हिन्दी-साहित्य-द्विवेदी युग प्रवर्तक- आचार्य
महावीर प्रसाद द्विवेदी
- योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे. पी. मिश्र)
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदीजी ने
खड़ी बोली में गद्य-पद्य में इक्यासी रचनाएं कर न केवल हिन्दी-साहित्य को समृद्ध
किया वरन् जागरण-सुधार-काल, के प्रवर्तक के रूप में हिन्दी रचनाकारों को शुद्ध हिन्दी
लिखने के लिए प्रोत्साहित भी किया। वे हिन्दी साहित्य की वाग्वर्द्धिनी पत्रिका -
सरस्वती के सन् 1903 से 1920 तक - लगातार 17 वर्षोंं तक संपादक रहे। वह भी उस स्थिति में जबकि 1904 मेंं रेलवे की 200 रुपये प्रतिमाह की उस समय की बड़ी नौकरी छोड़़ कर मात्र 20 रुपये प्रतिमाह पर ही सरस्वती के संपादन में लगे रहे।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का उत्तर प्रदेश के (बैसवारा) रायबरेली जिले के
दौलतपुर गांव में बैशाख शुक्ल चतुर्थी, संवत् 1927, तद्नुसार 15 मई, 1864 ई. (संदर्भ विकीपीडिया) को जन्म हुआ और पौष कृष्ण 30,
संवत् 1995, तदनुसार 21 दिसम्बर, सन् 1938 ई. को रायबरेली में ही निधन हुआ।
धनाभाव के कारण इनकी शिक्षा का क्रम अधिक समय तक न चल सका। इन्हें जी आई पी
रेलवे में नौकरी मिल गई। 25 वर्ष की आयु में रेल विभाग अजमेर में 1 वर्ष का प्रवास किया, फिर नौकरी छोड़ कर पिता के पास मुंबई में टेलीग्राफ का काम सीखकर इंडियन मिडलैंड रेलवे में तार बाबू के रूप में
नियुक्त हुए। पर, अपने उच्चाधिकारी से न पटने और स्वाभिमानी स्वभाव के होने
के कारण 1904 में झाँसी में रेल विभाग की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।
वैसे,
नौकरी के साथ-साथ द्विवेदीजी अध्ययन में भी जुटे रहे और
हिंदी के अतिरिक्त मराठी, गुजराती, संस्कृत आदि का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदीजी हिन्दी के महान साहित्यकार, पत्रकार एवं युगप्रवर्तक थे। उन्होने हिंदी साहित्य की अविस्मरणीय सेवा की और अपने युग की साहित्यिक और
सांस्कृतिक चेतना को दिशा और दृष्टि प्रदान की। उनके इस अतुलनीय योगदान के कारण
आधुनिक हिंदी साहित्य का दूसरा युग 'द्विवेदी-युग' के (1900–1920)
के नाम से जाना जाता है। भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को गति
व दिशा देने में भी उनका उल्लेखनीय योगदान रहा।
हिन्दी के महान लेखक व पत्रकार थे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवदी !
