भारतीय
संस्कृति के मूल तत्व
प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
संस्कृति
शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में भी है - ‘सा प्रथमा संस्कृतिः
विश्ववारा।'
वहां इसका मूल अर्थ सार्वभौम संस्कृति से है जो विश्व में सर्वाधिक वरेण्य है। परंतु वर्तमान में अंग्रेजी के ‘कल्चर’ के पर्याय के रूप में जो संस्कृति शब्द चला है, उसका अर्थ इससे बिलकुल अलग है।
वहां इसका मूल अर्थ सार्वभौम संस्कृति से है जो विश्व में सर्वाधिक वरेण्य है। परंतु वर्तमान में अंग्रेजी के ‘कल्चर’ के पर्याय के रूप में जो संस्कृति शब्द चला है, उसका अर्थ इससे बिलकुल अलग है।
वेद मानते
हैं कि सम्पूर्ण विश्व में मानव जाति नामक एक ही जाति या प्रजाति है। स्थान भेद और
कालभेद से तथा ज्ञानात्मक प्रकाश और संस्कार के प्रशिक्षण तथा साधना के भेद से
मनुष्य-मनुष्य में भेद भी स्वाभाविक हैं परंतु उन सब के कुछ मूल आधार भी हैं तथा
कुछ ऐसे मौलिक कर्तव्य हैं जो संसार में सभी मनुष्यों के द्वारा पालनीय हैं। तभी
उनकी उन्नति होती है। नहीं तो वे मनुष्य नहीं रह जाते, राक्षस हो जाते हैं।
आधुनिक
यूरोपीय अर्थ में ‘कल्चर’, जिसे भारत में संस्कृति के रूप में अनुवाद
करके प्रचारित किया गया है, वह एक नृजातीय अवधारणा है। उस
अवधारणा के मूल में यह निहित है कि मनुष्यों की अलग-अलग नस्लें हैं और उनमें एक
तारतम्य है जिसमें यूरोप की गोरी नस्लें सर्वोपरि है और उन्हें विश्व की बाकी सभी
नस्लों के विषय में अध्ययन भी करना है और उनका मार्गदर्शन भी करना है। यही नृतत्वषास्त्र
या एन्थ्रोपॉलाजी कहा जाता है। जिसके आधार पर अलग-अलग समाजों और समुदायों के
रीति-रिवाजों, कानूनों, ज्ञान-सम्पदा
और नैतिक आचरण का अध्ययन कर उनकी संस्कृति का स्वरूप जाना जाता है और प्रस्तुत
किया जाता है। इसे ही वे सम्बिन्धत देश या समाज की संस्कृति कहते हैं।
भारत की
विशेषता को जानने के कारण यूरोप के इन नृतत्वषास्त्रियों ने ‘इंडियन कल्चर’ के विषेष अध्ययन पर चित्त एकाग्र किया
और उसे ही वर्तमान भारतीय सरकारों और अकादमिक जगत के लोग भारतीय संस्कृति बता कर
पढ़ते पढ़ाते हैं। इस अर्थ में संस्कृति का अर्थ हुआ ‘जातीय
व्यक्तित्व’ या ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’। आधुनिक नृतत्वषास्त्रियों द्वारा जातीय व्यक्तित्व की व्याख्या में
विचित्रताओं और विकृतियों को विशेष महत्व दिया जाता है। जबकि वैदिक अर्थ में जो
संस्कृति है, उसमें सदाचार और श्रेष्ठ ज्ञानियों के आचरण तथा
ज्ञान को ही संस्कृति कहा जाता है और उससे विचलन को विकृति कहा जाता है। इस प्रकार
अगर वैदिक अर्थ में भारतीय संस्कृति शब्द का विचार करें तो उसी समय भारतीय विकृति
पर भी विचार करना आवष्यक होगा। जबकि नृतत्वषास्त्रीय अध्ययन में विकृति को
