रिश्ता नींदों से टूट गया
सत्येन्द्र तिवारी लखनऊ
दिन गुजर रहे हैं आवारा
रातें कटती पलकों पलकों
साथी अंधियारा उजियारा
छुपता रहता प्रहरों प्रहारों ।
उम्मीदें चहकी भोर देख,
फिर सूर्यमुखी हो गई लगन
हर सांझ नदी के तट आकर,
चाहत नित धोती रहे थकन
लौटे निराश ज्यों मछुआरा,
जुझा हरा लहरों लहरों।
जानी अनजानी रहो पर,
पग अपना बोझ लिए घूमें
गुमसुम होकर पागल पल छिन
सांसों में उलझ उलझ झुमें
सुधि कथरी को मन बंजारा,
खोले मूंदे। परतों परतों।
रिश्ता नींदों से टूट गया,
रत जगा करें प्यासे रिश्ते
युग चक्की में दो पाटों की,
खो रहे रूप घिसते घिसते
मुट्ठी भर दानों सी खुशियां,
फिसली बिखरी सरसों सरसों।
बेचैन अधर पर तपन लिऐ,
लहरों से बनी रही दूरी
मधु गंध धड़कनों में बसकर,
माह मह महकी ज्यों कस्तूरी
मरू धारा में मन मृग हरा,
क्या खोज रहा लहरों लहरों।
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सत्येन्द्र तिवारी लखनऊ
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