कजरारे बादल
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जाल बिछाने गगन झील पर,
निकल पड़े मछुआरे बादल।
कंचन वर्णी सोन मछारिया,
धूप रूप देखा सिंदुरी
मुग्ध मना संध्या बेला में,
निशि दर्पण चंदा से दूरी
हौले हौले लगी सिमटने,
पगलाए मतवारे बादल।
मन मोहक प्रिय रूप दूधिया,
ओढ़े निकला तारक चुनरी
बढ़ने लगी मेघ की धड़कन,
चाहत की प्रिय बांहे पसरी
कौंध गई लहराकर बिजुरी,
और घिरे कजरारे बादल।
लुकाछिपी का खेल मनचला,
श्यामल घन संग चला सुहाना
लिऐ अंक में निशा मनी का,
गाया रिमझिम गीत तराना
घुंघरू स्वर संगत कर प्रमुदित,
लौट गए भिन सारे बादल।
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सत्येन्द्र तिवारी लखनऊ
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