फांसी वाली डोर
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नज़र जिधर भी उठी हमारी,
हम को दर्द नज़र आया है
आंगन आंगन मुरझाया है।
पृष्ठ पृष्ठ पर लाज रों रही
आरक्षण अब जनमानस पर,
फांसी वाली डोर हो रही
कहीं बेबसी और कहीं पर,
पेट नोंचता सरमाया है।
धर्म और विश्वास गुम हुए
माया नगरी की माया में
आस्टिनों में सांप पल रहे
अब संगीनों की छाया में
भूख गरीबी भय का दानव,
गांवों शहरों में छाया है।
सिर धुनता रहता संविधान
है बेलगाम अब आजादी
अंधे गूंगे बहरे बंदर
सब घूम रहे पहने खादी
बस्ती बस्ती हर कुटिया में,
गांधी हरदम अंसुआया है
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सत्येन्द्र तिवारी लखनऊ
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