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प्रकृति के प्रकोप(मगही कविता )

प्रकृति के प्रकोप

प्रकृति के प्रकोप साफ दिखाई दे रहल हे ।
जउन बइसाख जेठ में छूट के लूक आउ लहर चले के चाहS हल उहाँ सामन आउ भादो जइसन उमड़-घुमड़ के बादर मूसलाधार बरस रहल हे ।
एक दने जहाँ बइसाख जेठ में चिलचिलाइत रउदा में देह जरS हल उहईं आज ठीक दुपहरिया में भादो जइसन घुचघुच अंधरिया घेरले हे ।
जहाँ आज छूट के दमाही होबे के दिन हल उहईं आज खेत आउ खरिहान में खड़े आउ काटल रब्बी सड़ रहल हे ।
एक तरफ कोरोना आउ दोसर ओर प्रलय के नजारा ।
हे भगवान ! ई का कयलS तू ?

चले के चहत हल लुक आउ लहSरिया से
ओहे बइसाख जेठ घुमड़े बदSरिया।

खेत - खरिहान सब रबिया सड़ित हई ।
ठीक दुपहरिया में घेरले अंधरिया ।।

सामन भदोइया में बूंद न बरSसS हलइ ।
चइत बइसाख जेठ करिया कजSरिया ।।

सावन भादो में बादर के ताकइत-ताकइत आँख पथरा जा हल बाकि एगो बूंद न परS हल । 
आज बइसाख में कजरी सजल हे ।

माथ पर हाथ धरी रोबत किसनमा से  
उठत किसनियाँ के हिया में लहरिया ।।

हाय भगवान ! तोरा लजियो न लगो आजS
कउन सुखनिन्दिया तू सुतलS सेजरिया ?

भोगे संत्रास लिखल जग के विनाश आज ।
कने जाके छिपलS तू तानी के चदरिया  !

झरतS नयन,  न मिलत चितचैनS से
सगरो प्रलय के परल पिपकरिया !

कवि चितरंजन 'चैनपुरा' , जहानाबाद, बिहार, 804425