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शिवपिंडी पर बिल्वपत्र चढाने की पद्धति तथा बिल्वपत्र तोडने के नियम



. शिवपिंडी पर बिल्वपत्र चढाने की पद्धति तथा बिल्वपत्र तोडने के नियम
         बिल्ववृक्ष में देवता निवास करते हैं । इस कारण बिल्ववृक्ष के प्रति अतीव कृतज्ञता का भाव रखकर उससे मन ही मन प्रार्थना करनेके उपरांत उससे बिल्वपत्र तोडना आरंभ करना चाहिए । शिवपिंडी की पूजा के समय बिल्वपत्र को औंधे रख एवं उसके डंठल को अपनी ओर कर पिंडी पर चढाते हैं । शिवपिंडी पर बिल्वपत्र को औंधे चढाने से उससे निर्गुण स्तरके स्पंदन अधिक प्रक्षेपित होते हैं । इसलिए बिल्वपत्र से श्रद्धालुको अधिक लाभ मिलता है । सोमवार का दिन, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तथा अमावस्या, ये तिथियां एवं संक्रांति का काल बिल्वपत्र तोडने के लिए निषिद्ध माना गया है । बिल्वपत्र शिवजी को बहुत प्रिय है, अतः निषिद्ध समय में पहले दिन का रखा बिल्वपत्र उन्हें चढा सकते हैं । बिल्वपत्र में देवतातत्त्व अत्यधिक मात्रा में विद्यमान होता है । वह कई दिनोंतक बना रहता है ।

त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रंच त्रयायुधम् ।
त्रिजन्मपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ।। – बिल्वाष्टक, श्लोक १
अर्थ : त्रिदल (तीन पत्र) युक्त, त्रिगुण के समान, तीन नेत्रों के समान, तीन आयुधों के समान एवं तीन जन्मों के पाप नष्ट करनेवाला यह बिल्वपत्र, मैं शंकरजी को अर्पित करता हूं ।

. तारक अथवा मारक उपासना-पद्धति के अनुसार बिल्वपत्र कैसे चढाएं ?
बिल्वपत्र, तारक शिव-तत्त्व का वाहक है, तथा बिल्वपत्र का डंठल मारक शिव-तत्त्व का वाहक है ।

. शिव के तारक रूप की उपासना करनेवाले : सर्वसामान्य उपासकों की प्रकृति तारक स्वरूप की होनेसे, शिव के तारक रूप की उपासना करना ही उनकी प्रकृति से समरूप होनेवाली तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिए पोषक होती है । ऐसे लोगों को शिव के तारक तत्त्व से लाभान्वित होने के लिए बिल्वपत्र का डंठल पिंडी की दिशा में और अग्रभाग अपनी दिशा में रखते हुए चढाएं । (बिल्वं तु न्युब्जं स्वाभिमुखाग्रं च ।)
. शिव के मारक रूप की उपासना करनेवाले : शाक्तपंथीय शिव के मारक रूप की उपासना करते हैं ।
·       ये उपासक शिव के मारक तत्त्व का लाभ लेने हेतु बिल्वपत्र का अग्रभाग देवता की दिशा में और डंठल अपनी दिशा में कर चढाएं ।
·       पिंडी में दो प्रकार के पवित्र कण होते हैं – आहत (पिंडी पर सतत गिरनेवाले जल के आघात से उत्पन्न) नाद के ± अनाहत (सूक्ष्म) नाद के । ये दोनों पवित्र कण एवं चढाए हुए बिल्वपत्र के पवित्रक, इन तीनों पवित्र कणों को आकर्षित करने के लिए तीन पत्तों से युक्त बिल्वपत्र शिवजी को चढाएं । कोमल बिल्वपत्र आहत (नादभाषा) एवं अनाहत (प्रकाशभाषा) ध्वनि के एकीकरण की क्षमता रखते हैं । इन तीन पत्तोंद्वारा एकत्र आनेवाली शक्ति पूजक को प्राप्त हो इस उद्देश्य से बिल्वपत्र को औंधे रख एवं उसका डंठल अपनी ओर कर बिल्वपत्र पिंडी पर चढाएं । इन तीन पवित्रकों की एकत्रित शक्ति से पूजक के शरीर में त्रिगुणों की मात्रा घटने में सहायता मिलती है ।
. बिल्वपत्र चढाने की पद्धति के अनुसार व्यष्टि एवं समष्टि स्तर पर होनेवाला शिवतत्त्व का लाभ
       बिल्वपत्र का डंठल पिंडी की ओर तथा अग्र (सिरा) अपनी ओर कर जब हम बिल्वपत्र चढाते हैं, उस समय बिल्वपत्र के अग्र के माध्यम से शिवजी का तत्त्व वातावरण में अधिक पैâलता है । इस पद्धति के कारण समष्टि स्तर पर शिवतत्त्व का लाभ होता है । इसके विपरीत बिल्वपत्र का डंठल अपनी ओर तथा अग्र पिंडी की ओर कर जब हम बिल्वपत्र चढाते हैं, उस समय डंठल के माध्यम से शिवतत्त्व केवल बिल्वपत्र चढानेवाले को ही मिलता है । इस पद्धति के कारण व्यष्टि स्तर पर शिवतत्त्व का लाभ होता है ।

