(भारतीय इतिहास के
स्वर्णिम)
लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य
भारत प्राचीन काल से ही वैज्ञानिक आविष्कारों के लिए जाना जाता रहा है। यहाँ
पर व्योमयान अर्थात विमान दो प्रकार के बनाए जाते थे। ऋषि भारद्वाज ने अपने ग्रंथ 'वृहदविमानभाष्य' में ऐसे विमान के बारे में भी उल्लेख किया है जो एक साथ जल ,
थल और नभ में उड़ान भर सकता था या चल सकता था।
इसका अभिप्राय है कि किसी भी परिस्थिति में ऋषि भारद्वाज की तकनीक से बनाए गए
विमान में किसी दुर्घटना की संभावना नहीं थी । यदि जल में दुर्घटना की स्थिति बन
रही होती थी तो उस विमान में एक यंत्र ऐसा होता था जो तुरंत यात्रियों को लेकर ऊपर
को उड़ जाता था । यदि ऊपर उड़ते हुए अचानक विमान को नीचे लाना हो और नीचे समुद्र हो
तो भी उसे आराम से नीचे लाया जा सकता था । तब वह ऊपर से आकर जल में तैरने लगता था
। ऐसे विज्ञान व तकनीक से सुसज्जित विमान आज की वैज्ञानिक विचारधारा के लिए बहुत
बड़ी चुनौती हैं ।
हमारे विमानों में विमान और महद ये दो प्रकार के विमान होते थे । लंका के राजा
रावण के पास जो पुष्पक विमान था वह महद विमान की श्रेणी का था।


पितामह ब्रह्मा ने अपने ही विमान को आगे चलकर कुबेर को दे दिया था । कुबेर ने
भी इसका भरपूर उपभोग किया , परंतु रावण ने कुबेर से
इसे बलात छीन लिया था । स्वाभाविक है कि रावण की ऐसी तानाशाही प्रवृत्ति से
ब्रह्मा और कुबेर सहित अन्य सभी देवता लोग अर्थात ऐसे महापुरुष जो उस समय की बड़ी
शक्तियों के रूप में पूजित किए जाते थे , कुपित हुए होंगे । उनका यह आक्रोश या कुपित भाव ही रावण जैसे अहंकारी शासक के
विनाश का कारण बना । क्योंकि इन सभी दिव्य पुरुषों का शुभ आशीर्वाद राम के साथ हो
गया था । सभी की यह इच्छा बन चुकी थी कि रावण जैसे अहंकारी का विनाश किया जाना समय
की आवश्यकता है । जिसे दशरथनंदन रामचंद्र ही पूर्ण कर सकते हैं। इससे यह भी स्पष्ट
होता है कि जब कोई निर्दयी शासक किसी विद्वान या भद्रपुरुष का त्रास या उपहास करता
है या किसी भी प्रकार से उन्हें प्रताड़ित उत्पीड़ित करता है या मानसिक व आत्मिक
क्लेश पहुंचाने की चेष्टा करता है तो सभी दिव्य शक्तियां उसका विनाश करा डालती हैं
।

अस्त्रों का ज्ञान सर्वसाधारण को नहीं दिया जाता था। क्योंकि उनसे किसी भी
प्रकार के अनिष्ट की संभावना थी । वैसे भी ज्ञान का दुरुपयोग यदि होता है तो वह
ज्ञान के सदुपयोग से होने वाले लाभ की अपेक्षा हजारों गुणा अधिक विनाशकारी सिद्ध
होता है। इसलिए ज्ञान को सदा पात्र व्यक्ति के हृदय में रोपना व सौंपना ही हमारे
ऋषियों का उद्देश्य रहा । इसी कारण हमारे देश में प्राचीन काल में ज्ञान-विज्ञान
देर तक जनसाधारण का भला करता रहा । अस्त्र-शस्त्र हमारे यहां पर ब्रह्मा , विष्णु , शिव , विश्वामित्र , अगस्त्य , राम , लक्ष्मण , रावण , इंद्रजीत , परशुराम , सगर , भरद्वाज , अग्निवेश , द्रोण , विष्णु , कर्ण , सात्यकि , अर्जुन और श्रीकृष्ण जैसे महाधनुर्धारियों के पास ही रहे
।इनमें से रावण , इंद्रजीत व कर्ण जैसे
व्यक्ति ऐसे निकले जिन्होंने ज्ञान - विज्ञान का दुरुपयोग किया और उन अस्त्र -
शस्त्रों से मानव जाति के संहार की योजना बनाई । फलस्वरूप न केवल उनका विनाश हुआ
अपितु प्राचीनकाल में हमें दो महाभयंकर विनाशकारी युद्ध भी देखने को मिले ।
जिन्हें हम राम रावण का रामायणकालीन युद्ध और महाभारत का युद्ध कहते हैं।

