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नन्हकू बाबा(कहानी)

नन्हकू बाबा(कहानी)


           ---:भारतका एक ब्राह्मण.
            संजय कुमार मिश्र"अणु"
         संसर्ग का असर संस्कार पर पडता है और उसका प्रतिबिम्ब व्यवहार पर स्पष्ट परिलक्षित होता है।नन्हकू बाबा का संसर्ग तो बिगडा हुआ था हीं और उसका भी एक वजह यह था कि वे जहां थे उस जगह का कोई भी मूलवासी नहीं था।हर एक कहीं न कहीं से आकर बस गया था।जो पहले से आया वह भी इसी परिपाटी का हो गया।वे एक दूसरे का इज्जत न करते थे समझते थे।उनकी नजरों में सबके सब साढे बाइस पसेरी वाली बात थी।वे लोग रोज नई-नई खोजा करते थे।इसके लिए वे सजधजकर खुब इत्र-फूलेल लगाकर गली गुचे में घुमते रहते।कहीं कोई मिल जाय और काम बने।
           साज श्रृंगार में बाबा तो और तेज होते है।रोज स्नान पूजा तिलक चंदन तो है ही।कपडे भी चकाचक और किमती उपर से गहने की चमक और ठसक अलग से।यह एक आदिम सोंच है कि महिलाएं गहनों को ज्यादा पसंद करती है।बाबा को एक निम्न जाति की छोकरी से आँख लड गई।वह बाबा को इतना भाई की पुछिये मत।बाबा ने मुँह दिखाई में गले का सिक्कड और हाथ की अंगुठी निछावर कर दिया।वह भी तहे दिल से स्वीकार कर ली।लोग उसे सोना कहते हैं----सोना।सोना सचमुच में सोना थी।पर जैसा उसके माता पिता समझते थे वह सो'ना थी।उसे सोना बहुत पसंद था।यहां तक की वह सोने के लिए सोने से भी गुरेज नहीं करती।गरीबी की पीडा बडी जहरीली है।वह अपने को खोकर भी पाना चाहती थी।पर अपने लिए नहीं अपनों के लिए।
                 सोना ने नन्हकू बाबा से कहकर अपने परिवार के लिए दस बीघा जमीन भी दिलवा दी।बाबा रोज-रोज कुछ न कुछ किमती गहने सोना के लिए लाते।वे गहने या तो माँ की होती या तो पत्नी की।घर परिवार में बिरोध होता तो मारपीट होती और बाबा सब ले देकर सोना चाहते रहे केवल सोना।वे सोने के सिवा कुछ जानते ही नहीं थे।जबसे वे सोना के रूप जाल पर मिटे थे तब से वे सब मिटाने पर ही पडे थे।तन-धन-जन सब मिटाने पर।
इसकी चर्चा गली-गली में होती पर बाबा के कारण कोई कुछ कह नहीं पाता और वे मौजमस्ती में मस्त रहते।साथी संगतिया कभी कोई कुछ कहता तो उसे भी ले देकर चुप करवा देते।पर कब तक।एक दिन वह भी आया जब बाबा ने उसे ले भागने का विचार किया।
                      भागने से पहले सोना ने अपनी माँ से कहा....चिंता मत करना।हम जाते जाते तुम्हे अमीर बना देंगें।वह अपनी माँ को खुब गहने देती।सारी कमी पूर्ति करती।सच में सोना के कारण हीं उस घर में सोना बरस रहा था।नन्हकू बाबा के घर की महिलाएं हाय-हाय करती रहती पर बाबा पर कोई असर नहीं।नाक का छुछी तक सब सोना पर लुटा दिया।एक दिन घर से बहुत सारे रूपये लेकर सोना के साथ भाग गये।गांव में चार दिन खुब चर्चा हुई।फिर सब समय के साथ शांत हो गया।
                   अचानक से छः साल बाद बाबा फिर गांव लौटे।खाली बिल्कुल खाली हाथ।घर के लोग थोडे ना नुकुर किये पर क्या करते वे सब सुनते रहे और फिर माफी भी मिल गई।बाबा रहने लगे।समय बीता तो फिर बाबा का वही रंग ढंग।बची हुई संपत्ति को वे रोज- रोज बेचते हीं जाते पर कमी नहीं आने देते।सब खेत एक-एक कर बीक चुका।समय गीरता रहा तो गीरता रहा।भुल से भी उठने का नाम नहीं लिया।जीवन गुजारना भी दुभर लगने लगा।कोई मदद करने को भी तैयार नहीं।उधर पइंचा भी कोई नहीं देता।रूपये पैसे के लिए खलिहान तक बेच दिये और एक दुकान खोली।वह दुकान भी नहीं चला।जो लोग उधार लिये तो दिये नहीं और कुछ तो आकर जरा मुस्कान बिखर देती तो सब माफ।बाबा कुछ जमा थम्हा कर भी समान दे देते।उसी दुकान के समान से घर भी चलता।उँची दुकान फिकी पकवान भला संभव है?दो तीन महिना होते-होते सब खा अचाकर फिट।दुकान उन्हे बंद करनी पडी।महाजन का बोझ वे खांडी बेचकर चुकाया।
                   घर में बेटा पुतोह अब घुसने भी नहीं देता।बेचारे की बडी दुर्गति छा गई।दाने-दाने को मोहताज रहने लगे।गली-गली घर-घर घुसकर माँगने खाने लगे।कुछेक लोग खीला देते तो कुछ लोग दुत्कार भी देते।पर अब नन्हकू पर कोई असर नहीं होता।वे अब सबसे परे उठ गये थे।कहीं किसी से कोई भेद-भाव नहीं पुरा समदर्शी।न कोई लुकाव न कोई छिपाव।यदि कोई रोकता-टोकता तो पुरा दर्शन बघार देते।बाबा का गुण और खुन तो था हीं।किसी को भी अपनी अख्खडपन और फक्कड़पन से समझा देते।आज बच्चे भी उन्हे चिढाते है.."नाम के नन्हकू काम के  बडकू,अंत समया छुटल अकडू।" बाबा सुनते और चले जाते तो बस चले जाते।अज्ञात को तलाशते आसते-आसते।कभी रोते कभी हँसते कभी खाँसते।दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |

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