संस्कृति की तरह ही प्रस्तुत किया जाता है।
वस्तुतः इस मूल अर्थ में संस्कृति का सर्वाधिक निकटस्थ शब्द है धर्म। जो गुण, लक्षण और विषेषताएं किसी समाज को धारण करते हैं और उसकी विषेष पहचान बनाते हैं, वे ही उसका धर्म हैं और इसे ही संबंधित समाज की संस्कृति कहा जाना उचित है अतः उस अर्थ में भारतीय संस्कृति के मूल तत्व का अर्थ है सनातन वैदिक धर्म।
वस्तुतः इस मूल अर्थ में संस्कृति का सर्वाधिक निकटस्थ शब्द है धर्म। जो गुण, लक्षण और विषेषताएं किसी समाज को धारण करते हैं और उसकी विषेष पहचान बनाते हैं, वे ही उसका धर्म हैं और इसे ही संबंधित समाज की संस्कृति कहा जाना उचित है अतः उस अर्थ में भारतीय संस्कृति के मूल तत्व का अर्थ है सनातन वैदिक धर्म।
जब आधे
भारत में अंग्रेजों का राज्य था और सभी सम्पन्न लोगों में इंग्लैंड जाकर वहां के
ईसाई शिक्षा केन्द्रों में पढ़ने की होड़ थी, तब ईसाइयत और
इस्लाम को भी धर्म कहने की भूल की गई। परंतु अब तो स्वयं अंग्रेजी के नये
शब्दकोषों में धर्म का अर्थ सृष्टि के सार्वभौम नियम अंकित है और ‘रिलीजन’ शब्द का अर्थ किसी पंथ प्रवर्तक द्वारा
प्रचारित प्रकाशित आस्था अंकित किया गया है।
अतः अब कोई
भी पढ़ा लिखा व्यक्ति ‘रिलीजन’ को धर्म नहीं कहता और धर्म को ‘रिलीजन’ नहीं कहता। अतः भारतीय संस्कृति के मूल
तत्वों को इसी परिप्रेक्ष्य में जानना होगा।
वेदों में प्रथम धर्म और सनातन धर्म (सनता धर्माणि) शब्दों का प्रयोग हुआ है। जबकि बौद्धों के साहित्य में ‘ऋषि धर्म’ शब्द का प्रयोग हुआ है। अतः भारतीय समाज का जो धर्म है, वही भारतीय संस्कृति कहा जायेगा।
वेदों में प्रथम धर्म और सनातन धर्म (सनता धर्माणि) शब्दों का प्रयोग हुआ है। जबकि बौद्धों के साहित्य में ‘ऋषि धर्म’ शब्द का प्रयोग हुआ है। अतः भारतीय समाज का जो धर्म है, वही भारतीय संस्कृति कहा जायेगा।
इस संदर्भ
में विशेष ध्यान देने की बात यह है कि केवल भारतीय धर्मशास्त्रों में ही मानव धर्म
का वर्णन है। शेष सभी रिलीजस या मजहबी पुस्तकों में अपने-अपने मजहब का ही गौरव
बताया जाता है परंतु सभी मनुष्यों का कोई सामान्य गुण लक्षण नहीं बताया जाता।
अन्य मजहब
अपने अनुयायी मनुष्य से दूसरे मजहबों या पंथों के अनुयायियों को बिल्कुल अलग
मनुष्य दिखाते हैं और मानव जाति को कम से कम दो हिस्सों में बाटंते हैं - मोमिन या
काफिर अथवा फेथफुल और हीदन।
इस प्रकार
वे समस्त मनुष्यों के कोई सामान्य गुण लक्षण नहीं मानते। जबकि आधुनिक यूरोपीय
विज्ञान समस्त मनुष्यों के सामान्य गुण लक्षण मानकर ही उस विषय में खोज करता है।
इसीलिए ईसाइयत का विज्ञान से टकराव है।
भारतीय
संस्कृति का मूल तत्व है मानव धर्म का बोध और प्रस्तुति। तदनुसार सभी मनुष्यों के
द्वारा अनिवार्य रूप से पालन योग्य कुछ सार्वभौम नियम हैं जिन्हें मानव धर्म या