प्राचीन भारतीय साहित्य में कई प्रकार के विमान जैसे तिमंजिला, त्रिभुज आकार के एवं तीन पहिये वाले, आदि विमानों का उल्लेख है। इनमें से कई विमानों का निर्माण अश्विनी कुमारों ने किया था, जो दो जुड़वां देव थे,
एवं उन्हें उस समय के महान वैज्ञानिक के रूप
में मान्यता प्राप्त थी। इनमें साधारणतया तीन यात्री जा सकते थे एवं उनके दोनों ओर
पंख होते थे। इन उपकरणों के निर्माण में मुख्यतः तीन धातुओं- स्वर्ण, रजत तथा लौह का प्रयोग किया गया था। वेदों में विमानों के कई
आकार-प्रकार उल्लेखित किये गये हैं। उदाहरणतया अग्निहोत्र विमान में दो ऊर्जा
स्रोत (ईंजन) तथा हस्ति विमान में दो से अधिक स्रोत होते थे। किसी विमान का रूप व
आकार आज के किंगफिशर पक्षी के अनुरूप था। एक जलयान भी होता था
जो वायु तथा जल दोनों में चल सकता था। कारा नामक विमान भी वायु तथा जल दोनो तलों
में चल सकता था। त्रिताला नामक विमान
तिमंजिला था। त्रिचक्र रथ नामक तीन पहियों वाला यह विमान आकाश में उड सकता था। किसी रथ के जैसा प्रतीत होने वाला विमान वाष्प
अथवा वायु की शक्ति से चलता था। विद्युत-रथ नामक विमान विद्युत की शक्ति से चलता था।
समरांगणसूत्रधार नामक ग्रन्थ में विमानों
के बारे में तथा उनसे सम्बन्धित सभी विषयों के बारे में अद्भुत ज्ञान मिलता है।
ग्रन्थ के लगभग 225 से अधिक पदों में इनके
निर्माण, उड़ान, गति, सामान्य तथा आकस्मिक अवतरण तथा पक्षियों द्वारा दुर्घटनाओं की के बारे में भी
उल्लेख मिलते हैं। आजकल के अफगानिस्तान में हमारे प्राचीन गौरवमयी और स्वर्णिम
इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों को प्रकट करता हुआ एक 5000 वर्ष पुराना विमान प्राप्त हुआ है। जिसे वहाँ आज भी देखा
जा सकता है।
हमारे ऋषियों के पास प्राचीन काल में ही ऐसे ज्ञान विज्ञान के होने से पता
चलता है कि पश्चिमी जगत की यह धारणा मूर्खतापूर्ण है कि मनुष्य प्रारंभ में
कन्दराओं में रहता था और वह निरा अज्ञानी था , फिर धीरे-धीरे उसको ज्ञान का प्रकाश होना आरंभ हुआ और उसने
अपनी उस दीन - हीन अवस्था से निकल कर आगे बढ़ने के बारे में सोचना आरंभ किया ।
इसके विपरीत भारत की वैदिक परंपरा यह है कि सृष्टि के प्रारंभ में ही ईश्वर ने
अपनी सृष्टि पूर्ण ज्ञान - विज्ञान के साथ रची और बनाई थी । उसने समस्त
ज्ञान-विज्ञान हमारे ऋषियों को दिया और ऋषियों ने उस ज्ञान - विज्ञान का सदुपयोग
करते हुए उसके आधार पर आगे बढ़ना आरंभ किया । चिंतन के इस अंतर को समझना समय की
आवश्यकता है कि पश्चिमी जगत मनुष्य को निरा मूर्ख अज्ञानी मानता है और हम उसे 'अमृतपुत्र' मानकर आर्य भद्रपुरुष के रूप में उसका पृथ्वी पर आगमन मानते
हैं । सचमुच एक वैज्ञानिक आर्यपुत्र ही विज्ञान की इतनी उन्नति कर सकता है कि वह
ऐसे विमान बना सके ?
डॉ राकेश कुमार आर्य ,संपादक : उगता भारत