बेच जा के तरकारी("मगही कविता ")
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ना ह शिक्षक सरकारी तो
बेच जा के तरकारी।
रोक ल अप्पन ज्ञान के गंगा
मन चंगा तो कठौती गंगा,
आॅन लाइन के राग न गाव
के करतो अब माथामारी।
ना ह शिक्षक सरकारी तो
बेच जा के तरकारी।
पढ़ल लिखल मजदूर बेचारा
हे ईश्वर अब तोरे सहारा,
मालिक से ना टेर लगाव
कोरोना तोरा ला भारी।
ना ह शिक्षक सरकारी तो
बेच जा के तरकारी।
नियम नियम हे सबके लागी
शिक्षक कब से हे बड़भागी,
ना पढ़ाई तो पइसा कइसन
ना देतो अब कोई उधारी।
ना ह शिक्षक सरकारी तो
बेच जा के तरकारी।
मोबाइल से कर पढ़ाई
कइसन झूठ हे माई गे माई,
लइकन दिन भर सूत रहल हे
तंग हो गेलन बाप मतारी।
ना ह शिक्षक सरकारी तो
बेच जा के तरकारी।
रजनीकांत।
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