रेल की नौकरी करते हुए ही सन् 1903 में द्विवेदी जी ने सरस्वती मासिक पत्रिका के संपादन में अपना योगदान दिया,
पर, 1904 में नौकरी से त्यागपत्र देने के पश्चात स्थायी रूप से वे 'सरस्वती'के संपादन कार्य में लग गये। संपादन-कार्य से अवकाश
प्राप्त कर द्विवेदी जी अपने गाँव चले आए। अत्यधिक रुग्ण होने से इनका स्वर्गवास
हो गया।
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी हिन्दी के पहले लेखक थे,
जिन्होंने केवल अपनी जातीय परंपरा का गहन अध्ययन ही नहीं
किया था,
बल्कि उसे आलोचकीय दृष्टि से भी देखा था। उन्होंने अनेक
विधाओं में रचना की। कविता, कहानी, आलोचना, पुस्तक समीक्षा, अनुवाद, जीवनी आदि विधाओं के साथ उन्होंने अर्थशास्त्र, विज्ञान, इतिहास आदि अन्य अनुशासनों में न सिर्फ विपुल मात्रा में लिखा,
बल्कि अन्य लेखकों को भी इस दिशा में लेखन के लिए प्रेरित
किया। द्विवेदी जी केवल कविता, कहानी, आलोचना आदि को ही साहित्य मानने के विरुद्ध थे। वे अर्थशास्त्र,
इतिहास, पुरातत्व, समाजशास्त्र आदि विषयों को भी साहित्य के ही दायरे में रखते
थे। वस्तुतः स्वाधीनता, स्वदेशी और स्वावलंबन को गति देने वाले ज्ञान-विज्ञान के
तमाम आधारों को वे आंदोलित करना चाहते थे। इस कार्य के लिये उन्होंने सिर्फ उपदेश
नहीं दिया, बल्कि मनसा, वाचा,
कर्मणा स्वयं लिखकर दिखाया।
उन्होंने वेदों से लेकर पंडितराज जगन्नाथ तक के संस्कृत-साहित्य की निरंतर प्रवहमान धारा का अवगाहन
किया था एवं उपयोगिता तथा कलात्मक योगदान के प्रति एक वैज्ञानिक दृष्टि अपनायी थी।
उन्होंने श्रीहर्ष के संस्कृत महाकाव्य नैषधीयचरितम् पर अपनी पहली आलोचना पुस्तक 'नैषधचरित चर्चा ' 1899 में लिखी , जो संस्कृत-साहित्य पर हिन्दी में पहली आलोचना- पुस्तक भी
है। फिर उन्होंने लगातार संस्कृत- साहित्य का अन्वेषण,
विवेचन और मूल्यांकन किया। उन्होंने संस्कृत के कुछ
महाकाव्यों के हिन्दी में औपन्यासिक रूपांतर भी किये,
जिनमें कालिदास कृत रघुवंश, कुमारसंभव, मेघदूत , किरातार्जुनीय प्रमुख हैं।
संस्कृत, ब्रजभाषा और खड़ी बोली में स्फुट काव्य- रचना से साहित्य-साधना का आरंभ करने वाले
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने संस्कृत और अंग्रेजी से क्रमश: ब्रजभाषा और हिन्दी में
अनुवाद-कार्य के अलावा प्रभूत समालोचनात्मक लेखन किया। उनकी मौलिक पुस्तकों में नाट्यशास्त्र (1904 ई.), विक्रमांकदेव चरितचर्या (1907 ई.), हिन्दी भाषा की उत्पत्ति (1907 ई.) और संपत्तिशास्त्र (1907 ई.) प्रमुख हैं तथा अनूदित पुस्तकों में शिक्षा (हर्बर्ट
स्पेंसर के 'एजुकेशन' का अनुवाद), 1906 ई. और स्वाधीनता (जान, स्टुअर्ट मिल के 'ऑन लिबर्टी' का अनुवाद), 1907 ई. है।
द्विवेदी जी ने विस्तृत रूप में साहित्य रचना की। इनके पद्य के मौलिक-ग्रंथों
में काव्य-मंजूषा, कविता कलाप, देवी-स्तुति, शतक आदि प्रमुख हैं। गंगालहरी, ॠतु तरंगिणी, कुमार संभव सार आदि इनके अनूदित पद्य-ग्रंथ हैं।
गद्य के मौलिक ग्रंथों में तरुणोपदेश, नैषध चरित्र चर्चा, हिंदी कालिदास की समालोचना, नाट्य शास्त्र, हिंदी भाषा की उत्पत्ति, कालीदास की निरंकुशता आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
