कैसी दिल्ली क्रूर है
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पथ में बहता खून-पसीना
उसको सब मंजूर है
अपनी बात सुनाता हरदम
सुनता नहीं हुज़ूर है
मन में स्वप्न सुनहरे लेकर
छोड़ा अपना गाँव-गली
घर से शहर कमाने निकले
संग-संग चल दी 'रामकली'
किसी तरह जब मिला ठिकाना
मन है प्रसन्न परदेश में
लुटी रात भर कली-कली थी
इज्ज़त पल में गई चली
मन को मारे सोच रहे थे
कैसी दिल्ली क्रूर है
गंदी-बस्ती झोपड़-पट्टी
उनका था बना ठिकाना
खलता था उस झोपड़िया में
धूप-हवा का ना आना
याद सताती गाँव गली की
मन को नित भावुक करती
रोज़ शाम ठर्रा के संग में
बेसुध होकर सो जाना
बचा न पाये फूटी कौड़ी
चकाचौंध भरपूर है
आया बिषम समय है अब तो
बेचैनी बढ़ती जाये
काम -धाम सब बंद देखकर
नयनों में बादल छाये
हाथ खड़े कर दिये सभी ने
सपने चकनाचूर हुये
चलते-चलते किसी तरह से
लौट के बुद्धू घर आये
सुनता खाली आश्वासन के
बजता ढ़ोल जरूर है
ठान लिया है मन में अब तो
कभी न वापस जायेंगे
रूखी सूखी जो भी होगी
अपने घर में खायेंगे
मूर्ख बनाया बहुत दिनों तक
किन्तु समझ अब पाये हैं
देख लिया करतूत तुम्हारी
तुमको भी दिख लायेंगे
हमने मानी बात तुम्हारी
अपना यही कसूर है
पथ में बहता खून-पसीना
उसको सब मंजूर है
अपनी बात सुनाता हरदम
सुनता नहीं हुज़ूर है
~जयराम जय
पर्णिका,बी-11/1,कृष्ण विहार,
कल्याणपुर,कानपुर-208017(उ.प्र.)
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