सामाजिक धर्म और सामासिक धर्म कहा जाता है।
जो सब के
द्वारा पालनीय कर्तव्य हैं,
उन्हें ही सार्वभौम धर्म, सामासिक धर्म या
सामान्य धर्म कहा गया है। मनु के अनुसार अहिंसा, सत्य,
अस्तेय, पवित्रता एवं संयम सार्वभौम धर्म हैं।
विष्णु धर्मसूत्र के अनुसार क्षमा, सत्य, अस्तेय, पवित्रता, दान,
इन्द्रिय संयम, अहिंसा, दया,
सरल निष्छल स्वभाव, लोभ षून्यता तथा
ईर्ष्याषून्यता आदि सामान्य धर्म हैं। महाभारत के षांतिपर्व में सत्य बोलना,
क्रोध न करना, क्षमा, अपनी
पत्नी से संतान उत्पादन, पवित्रता, ऋजुता,
अद्रोह, न्याय एवं अधीनस्थों का सम्यक पोषण -
ये नौ सामान्य धर्म हैं। इसके अतिरिक्त अपनी विषिष्टता के अनुरूप विषेष धर्म होते
हैं, जो समाज में प्राप्त स्थिति, व्यवसाय,
दक्षता, प्रतिभा, कार्य-क्षेत्र
तथा स्व-भाव एवं स्व-संकल्प के अनुसार निर्धारित होते हैं। जैसे- यदि आपने संकल्प
किया कि आज मैं प्रातः अमुक श्रेष्ठ कार्य (दान, यज्ञ,
सेवा, करूणा आदि) करूँगा तो उस स्व-संकल्प के
कारण वह उस समय आपका विषिष्ट धर्म होगा। वर्ण-धर्म, आश्रम-धम्र,
राजधर्म, गुरु-धर्म, छात्र-धम्र
आदि सब विषिष्ट धर्म ही हैं। प्रत्येक व्यक्ति का सामाजिक एवं आध्यात्मिक कर्तव्य
उसका स्वधर्म है। इसमें सामान्य धर्म एवं विषिष्ट धर्म दोनांे का समन्वय है।
योगदर्षन में कहा है कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य (संयम) एवं अपरिग्रह-ये पाँच सार्वभौम यम हैं। सभी के द्वारा सभी समय में करणीय कर्तव्यों का निकष ये पाँच धर्म-कर्तव्य हैं। अपनी विषेष स्थिति के कारण वृत्ति-विषेष (जाति), देष-विषेष एवं काल-विषेष के अनुसार इनमें कतिपय सीमाएँ आ सकती हैं।
योगदर्षन में कहा है कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य (संयम) एवं अपरिग्रह-ये पाँच सार्वभौम यम हैं। सभी के द्वारा सभी समय में करणीय कर्तव्यों का निकष ये पाँच धर्म-कर्तव्य हैं। अपनी विषेष स्थिति के कारण वृत्ति-विषेष (जाति), देष-विषेष एवं काल-विषेष के अनुसार इनमें कतिपय सीमाएँ आ सकती हैं।
धर्म के
सन्दर्भ में योगदर्षन से सर्वाधिक प्रकाष मिलता है। योगसूत्र के व्यास भाष्य की
पहली ही पंक्ति सपष्ट कहती है - योग्यतावच्छिन्ना धर्मिणः षक्तिः एव धर्मः।
किसी धर्मी की योग्यता से विषेषित षक्ति ही उसका धर्म है। जैसे दाहकता अग्नि का धर्म है। दान देना दानी का धर्म है। पढ़ना विद्यार्थी का धर्म है। पढ़ाना अध्यापक का धर्म है। अर्थात जिससे जिस वस्तु या व्यक्ति की पहचान हो, वही उसका धर्म है। योग की भाषा में उसे यों कहा गया है ‘पदार्थ का बुद्ध भाव ही धर्म है’ यानी जिससे जिसका बोध हो, वही उसका धर्म है। इस प्रकार, योगदर्षन में तीन मूल धर्म बाहरी हैं - प्रकाष, कार्य, एवं जड़ता। इसी प्रकार तीन मूल धर्म आभ्यन्तर हैं - ज्ञान (बोध), क्रियाषीलता एवं स्थिति या धृति।
