है।।
-मिथिलेश कुमार मिश्र 'दर्द'
दिन वे बीत गए
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दिन वे बीत गए।
होते प्रहार रहते थे मुझपर
जब नित नए नए-
दिन वे बीत गए।
जिस संकट को झेला मैंने।
जिस संकट से खेला मैंने।
लगता है कि उस संकट से
अब हम जीत गए-
दिन वे बीत गए।
अद्भुत मारक अस्त्र थे उनके।
सच संहारक शस्त्र थे उनके।
लगता है कि अब निषंग ही
उनके रीत गए-
दिन वे बीत गए।
फिर भी भीत रहा करता हूँ।
अनजाने डर से डरता हूँ।
सुना रहे होते हैं जब वे
कर्णप्रिय कुछ गीत नए-
दिन वे बीत गए।
-मिथिलेश कुमार मिश्र 'दर्द'
प्रबंध काव्य 'याज्ञसेनी' के पंचम सर्ग की कुछ और पंक्तियाँ--
देख कृष्ण को बोली कृष्णा,
आओ भइया, आओ।
धर्मराज को मार्ग धर्म का
तुम भी जरा दिखाओ।
भइया, युद्ध को होने दो,
तुम नहीं युद्ध को रोको।
मैं तो कहती धर्मराज की
कायरता को टोको।
किया समर्थन धृष्टद्युम्न ने
तत्क्षण महासमर का।
किया निवारण भीमसेन ने
किसी हार के डर का।
बोला पबितन अटल प्रतिज्ञा
याज्ञसेनी है मेरी।
विश्वास रखो तुम,तेरी इच्छा
होगी निश्चित पूरी।
कहा पार्थ ने दंड कर्ण को
मुझको भी देना है।
कृष्णा के अपमान का बदला
मुझको भी लेना है।
'युद्ध को तो होना ही है,
पर पहल उन्हें करने दो।'
कहा कृष्ण ने,'कृष्णे!जबतक
टले युद्ध टलने दो।'
हुआ सर्वसम्मति से निर्णय,
'शांतिदूत जाएगा।'
बोली कृष्णा,'रिक्तहस्त ही
वह वापस आएगा'
-मिथिलेश कुमार मिश्र 'दर्द'