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दिव्य रश्मि के पाँच वर्ष

दिव्य रश्मि के पाँच वर्ष 

 दिव्य रश्मि ने अपने पांच वर्षों के सफर को पूरा किया . सुनने में कितना शानदार लगता है ना. आंखों के
सामने 28 मई , 2015 की वह तारीख घूम जाती है जिस दिन आधी-अधूरी समझ के साथ हमने यह पत्रिका इस संकल्प के साथ शुरू की थी कि धर्म और राष्ट्रवाद से परिपूर्ण पत्रिका निकालेंगे. इस पत्रिका का लोकार्पण साहित्य जगत के महान विभूति पूज्य डॉ श्रीरंजन सूरिदेव जी एवं पारिवारिक और पत्रकारिता के कई मित्रों की उपस्थिति में और सौर्य समाज के दर्जन भर बुद्धीजीवियों के बीच हमने भगवा कागज में लिपटी पत्रिका को सबके सामने पेश किया था. तब से सबसे बड़ी चुनौती पत्रिका की निरंतरता को बनाए रखना था और कई उतार चढ़ाव के बीच हमने इसे बनाए रखा. आज जब बीते 48 महीनों को सोचता हूं तो रोमांच सा होता है. दिव्य रश्मि  ने व्यक्तिगत रूप से मुझे बहुत कुछ दिया है. सम्मान, पहचान और संघर्ष करने का जज्बा मुझे इसी पत्रिका से मिला. इसने मुझे हर शहर में मित्र दिया है. यह पांच वर्षों की उपलब्धि है कि कम ही सही लेकिन दिव्य रश्मि  हर शहर में पहुंची है. हमने इसे देश के दर्जनों विश्वविद्यालयों की लाइब्रेरी में पहुंचाया है. इसे देश के संसद में पहुंचाया है. पत्रिका जहां गई है उसकी चर्चा हुई है.
इस दौरान तमाम शहरों में तमाम लोग पत्रिका को सहयोग के लिए सामने आए हैं. जयपुर, देहरादून, नागपुर, नासिक, पटना, लखनऊ, गाजियाबाद, ग्रेटर नोएडा, जौनपुर, चंडीगढ़ , गोवा , भोपाल, मुंबई समेत उत्तर प्रदेश और देश के तमाम शहरों में रहने वाले लोगों ने बहुत सहारा और सराहना दी है. सबका नाम लेना संभव नहीं है लेकिन इसी बहाने मैं आपलोगों का सार्वजनिक धन्यवाद करता चलूं यह भी जरूरी है. आपकी सराहना हमारा हौंसला है. आपका साथ ही हमारी ताकत है.
दिव्य रश्मि  को शुरुआत में भी आर्थिक दिक्कत थी जो अब भी कमोबेश बनी हुई है. विचारधारा से समझौता किए बिना राष्ट्रवाद के  मुद्दों पर पत्रिका  निकालना आसान नहीं है. क्योंकि तब ना तो विज्ञापन ही मिलता है और न ही आर्थिक मदद. पत्रिका को हम पैसों से नहीं बल्कि हौंसलों से चला रहे है. जिद्द और जुनून से चला रहे हैं. जिस दिन हमने पत्रिका शुरू की थी, उस दिन भी हमारे पास जिद्द और जुनून ही था. हमने आज भी वो जिद्द और जुनून बरकरार रखा है. बल्कि जिद्द तो बढ़ गई है. हां, कुछ राष्ट्रवादी साथी इस दौरान जरुर साथ चले जिन्होंने काफी सहयोग किया. एक धन्यवाद उनको भी. विशेष तौर पार आज मै स्वर्गीय हिमांशु कुमार मिश्र जी का एवं श्री हितेंद्र मोहन मिश्र का विशेष धन्यवाद देने चाहूँगा जिन्हों ने शुरुआती दौर में पत्रिका के लिए काफी कुछ किया | इन पांच सालो के सफर में मै कहना चाहूँगा “ अरे देखी ज़माने की यारी, बिछड़े सभी, बिछड़े सभी बारी बारी, क्या ले के मिलें अब दुनिया से, आँसू के सिवा कुछ पास नहीं या फूल ही फूल थे दामन में, या काँटों की भी आस नहीं मतलब की दुनिया है सारी बिछड़े सभी, बिछड़े सभी बारी बारी, वक़्त है महरबां, आरज़ू है जवां फ़िक्र कल की करें, इतनी फ़ुर्सत कहाँ बिछड़े सभी बारी बारी| खैर इन सब के वावजूद हमने ठान रखा है “मै जिंदगी का साथ निभाता चला गया हर फिक्र को धुए में उडाता चला गया , जो मिलगया उसीको मुकद्दर समझ लिया जो खो गया मै उसको भूलता चला गया | 

आज हिन्दी पट्टी में तो पत्रिका ने अपने कदम जमा लिए हैं, अब जरूरत इसे अन्य भाषाओं में भी प्रकाशित करने की है. अगर कोई साथ आता है तो पत्रिका को संस्कृत, गुजराती, मराठी और पंजाबी भाषा में प्रकाशित करने की भी योजना है. दिव्य रश्मि  के प्रचारकों की भी इस सफर में अहम भूमिका रही है. अगर पत्रिका समय पर पाठकों तक पहुंच पाती है तो इसमें आपकी भी बहुत बड़ी भूमिका है. आखिर में एक धन्यवाद श्री अरविन्द पाण्डेय एवं श्री राजीव झा जी को. अब तक के सफर में कई लोग अपनी सहूलियत के हिसाब से साथ चलें लेकिन श्री अरविन्द पाण्डेय एवं श्री राजीव झा जी को इकलौते ऐसे व्यक्ति हैं, जो तमाम व्यस्तताओं के बावजूद पहले दिन से लेकर आज तक पत्रिका के साथ खड़े हैं. पांचवे वर्ष के आगाज पर सभी पाठकों, प्रचारकों, शुभचिंतकों और साथियों को बहुत-बहुत बधाई. आगे का रास्ता कठिन है लेकिन जैसे अब तक चले हैं, आगे भी चलते जाना है.
धन्यवाद
डॉ राकेश दत्त मिश्र
सम्पादक