किसी धर्मी की योग्यता से विषेषित षक्ति ही उसका धर्म है। जैसे दाहकता अग्नि का धर्म है। दान देना दानी का धर्म है। पढ़ना विद्यार्थी का धर्म है। पढ़ाना अध्यापक का धर्म है। अर्थात जिससे जिस वस्तु या व्यक्ति की पहचान हो, वही उसका धर्म है। योग की भाषा में उसे यों कहा गया है ‘पदार्थ का बुद्ध भाव ही धर्म है’ यानी जिससे जिसका बोध हो, वही उसका धर्म है। इस प्रकार, योगदर्षन में तीन मूल धर्म बाहरी हैं - प्रकाष, कार्य, एवं जड़ता। इसी प्रकार तीन मूल धर्म आभ्यन्तर हैं - ज्ञान (बोध), क्रियाषीलता एवं स्थिति या धृति।
कब क्या
करणीय है,
क्या अकरणीय है, इसका ज्ञान ही
धर्माधर्म-विवेक है, जो ज्ञानपूर्वक ही अर्जित होता है।
विवेक क्या है? योगदर्षन कहता है - सत्वगुण-प्रधान बुद्धि
विवेकबुद्धि है। आत्मस्वरूप का दर्षन ही विवेक का आधार है।
व्यक्ति
में सर्वप्रथम विवेकज्ञान षास्त्रों के अध्ययन या श्रवण से होता है। बाद में
युक्तिपूर्ण चिंतन-मनन द्वारा उसे दृढ़तर एवं स्पष्टतर करना होता है। विवेकज्ञान की
दृढ़ता को ही ज्ञान-दीप्ति कहा जाता है। इस प्रकार विवेक की साधना केवल
संयम-सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा ही सम्भव है।
सत्वगुण-प्रधान
बुद्धि का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में भलीभाँति किया गया है। जो बुद्धि कर्तव्य और
अकर्तव्य को,
अभय और भय को तथा बन्धन एवं मोक्ष को यथार्थतः जानती है, वह सत्व-प्रधान बुद्धि है। इसी प्रकार ‘सात्विक
ज्ञान वह है जो समस्त प्राणियों में एक ही अविनाषी को, चेतना
को एवं परमसत्ता को समभाव से स्थित देखता है। यह सात्विक बुद्धि केवल अहिंसक
चित्तभूमि के साथ ही सम्भव है।
अहिंसा की
परिभाषा है - ‘‘सर्वथा सर्वदा समस्त प्राणियों के प्रति एवं प्रकृति के प्रति अनभिद्रोह
ही अहिंसा है। केवल प्राणिपीड़ा का त्याग ही अहिंसा नहीं है अपितु प्रकृति, परिवेष एवं प्राणियों के प्रति मैत्री, करुणा एवं
मुदिता वृत्तियों का पोषण भी अहिंसा का अनिवार्य अंग है।’
यहाँ प्रश्न
उठेगा कि चित्त-भूमि क्या है? योगदर्षन कहता है - दृष्टा,
आत्मसत्ता, चैतन्यरूप है। इस चैतन्य द्वारा ही
बुद्धि चेतन होकर सभी उपस्थित विषयों को प्रकाषित करती है। जो प्रकाषित होता है
यानी जिसका ज्ञान होता है, वह - रूप, रस,
गंध, स्पर्ष, षब्द आदि
का सम्पूर्ण विस्तार-दृष्य है। चित्त द्वारा उनका ज्ञान होता है।
ज्ञान, प्रवृत्ति (क्रियाषीलता) एवं स्थिति या धृति षक्ति से सम्पन्न अन्तःकरण ही
चित्त है। समस्त बोध-रूप चित्त की ही वृत्तियाँ हैं। इन्हें ही योगदर्षन में
प्रत्यय भी कहा जाता है। सभी प्रत्यय चित्त के दिखनेवाले धर्म हैं। साथ ही,
चित्त में संस्कार भी अपरिदृष्ट रूप में रहते हैं। प्रत्यय एवं
