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आखिर कहाँ जा रहे हैं मजदूर ?

आखिर कहाँ जा रहे हैं मजदूर  ? 

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पत्तों से चाहते हो बजें साज़ की तरह 
पेड़ों से उससे पहले आप उदासी तो लीजिए।।
दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां आज बेहद प्रासंगिक प्रतीत हो रही हैं

सिर पर गठरी, कंधे पर बैग , साथ में पत्नी उसके सर पर एक बोरी नन्हे बच्चे भूख प्यास से पीड़ित , पैरों में छाले पड़े हैं , किसी- किसी के पैरों से खून निकल रहा है बेतहाशा अपने घर की तरफ भागे जा रहे हैं । उन्हें इस बात का भी डर है कि कहीं  पुलिस के डंडे का सामना न करना पड़ जाए। देश के कोने -कोने से रोज भयावह तस्वीरें देखने को मिल रही है l ये प्रवासी मजदूर सेकडों किलोमीटर पैदल चलकर अपने घरों को वापस जा रहे हैं , जान बचाने के लिए । लेकिन इनमें से कई  सड़क हादसों में मारे जा रहे हैं । कभी कोई ट्रक रौंद देता है, कभी ट्रेन से कट जा रहे हैं कुछ भूखे प्यासे मर रहे हैं ।  मुंह पर बंधी धूल से सनी रुमाल हफ्तों से बिना नहाए चिलचिलाती धूप में पैदल चलने वाले प्रवासी मजदूरों की दशा देखकर कौन ऐसा व्यक्ति है जो द्रवित नहीं हो रहा होगा । सुनी आंखों में गहराती उदासी, माथे पर झांकती थकान और रूआंसे मन की व्यथा लिए रोज सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने वाले प्रवासी मजदूरों की कहानी तमाम सरकारी दावों का पोल खोलने के लिए काफी है।
आखिर ऐसी स्थिति पैदा क्यों हुई ? कोरोना महामारी से निपटने के लिए  सरकार ने लॉक डाउन करने का जो फैसला लिया क्या यह फैसला किसी  सर्वदलीय बैठक के बाद लिया गया ? नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं है । लॉक डाउन करने से पहले लॉक डाउन के दौरान पैदा होने वाली विकट परिस्थितियों पर किसी का ध्यान नहीं गया  सरकार  कोरोना बीमारी से बचाने की कवायद में लगी रही । पर करोना से भी खतरनाक स्थिति मजदूरों के सामने भुखमरी के रूप में उत्पन्न हो सकती  है यह विषय अत्यंत गंभीर था जिस पर विचार किया जाना जरूरी था।  सरकार के पास कोई योजना कोई प्लान नहीं था। सरकार संवेदनशील हुई ही नहीं मजदूरों के प्रति । 
मैंने पढ़ा है रूस में कम्युनिज्म आया तो पत्रकार लेनिन से साक्षात्कार लेने के लिए पहुंचे । उस वक्त लेनिन मक्के की रोटी व  साग खा रहे थे । पत्रकारों ने पूछा कि आप राष्ट्राध्यक्ष होकर ऐसा भोजन कर रहे हैं तो लेनिन का जवाब था--
"जब तक हमारे देश की जनता मक्के की रोटी खाएगी तब तक मेरा भी भोजन यही रहेगा"।
गांधी जी से महारानी विक्टोरिया ने कहा था-
आपके पूरे परिवार के लिए मैं बेहतरीन  कपड़े दे सकती हूँ। आप इस प्रकार कम वस्त्रों में न रहें। गांधी जी का जवाब था--
