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दीर्घजीवी होना अभिशाप नहीं!

दीर्घजीवी होना अभिशाप नहीं!

    - योगेन्द्र प्रसाद मिश्र  (जे. पी. मिश्र)

भीड़ भरे बस में ठूस-ठाँस के चढ़ता हूँ,
खाली सीट नहीं, मन ही मन कुढ़ता हूँ;
अपने को बेसहारा पाकर भी चिढ़ता हूँ-
पुरानी बातें पाने को अब तो तरसता हूँ;
ऐसे में कोई संस्कारी खड़ा हो जाता है
और अपनी सीट पर मुझे बिठाता है;
पर, मैं मन से खुश नहीं हो पाता हूँ-
क्योंकि, खुद को मैं बेचारा पाता हूँ!

महिला-सीट पर कभी जा बैठता-
दाबी जताने पर, बगलें झांकता ;
तब बगल-बैठी दया दिखाती है,
अपने दरियादिली पर इतराती है;
कहती छोड़ो भी इन्हें बैठे रहने दो,
कह, अपना बड़प्पन भी जताती है!
पर, मैं मन से खुश नहीं हो पाता हूँ-
क्योंकि, खुद को मैं बेचारा पाता हूँ!

खाने-पीने का मुझे शौक नहीं-
पर, सबका साथ  निभाता हूँ;
पर, खाने में साथ न दे पाता,
 हर कौर में पिछड़ता जाता हूँ;
औरों का साथ छोड़ नहीं पाता-
सब साथ ही हाथ धो लेता हूँ;
पर, मैं भर पेट कहाँ खा पाता हूँ,
और,  खुद को मैं बेचारा पाता हूँ!

जीवन मेरा है नदी प्रवाह-सा-
राह रोके को हटा बहाता हूँ;
नित नई राह भी बनाता रहता-
जन-जन की प्यास बुझाता हूँ;
'स्व' भूल परमार्थ में जीता हूँ-
हर दौड़ में मैं साथ हो लेता हूँ;
मन मार मैं दम नहीं हारता हूँ-
मन बूढ़ा कहाँ, बूढ़ा कहाता हूँ! 

जानें कितने आस लिए बैठे हैं-
उम्र-बल पर अकड़े वे ऐंठे हैं;
आस  लगाए हैं, बस हटने की-
स्वार्थ में आंख मूंद पड़े लेटे हैं;
जबतक सांस है, आस भी है-
कुछ करते रहने की चाह भी है;
न जाने कौन बूढ़ा क्या दे जाये-
 सूर, तुलसी सम भी कहला जाये;
पर, सहारा लेने कहीं न मैं जाता हूँ-
क्योंकि, खुद को बेचारा पाता हूँ! 

सौ वर्ष जीने की चाह किसे नहीं, 
सुनने, बोलने की राह सही रखूँ;
आंखों से अग जग मैं देखता रहूँ-
दीनता डर की मैं न परवाह करूँ;
सौ शरद पार करूं, पार भी जाऊँ-
कर्म करते रहने का मैं तो मारा हूँ;
मन बरबस तब मुझसे ही है पूछता-
क्या मैं बूढ़ा हूँ, क्या मैं बेचारा हूँ?

कर्म करना है जो करता रहता हूँ-
पर कर्म करने को भी न मरता हूँ;
जीवन जीने को कार्यरत रहना ही-
आर्ष वाक्य यह शाश्वतरा सारा है;
दीर्घजीवी होना है अभिशाप नहीं-
और, न कहो यह बूढ़ा है, बेचारा है!
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