. बिल्वपत्र को औंधे क्यों चढाएं ?
       शिवपिंडी पर बिल्वपत्र को औंधे चढाने से उस से निर्गुण स्तर के स्पंदन अधिक प्रक्षेपित होते हैं, इसलिए बिल्वपत्र से श्रद्धालु को अधिक लाभ मिलता है । शिवजी को बेल ताजा न मिलने पर बासी बेल अर्पित कर सकते हैं; परंतु सोमवार का तोडा हुआ बेल दूसरे दिन अर्पित नहीं करते हैं ।

. शिवजी की परिक्रमा कैसे करें ?
   शिवजी की परिक्रमा चंद्रकला के समान अर्थात सोमसूत्री होती है । सूत्र का अर्थ है, नाला । अरघा से उत्तर दिशा की ओर, अर्थात सोम की दिशा की ओर, जो सूत्र जाता है, उसे सोमसूत्र या जलप्रणालिका कहते हैं । परिक्रमा बार्इं ओरसे आरंभ कर जलप्रणालिका के दूसरे छोर तक जाते हैं । उसे न लांघते हुए मुडकर पुनः जलप्रणालिका तक आते हैं । ऐसा करने से एक परिक्रमा पूर्ण होती है । यह नियम केवल मानवस्थापित अथवा मानवनिर्मित शिवलिंग के लिए ही लागू होता है; स्वयंभू लिंग या चल अर्थात पूजाघर में स्थापित लिंग के लिए नहीं ।
. शिवपिंडी की परिक्रमा करते समय अरघा के स्त्रोत को क्यों नही लांघते ?
       अरघा के जलप्रणालिका से शक्तिस्रोत प्रक्षेपित होता है । उसे लांघते समय पैर फैलने से वीर्यनिर्मिति एवं पांच अंतस्थ वायुओंपर विपरीत परिणाम होता है । इससे देवदत्त एवं धनंजय इन वायु के प्रवाह में रुकावट निर्माण हो जाती है । तथा इस स्रोत से शिव की तमप्रधान लयकारी सगुण तरंगें पृथ्वी तथा तेज तत्त्वोंके प्राबल्य के साथ प्रक्षेपित होती रहती है । परिणामस्वरूप व्यक्ति को अचानक मिरगी आना, मुंह में फेन अर्थात फ्रोत आना, देह में ऊष्णता निर्माण होकर देह का तप्त होना, हड्डियां टेढी होना, दांत बजना जैसे कष्ट होने की आशंका रहती है । इसलिए ऐसे शिवलिंग की अर्ध गोलाकृति पद्धतिसे परिक्रमा करते हैं । शिवजी की परिक्रमा पूरी करने के उपरांत कुछ शिवभक्त शिवउपासना में शिवमहिम्नस्तोत्र, शिवकवच इनका पाठ विशेष रूपसे करते है । पाठ करने के साथही शिवतत्त्व का अधिकाधिक लाभ पाने के लिए महाशिवरात्रि पर शिवजी के नाम का जप अधिकाधिक करें ।
. शिवोपासनांतर्गत कुछ नियमित कृत्योंके शास्त्र
उपासना का कृत्य
कृत्य के विषय में ईश्वरीय कृपास्वरूप प्राप्त ज्ञान
. शिवजी को पुष्प चढाना
. कौनसे चढाएं ?
रजनीगंधा, जाही, जूही एवं मोगरा
. संख्या कितनी हो ?
दस अथवा दस गुना
. पुष्प चढाने की पद्धति क्या हो ?
पुष्पों का डंठल देवता की ओर चढाएं ।
. पुष्प कौनसे आकार में चढाएं ?
पुष्प गोलाकार चढाकर वर्तुल के मध्य की रिक्ति को भर दें ।
. अगरबत्ती से आरती उतारना
. तारक उपासना के लिए किस सुगंध की अगरबत्ती ?
चमेली एवं हिना
. मारक उपासना के लिए किस सुगंध की अगरबत्ती ?
केवडा, हिना एवं दरबार
. संख्या कितनी हो ?
दो
. उतारने की पद्धति क्या हो ?
दाहिने हाथ की तर्जनी एवं अंगूठे में पकडकर घडी की सुइयों की दिशा में पूर्ण गोलाकार पद्धति से तीन बार घुमाकर उतारें ।
. इत्र किस सुगंध का अर्पित करें ?
केवडा