"मेरे देश में जितना वस्त्र उत्पादन होता है उसमें मेरे हिस्से में यही आता है और मैं इसी प्रकार वस्त्र पहनूँगा"।
यहां बात संवेदनशीलता की है। भारत गांवों में बसता है और गरीब मजदूर, किसान, दलित यह भारत का चेहरा है । इन्हें अलहदा करके हम कुछ सोच नहीं सकते  ना ही नये भारत का सपना देख सकते हैं । 
बुद्धिजीवी वर्ग के अलावा आम जनमानस के दिमाग में भी यह प्रश्न चल रहा है कि लॉक डाउन करने से पहले यदि एक हप्ता ,10 दिन के अंदर इन प्रवासी मजदूरों को विशेष ट्रेनों के द्वारा इन्हें इनके घर भेज दिया जाता तो ऐसी विकट स्थिति पैदा नहीं होती । कोरोना संक्रमित मजदूरों की संख्या में इतना इजाफा नहीं होता और ना ही इन्हें 14 दिनों से 21 दिनों तक कोरोनटाईन  होना पड़ता । जब स्थिति बद से बदतर हो गई और मजदूर सड़क पर उतर गए तब सरकार की आंख खुली और इन्हें इन्हें घर वापस भेजने का काम शुरू किया गया । पहले कोरोना पॉजिटिव की संख्या इतनी नहीं थी जितनी तेज रफ्तार में अब है । 
लॉक डाउन में मशीनने बंद हो जाती हैं, काम ठप पड़ जाते हैं पर मनुष्य कोई मशीन नहीं है उसे दैनिक जीवन में सुविधाओं की आवश्यकता होती है । यदि सच कहा जाए तो सरकार के पास इन मजदूरों की घर वापसी  के लिए कोई सुनियोजित कार्यक्रम था ही नहीं या यूं कहें कि उनके भविष्य की कोई चिंता ही नहीं थी जो मजदूर हमारे अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं।
अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की तरफ से कराए गए एक सर्वे के अनुसार इस लॉक डाउन में
• 81% शहरी क्षेत्र में रोजगार समाप्त हो गया है । 
• 57% रोजगार गाँव में समाप्त हो चुका है
• 64% परिवारों का दैनिक व्यय 50% घटा है (अर्थात वो एक           प्रकार से कुपोषण का शिकार हो रहे हैं ।) 
• अर्थशास्त्री प्रणव सेन के अनुसार देश में 18 लाख करोड़ रुपए       की क्षति हो चुकी है इस लॉक डाउन में । 
वित्त मंत्री ने एलान किया है कि सरकार आठ करोड़ प्रवासी मज़दूरों के लिए अगले दो महीने तक खाने का इंतजाम कर रही है । इसके लिए 3500 करोड़ रुपये की राशि का एलान किया । उनके मुताबिक़ राज्य सरकारों से मिले डेटा के आधार पर हमारे यहां 8 करोड़ प्रवासी मज़दूर हैं । 
ये पहला मौक़ा है जब सरकार ने प्रवासी मज़दूरों का कोई आँकड़ा ख़ुद दिया है ।  
सरकार ने एलान किया है की चौथे लॉकडाउन में छूट में कुछ रियायत दी जाएगी । ऐसे में जब फैक्ट्रियों में, खेतों में और घरों में दोबारा से काम करने की इनको इजाजत मिलेगी तो मजदूर कहां से आएंगे  ? अब जब उनके आय का ज़रिया ही नहीं बचा तो ये प्रवासी मज़दूर अपने गाँव वापस लौट रहे हैं  । 
पर मजदूर जो घर वापसी कर रहे हैं वहां उनके लिए राज्य सरकार के पास क्या योजना है ? 