अनुवादों में वेकन विचार, रत्नावली, हिंदी महाभारत, वेणी संसार आदि प्रमुख हैं।
हिंदी भाषा के प्रसार, पाठकों के रुचि परिष्कार और ज्ञानवर्धन के लिए द्विवेदी जी
ने विविध विषयों पर अनेक निबंध लिखे।
द्विवेदी जी सरल और सुबोध भाषा लिखने के पक्षपाती थे। उन्होंने स्वयं सरल और
प्रचलित भाषा को अपनाया। उनकी भाषा में न तो संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता है
और न उर्दू-फारसी के अप्रचलित शब्दों की भरमार है वे गृह के स्थान पर घर और उच्च
के स्थान पर ऊँचा लिखना अधिक पसंद करते थे। द्विवेदी जी ने अपनी भाषा में उर्दू और
फारसी के शब्दों का निस्संकोच प्रयोग किया, किंतु इस प्रयोग में उन्होंने केवल प्रचलित शब्दों को ही
अपनाया। द्विवेदी जी की भाषा का रूप पूर्णतः स्थित है। वह शुद्ध परिष्कृत और
व्याकरण के नियमों से बंधी हुई है। उनका वाक्य-विन्यास हिंदी की प्रकृति के अनुरूप
है,
कहीं भी वह अंग्रेज़ी या उर्दू के ढंग का नहीं।
द्विवेदी जी ने नये-नये विषयों पर लेखनी चलाई। विषय नये और प्रारंभिक होने के
कारण द्विवेदी जी ने उनका परिचय सरल और सुबोध शैली में कराया। ऐसे विषयों पर लेख
लिखते समय द्विवेदी जी ने एक शिक्षक की भांति एक बात को कई बार दुहराया है ताकि
पाठकों की समझ में वह भली प्रकार आ जाए। इस प्रकार लेखों की शैली परिचयात्मक शैली
है।
हिंदी साहित्य की सेवा करने वालों में द्विवेदी जी का विशेष स्थान है।
द्विवेदी जी की अनुपम साहित्य- सेवाओं के कारण ही उनके समय को द्विवेदी- युग के नाम से पुकारा जाता है।
भारतेंदु युग में लेखकों की दृष्टि शुद्धता की ओर नहीं रही। भाषा में
व्याकरण के नियमों तथा विराम- चिह्नों आदि की कोई परवाह नहीं की जाती थी। भाषा में
आशा किया,
इच्छा किया जैसे प्रयोग दिखाई पड़ते थे। द्विवेदी जी ने
भाषा के इस स्वरूप को देखा और शुद्ध करने का संकल्प लिया। उन्होंने इन अशुध्दियों
की ओर लेखकों का ध्यान आकर्षित किया और उन्हें शुद्ध तथा परिमार्जित भाषा लिखने की
प्रेरणा दी।
द्विवेदी जी ने कविता के लिए खड़ी बोली के विकास का कार्य किया। उन्होंने स्वयं भी खड़ी बोली में
कविताएं लिखीं और अन्य कवियों को भी उत्साहित किया। श्री मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' जैसे खड़ी बोली के श्रेष्ठ कवि उन्हीं के प्रयत्नों के
परिणाम हैं।
द्विवेदी जी ने नये-नये विषयों से हिंदी साहित्य को संपन्न बनाया। उन्हीं के
प्रयासों से हिंदी में अन्य भाषाओं के ग्रंथों के अनुवाद हुए तथा हिंदी-संस्कृत के
कवियों पर आलोचनात्मक निबंध लिखे गए।
उनके लेखन के बारे में प्रख्यात हिन्दी साहित्यकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कलम
चलाते हैं कि 'कहने की आवश्यकता नहीं कि द्विवेदीजी के लेख या निबंध विचारात्मक श्रेणी में
आयेंगे। पर विचार की वह गूढ़ गुंफित परंपरा उनमें नहीं मिलती जिससे पाठक की बुद्धि
उत्तेजित होकर किसी नई विचार- पद्धति की ओर दौड़ पड़े। शूद्ध विचारात्मक निबंधों का
चरम उत्कर्ष ही कहा जा सकता है जहाँ एक पैराग्राफ में विचार दबा-दबाकर कसे गये हों