संस्कारों से सम्पन्न चेतना को ही चित्त कहा जाता है। चित्त को हम उसकी वृत्तियों
से ही पहचानते हैं। वृत्तियों के लीन होने की दषा में चित्त के भी लीन होने की दषा
है।
योगदर्षन में पाँच प्रकार की चित्तवृत्तियाँ वर्गीकृत हैं:- (चित्तवृत्तियों को ही बुद्धिवृत्ति भी कहते हैं):- प्रमाण अर्थात् यथार्थ बोध, विपर्यय अर्थात् अयथार्थ बोध, विकल्प अर्थात् सम्बन्धित वस्तु से भिन्न अन्य वस्तु की भ्रांति में लिप्त रहना। स्मृति अर्थात अनुभूत भाव का पुनः अनुभव, निद्रा अर्थात् अभावात्मक वृत्ति का (क्षीण सा) बोध।
योगदर्षन में पाँच प्रकार की चित्तवृत्तियाँ वर्गीकृत हैं:- (चित्तवृत्तियों को ही बुद्धिवृत्ति भी कहते हैं):- प्रमाण अर्थात् यथार्थ बोध, विपर्यय अर्थात् अयथार्थ बोध, विकल्प अर्थात् सम्बन्धित वस्तु से भिन्न अन्य वस्तु की भ्रांति में लिप्त रहना। स्मृति अर्थात अनुभूत भाव का पुनः अनुभव, निद्रा अर्थात् अभावात्मक वृत्ति का (क्षीण सा) बोध।
उल्लेखनीय
है कि मन को चित्त नहीं समझना चाहिए। मन तो संकल्प इन्द्रिय है एवं
ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों का आभ्यन्तरिक केन्द्र है। मन जिन विषयों को
ग्रहण करता है,
धारण करता है या जिनमें प्रवृत्त होता है, उनका
ज्ञान रखनेवाली षक्ति चित्त है।
मानव-जीवन के चार पुरूषार्थ मानव-जीवन के चार पुरूषार्थ हैं:- धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष। इनमें से तीन लोक-जीवन में साध्य पुरूषार्थ हैं यानी वे सामाजिक पुरूषार्थ हैं, लौकिक पुरूषार्थ हैं। चौथा पुरूषार्थ निजी है, अलौकिक है। वह परम पुरूषार्थ है। परम का अर्थ यहाँ ‘मूल’ या ‘मुख्य’ से नहीं है, अपितु ‘सर्वोच्च’ एवं ‘सबसे परे’ से है। मोक्ष सामाजिक जीवन का लक्ष्य नहीं है। जीवन के लक्ष्यों को जिसके ज्ञान से अधिप्रमाणित किया जाता है, जो समस्त जीवन-लक्ष्यों के यथार्थ को और परमार्थ को प्रकाषित करता है, वह है परम पुरूषार्थ। अतः जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति किसी भी एक कार्य या व्यवसाय में सर्वोच्च नहीं हो सकता, यद्यपि सिद्धान्ततः प्रत्येक व्यक्ति को सर्वोच्च होने का प्रयास करने का अधिकार भी है और कर्तव्य भी हो सकता है, उसी प्रकार सर्वोच्च या परम पुरूषार्थ मोक्ष प्रत्येक व्यक्ति द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता, यद्यपि वह प्रत्येक द्वारा प्राप्य है। मोक्ष, मनुष्य का सामान्य धर्म नहीं है। वह परम धर्म है, विषिष्ट धर्म है।