एक कड़वा सच है कि प्रत्येक 5 वर्ष के बाद चुनाव होता है और इन चुनावों में मजदूर, किसान, दलित के वोट पर इनकी नजरें होती हैं। अपने मेनिफेस्टो में सभी राजनीतिक दल इनके कल्याण की बात करतते हैं, बेरोजगारी दूर करने की बात करते है , लेकिन यह बातें वोट तक सीमित है और यह मजदूर  ट्रेनों में ठूंसकर दिल्ली, गुजरात ,पंजाब , महाराष्ट्र जाने को बाध्य हो जाते हैं । यह मजदूरों के लिए कोई नया नहीं है । इनमें कुछ के पूर्वजों ने शहरों में जाकर रिक्शे चलाएं हैं, ठेले खींचे हैं ,पोलदार का काम किया है और आज  यह मजदूर उनकी संताने , उसी परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं। 
कोविड-19 के दुष्प्रभाव की वजह से यह मजदूर वापस आ रहे हैं ,लेकिन एक महत्वपूर्ण बात मैं कहना चाहता हूं कि लॉक डाउन में  सब कुछ बंद है, ये कई दिनों से भूखे हैं , इनके जेब में पैसे नहीं है इसलिए इनका आना लाजमी है,  पर गांव में भी इनका भविष्य कितना सुरक्षित है, यह हम सब जानते हैं । आजादी से लेकर अब तक सरकार के बड़े-बड़े दावों के बावजूद इनकी स्थिति में  कोई सुधार नहीं हुआ । अब इस वैश्विक महामारी की वजह से इनका तत्काल वापस जाना संभव नहीं है और सरकार के पास भी इनके लिए आर्थिक पैकेज की घोषणा करने के अलावा कोई सही रास्ता नहीं दिखाई दे रहा है पर आर्थिक पैकेज से इन्हें राहत दी जा सकती है , इनकी समस्या का समाधान नहीं । यह ऊंट के मुंह में जीरे के समान है । 
ये मजदूर सबसे ज्यादा खेतों में या फिर निर्माण कार्यों में मजदूरी करते हैं । वहाँ काम ना मिला तो फिर घरों और सोसाइटी में मेड और सुरक्षा गार्ड को तौर पर काम करते हैं । इसके आलावा एक बड़ा वर्ग कारखानों में भी काम करता है । हरियाणा और पंजाब में खेतों में बुआई का काम शुरू होने वाला है और वहाँ के खेतों में काम करने वाले ज्यादातर मजदूर अपने घर लौट चुके हैं । लेकिन किसानों को इसके लिए मजदूर नहीं मिल रहे ।  ऐसे में आने वाले दिनों में बड़ा संकट खेती पर आने वाला है जिसका सीधा असर अनाज की पैदावार पर पड़ेगा । 
एक आंकड़े के मुताबिक दिल्ली (NCR) में ऐसे मजदूरों की संख्या तकरीबन 25 फीसदी के आस-पास है जिन पर दिल्ली जिंदा है।आप दिल्ली (NCR) की जनसंख्या 2 करोड़ के आस पास मान लें तो तकरीबन 45 से 50 लाख लोग मजदूरी के काम में लगे हैं । इनमें से आधे यानी 25 लाख लोग भी घर वापस चले गए गए तो दिल्ली का क्या होगा ? क्योंकि दिल्ली के विकास में यह मजदूर अनेक वर्षों से भागीदार हैं ।
 उत्तर प्रदेश और बिहार से प्रवासी मजदूर देश के दूसरे राज्यों में सबसे ज्यादा जाते हैं. फिर नंबर आता है मध्य प्रदेश, ओडिशा और झारखंड । जिन राज्यों में ये काम की तलाश में जाते हैं उनमें से सबसे आगे है दिल्ली-एनसीआर और महाराष्ट्र. इसके बाद नंबर आता है गुजरात, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और पंजाब का। 
यह मजदूर अपने गृह राज्यों में अब पहुंचने लगे हैं । 14 दिनों की कोरोनटाईन के बाद अभी उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से  स्थिर होने में समय लगेगा । सरकार के द्वारा दी जाने वाली  राशन सामग्री , आर्थिक मदद से वे कुछ दिनों तक जी लेंगे पर कुछ अंतराल के बाद क्या राज्य सरकारें उनकी बेरोजगारी को दूर करने के लिए क्या उन्हें कोई सम्मानजनक काम दे पाएगी ?  
क्या राज्य सरकार के पास कोई योजना है ? 
या यह मजदूर कुछ अंतराल के बाद  फिर महानगरों को जाने के लिए बाध्य होंगे ? 
एक यक्ष प्रश्न यह भी है कि क्या केंद्र सरकार इन मजदूरों के घर वापसी के बाद अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ कर पाएगी ? क्योंकि ये मजदूर अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं
केंद्र सरकार और राज्य सरकार के लिए दोनों के लिए यह घोर चिंतन का विषय है ।  

-- वेद प्रकाश तिवारी
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