. शिवजी के नामजप का महत्त्व
  
नमः शिवाय ।’ यह शिवजी का पंचाक्षरी नामजप है । इस मंत्र का प्रत्येक अक्षर शिव की विशेषताओंका निदर्शक है । जहां गुण हैं वहां सगुण साकार रूप है । ‘नमः शिवाय ।’ इस पंचाक्षरी नामजप को निर्गुण ब्रह्म का निदर्शक ‘ॐ’कार जोडकर ‘ॐ नमः शिवाय’ यह षडाक्षरी मंत्र बनाया है । इस मंत्र का अर्थ है, निर्गुण तत्त्वसे अर्थात ब्रह्मसे सगुण की अर्थात माया की ओर आना ।

. शिवजी के नामजप में ‘ॐ’कार लगाने का परिणाम
       माया की निर्मिति के लिए प्रचंड शक्ति आवश्यक होती है । उसी प्रकार की शक्ति ओंकारद्वारा निर्माण होती है । ओंकारद्वारा निर्माण होनेवाले स्पंदनोंसे शरीरमें अत्यधिक शक्ति अर्थात उष्णता निर्माण होती है । यह शक्ति न सहपाने से सर्वसामान्य व्यक्तिको आम्लपित्त, उष्णता बढने जैसे शारीरिक कष्ट होना अथवा अस्वस्थ लगने जैसे मानसिक कष्ट होने की संभावना भी रहती है ।
. कालानुसार आवश्यक उपासना
          आजकल विविध प्रकारसे देवताओं का अनादर किया जाता है । इसके कुछ उदाहरण देखेंगे । नाटकों एवं चित्रपटोंमें देवी-देवताओंकी अवमानना करना, कलास्वतंत्रता के नाम पर देवताओंके नग्न चित्र बनाना, व्याख्यान, पुस्तक आदि के माध्यमसे देवताओंपर टीका-टिप्पणी करना, व्यावसायिक विज्ञप्तिके लिए देवताओंका ‘मौडेल’ के रूप में उपयोग किया जाना, उत्पादनोंपर देवताओंके चित्र प्रकाशित करना तथा देवताओंकी वेशभूषा पहनकर भीख मांगना इत्यादि अनेक प्रकार दिखार्इ देते है । यही सब प्रकार शिवजी के संदर्भ में भी होते है । देवताओंकी उपासना का मूल है श्रद्धा । देवताओंके इस प्रकार के अनादर से श्रद्धा पर प्रभाव पडता है; तथा धर्म की हानि होती है । धर्महानि रोकना कालानुसार आवश्यक धर्मपालन है । यह देवता की समष्टि अर्थात समाज के स्तर की उपासना ही है । इसके बिना देवता की उपासना परिपूर्ण हो ही नहीं सकती । इसलिए इन अपमानों को उद्बोधनद्वारा रोकने का प्रयास करें । जो भक्तों के अज्ञान को, अर्थात सत्त्व, रज तथा तम को एक साथ नष्ट कर उन्हें त्रिगुणातीत करते हैं ।
          अतः इस महाशिवरात्रि पर  शिवजी पूजन से संबंधित शास्त्र समझकर पूजन करें तथा यदि कभी देवताओं का अपमान होता दिखने पर उसका संवैधानिक मार्ग से अवश्य विराेध करें तथा भगवान शिवजी की कृपा संपादित करें ।
संदर्भ : सनातन संस्था का ग्रंथ ‘शिव’
स्थानीय संपर्क - 9336287971

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