मानव-जीवन के चार पुरूषार्थ मानव-जीवन के चार पुरूषार्थ हैं:- धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष। इनमें से तीन लोक-जीवन में साध्य पुरूषार्थ हैं यानी वे सामाजिक पुरूषार्थ हैं, लौकिक पुरूषार्थ हैं। चौथा पुरूषार्थ निजी है, अलौकिक है। वह परम पुरूषार्थ है। परम का अर्थ यहाँ ‘मूल’ या ‘मुख्य’ से नहीं है, अपितु ‘सर्वोच्च’ एवं ‘सबसे परे’ से है। मोक्ष सामाजिक जीवन का लक्ष्य नहीं है। जीवन के लक्ष्यों को जिसके ज्ञान से अधिप्रमाणित किया जाता है, जो समस्त जीवन-लक्ष्यों के यथार्थ को और परमार्थ को प्रकाषित करता है, वह है परम पुरूषार्थ। अतः जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति किसी भी एक कार्य या व्यवसाय में सर्वोच्च नहीं हो सकता, यद्यपि सिद्धान्ततः प्रत्येक व्यक्ति को सर्वोच्च होने का प्रयास करने का अधिकार भी है और कर्तव्य भी हो सकता है, उसी प्रकार सर्वोच्च या परम पुरूषार्थ मोक्ष प्रत्येक व्यक्ति द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता, यद्यपि वह प्रत्येक द्वारा प्राप्य है। मोक्ष, मनुष्य का सामान्य धर्म नहीं है। वह परम धर्म है, विषिष्ट धर्म है।
मनुस्मृति
ने स्पष्ट कहा है कि सभी मनुष्यों के लिए तीन पुरूषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, एवं काम। वस्तुतः मोक्ष मनुष्यों का सामान्य
धर्म या सर्वसामान्य लक्ष्य कभी भी नहीं माना गया है। मनुस्मृति स्पष्ट कहती है-
धर्मार्थौ
उच्यते श्रेय,
कामार्थौ धर्म एव च।
अर्थ एवैह वा श्रेयः, त्रिवर्ग इति तु स्थितिः।।
अर्थ एवैह वा श्रेयः, त्रिवर्ग इति तु स्थितिः।।
(कुछ का मत हैै कि धर्म एवं अर्थ की साधना श्रेयस्कर है, कुछ के अनुसार काम और अर्थ की तथा कुछ के मत से केवल धर्म की। इस विषय में सम्यक् स्थिति यह है कि धर्म, अर्थ एवं काम- ये तीनों ही (त्रिवर्ग) श्रेयस्कर हैं।) मनु ने स्पष्ट कहा है कि तीनों ऋणों (देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण) से मुक्त होकर ही मन को मोक्ष में निविष्ट करे (ऋणानि त्रीणि अपाकृत्य मनो मोक्षे निवेषयेत)। ऋण चुकाये बिना जो मोक्षार्थी होता है, वह अधोलोकों में जाता है (अनपाकृत्य मोक्षं तु सेवमानो व्रजति अधः)। जो भी द्विज वेदों का अध्ययन किये बिना,पुत्रोत्पति किये बिना एवं यज्ञ-सम्पादन किये बिना मोक्ष की इच्छा करता है, वह अधोगति को प्राप्त होता है।
स्पष्ट है कि जिनके मन किसी भी सामान्य गृहस्थी की आकांक्षा से मुक्त हैं, केवल वे ही जन्म-जन्मान्तर के अपने उन्नत संस्कारों के फलस्वरूप सीधे मोक्ष-साधना में प्रवृत हो सकने के अधिकारी हैं। मनु ने ही स्पष्ट किया है- ‘सर्वस्व दक्षिणा देकर, सन्यस्त होकर, समस्त प्राणियों को अभय देकर जो घर से निकल कर प्रव्रज्या करता है, उस ब्रह्मवादी को तेजोमय लोक प्राप्त होते हैं।’
धर्म, अर्थ एवं काम इस प्रकार त्रिवर्ग ही सामान्यतः धर्म है। मोक्ष-धर्म अति
विषिष्ट धर्म है। वह समस्त पुरूषार्थों की निवृति है, समाप्ति है। यहाँ ‘धर्म’ के अर्थों का सदा स्मरण आवष्यक है। जो जिसका सहज स्वभाव एवं सहज कर्तव्य