और एक-एक वाक्य किसी संबद्ध विचार खण्ड के लिए हो। द्विवेदीजी के लेखों को पढ़ने से
ऐसा जान पड़ता है कि लेखक बहुत मोटी अक्ल के पाठकों के लिए लिख रहा है। एक-एक सीधी
बात कुछ हेरफेर - कहीं-कहीं केवल शब्दों के ही साथ- पांच-छह वाक्यों में कही हुई
मिलती है। उनकी यह प्रवृत्ति उनकी गद्यशैली निर्धारित करती है।'
इनके योगदान का स्मरण करते हुए डा. रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक 'महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण'
में द्विवेदी जी के गद्य साहित्य को आधुनिक हिंदी साहित्य
का ज्ञानकांड कहा है।
वहीं , मैथिलीशरण गुप्त ने एक जगह श्लेष शैली में द्विवेदी जी की प्रशंसा निम्न शब्दों में की है –
’
’ 'करते तुलसीदास भी कैसे मानस नाद। महावीर का यदि उन्हें
मिलता नहीं प्रसाद।।' अर्थात् जैसे तुलसीदासजी ने महावीर हनुमानजी की कृपा से ’रामचरितमानस’ की रचना की, वैसे ही गुप्त ने महावीर प्रसाद द्विवेदी की कृपा से ’साकेत’ की रचना की।"
हिन्दी साहित्य में महावीर प्रसाद द्विवेदी का मूल्यांकन तत्कालीन
परिस्थितियों के सन्दर्भ में ही किया जा सकता है। वह समय हिन्दी के कलात्मक विकास
का नहीं,
हिन्दी के अभावों की पूर्ति का था। इन्होंने ज्ञान के विविध
क्षेत्रों- इतिहास, अर्थशास्त्र, विज्ञान, पुरातत्त्व, चिकित्सा, राजनीति, जीवनी आदि से सामग्री लेकर हिन्दी के अभावों की पूर्ति की।
हिन्दी गद्य को माँजने-सँवारने और परिष्कृत करने में यह आजीवन संलग्न रहे। यहाँ तक
की इन्होंने अपना भी परिष्कार किया। हिन्दी गद्य और पद्य की भाषा एक करने के लिए
(खड़ीबोली के प्रचार-प्रसार के लिए) प्रबल आन्दोलन किया। हिन्दी गद्य की अनेक
विधाओं को समुन्नत किया। इसके लिए इनको अंग्रेज़ी, मराठी, गुजराती और बंगला आदि भाषाओं में प्रकाशित श्रेष्ठ कृतियों
का बराबर अनुशीलन करना पड़ता था। निबन्धकार, आलोचक, अनुवादक और सम्पादक के रूप में इन्होंने अपना पथ स्वयं
प्रशस्त किया था।
हिन्दी साहित्य की युग परिवर्तनकारी सेवा के लिए उनकी प्रशस्ति में भारत सरकार
के डाक विभाग ने 0.15 पैसे का एक डाक टिकट भी जारी किया,
जो विशिष्ट योगदान के लिए ही किया जाता है।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदीजी के जीवन की उपलब्धि उनके अपने प्रयास से ही
हुई और सामने आए किसी व्यवधान के आगे उन्होंने घुटना नहीं टेका। उनकी भावनाओं को
जताती 'प्यारा वतन' की ये पंक्तियां स्वत: स्पष्ट हैं -
'कच्चा घर जो छोटा सा था,
पक्के महलों से अच्छा था।
पेड़ नीम का दरवाजे पर,
सायबान से बेहतर था।'
युग-प्रवर्तक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी को शत-शत नमन! हमें उनकी
साहित्य-सेवा से सीख लेनी चाहिए!
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योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे. पी. मिश्र),अर्थमंत्री-सह-कार्यक्रम-संयोजक,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन, कदमकुआं, पटना-800003.निवास : मीनालय, केसरीनगर, पटना 800 024.
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