है, वह उसका धर्म। जो समस्त मानवों द्वारा करणीय कर्तव्य हैं, वे हैं सामासिक धर्म
या सामान्य धर्म। फिर, अपनी विषेष स्थिति के अनुरूप करणीय कर्तव्य
हैं अपना विषेष धर्म या स्वधर्म। इस
प्रकार धर्म का एक व्यापक अर्थ है और एक विषिष्ट। व्यापक अर्थ में जो कुछ भी कर्तव्य
है, वह सब धर्म ही है। अतः काम एवं अर्थ भी जहाँ तक करणीय है,
वहाँ तक वे धर्म ही हैं। इसीलिए धर्ममय काम एवं धर्ममय अर्थ ही
साध्य हैं। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- ‘धर्माविरूद्धो
भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ।’ प्राणियों में धर्म का अविरोधी
काम मैं स्वयं हूँ।
यज्ञ:
स्वरूप एवं अर्थ भारतीय दृष्टि को समझने के लिए धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष के साथ सृष्टि-चक्र (यज्ञ) को
समझना भी आवष्यक है। ऋग्वेद में यज्ञ को ‘भुवनस्य नाभिः’
कहा है। पुरूषसूक्त में कहा है- ‘सर्वहुत यज्ञ
से ही वेदों तथा समस्त पदार्थों की उत्पत्ति
हुई। ब्राह्मण ग्रन्थों में से अधिकांष
में यज्ञों का सही स्वरूप विस्तार से वर्णित है। ऐतरेय ब्राह्मण, षतपथ ब्राह्मण जैसे प्राचीन ब्राह्मण ग्रन्थों में यह वर्णन विस्तार और
गहराई तथा स्पष्टता से देखा जा सकता है। उनमें यज्ञ की व्याख्या बहुत ही साफ-साफ
की गई है।
यह सृष्टि मात्र मानवीय षक्ति पर आश्रित नहीं है। मानवीय षाक्ति सृष्टि-प्रक्रिया का एक अंष है। सृष्टि की षाक्तियाँ इससे बहुत विराट हैं, महत् हैं। वे देव-षक्तियाँ हैं। विष्व उन्हीं देव-षक्तियों की विसृष्टि है। अतः मनुष्य भी देव-षक्तियों की ही क्रिया और फल है। देव-षक्तियाँ ही असुर भी हैं। देवत्व और असुरत्व में कोई आत्यन्तिक विभाजन अथवा विरोध नहीं है। ऋत और सत्य से अनुषासित-मर्यादित सामर्थ्य देवत्व है। यह सामर्थ्य जब, जहाँ मर्यादा का उल्लंघन करे तब, वहाँ वह असुरत्व है। षक्ति वही है, अनुशासन और प्रयोजन की भिन्नता से उसका चरित्र भिन्न हो जाता है।
दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है | यह सृष्टि मात्र मानवीय षक्ति पर आश्रित नहीं है। मानवीय षाक्ति सृष्टि-प्रक्रिया का एक अंष है। सृष्टि की षाक्तियाँ इससे बहुत विराट हैं, महत् हैं। वे देव-षक्तियाँ हैं। विष्व उन्हीं देव-षक्तियों की विसृष्टि है। अतः मनुष्य भी देव-षक्तियों की ही क्रिया और फल है। देव-षक्तियाँ ही असुर भी हैं। देवत्व और असुरत्व में कोई आत्यन्तिक विभाजन अथवा विरोध नहीं है। ऋत और सत्य से अनुषासित-मर्यादित सामर्थ्य देवत्व है। यह सामर्थ्य जब, जहाँ मर्यादा का उल्लंघन करे तब, वहाँ वह असुरत्व है। षक्ति वही है, अनुशासन और प्रयोजन की भिन्नता से उसका चरित्र भिन्न हो जाता है।
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