१११वीं जयंती ( ५ जून) पर विशेष
'प्रकृति-राग' के कृतात्मा कवि थे कलक्टर सिंह'केसरी':- डा अनिल सुलभ

केसरी जी का जन्म भोजपुर ज़िला के मुख्यालय नगर आरा से सटे गंगा-दियारा के नैसर्गिक सुषमा से भरे सुरम्य ग्राम 'बडहरा-एकवना' में ५ जून १९०९ को हुआ था। देव-नदी गंगा का विशाल गात्र और उसके रमणीक कूलों पर विस्तृत निसर्ग के शश्य-श्यामल इंद्रधनुषी मोहक रूप ने केसरी जी के बाल-मन को 'कविता' प्रदान की। वह कोमल-मन जो प्रकृति के उन मुग्धकारी छवि से काव्य-प्रतिभा की प्रच्छन्न रश्मियाँ पा रहा था, हृदय के कही गहरे अंतर में स्थित प्रेम-घट को मृदु-भावों से भर रहा था। 'कविता-सुंदरी' बाल-केसरी के सुप्रिय मुखारविंद को अपने कोमलकरों से सहलाने लगी थी। खिले खेत-खलिहानों और निसर्ग की विपुल हरीतिमा के अनंत विस्तार ने बालक कलक्टर के सूक्ष्म मन में कवित्व का बीज कब बो गया, उसे पता भी न चला! गाँव की अमराइयों और पगडंडियों का सौंदर्य उन्हें खींचता और वे अकेले ही खोए-खोए उनमे भटकते फिरते। निसर्ग के इसी आकर्षण ने केसरी जी को, 'प्रकृति का अमर गायक' बना दिया और साहित्य-संसार ने उन्हें 'प्रकृति-राग के महान कवि' के रूप में महनीय स्थान दिया।
उनकी प्रथम काव्य-कृति 'मराली' सन १९३९ में प्रकाशित हुई, जिसमें संग्रहित ५० कविताओं ने केसरी जी को न केवल काव्य-जगत से उनका गहरा परिचय कराया, बल्कि समकालीन कवियों में अग्र-पांक्तेय भी बना दिया। वे अल्प-काल में ही काव्य-मंचों की शोभा बन गए। साहित्य,शिक्षा, संस्कृति तथा अन्य सामाजिक सरोकारों से उनके जुड़ाव ने, उन्हें लोकप्रियता तो प्रदान कर दी, किंतु सृजन के लिए अवकाश भी कम कर दिया। परिणामतः अगले काव्य-संग्रह 'कदंब' के प्रकाश में आने में लगभग १५ वर्ष लग गए। इसका प्रकाशन १९५४ में हुआ था। उनकी अन्य कृतियाँ; 'परिचयहीन' (१९७६), सीता-चरित्र (खण्ड-काव्य), 'अक्षर-पुरुष', 'संस्मरण', 'सफल जीवन की झाँकियाँ', 'आम-महुआ', 'बाबा की दाढ़ी' तथा 'बरगद का पेड़' (अंतिम तीनों बाल-साहित्य) साहित्य-संसार को दिया गया उनका बहुमूल्य अवदान हैं। उनके मरणोपरांत उनके पुत्र श्री सुरेंद्रनाथ सिंह (पूर्व कुलपति, वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा) के भगीरथ प्रयास से उनके समग्र 'केसरी-ग्रंथावली' का भी प्रकाशन हुआ, जिसमें उनकी उपरोक्त कृतियों के अतिरिक्त उनकी अन्य अप्रकाशित रचनाओं को सम्मिलित किया गया, जिनमे उनके अनेक चिर-स्मरणीय निबंध, ललित निबंध और 'डायरी के पन्ने' भी सम्मिलित हैं।
केसरी जी उन समादरणीय कवियों में परिगणित होते हैं, जो छायावाद के शीर्ष-काल में पल्लवित-पोषित होकर उत्तर-छायावाद में भासित होते हैं, जहाँ प्रयोग-वाद और प्रगतिवाद भी स्थान बना रहा होता है। उनका काव्य-शिल्प, इन दोनों ही कालों के मिलन-बिंदु-सा श्रवण-सुख प्रदान करता है। इसीलिए उनके गीतों में दोनों ही कालों की मृदुल झंकार सुनाई देती हैं। कवि का मूल स्वर प्रेम और प्रकृति का मधुर-राग ही है। भले ही उनका उपनाम 'केसरी' हो, पर उनकी कविताओं में, 'केसरी' का गर्जन-तर्जन नही अपितु 'कोयल की हृदय-स्पर्शी मीठी कूक-हूक' सुनाई देती है। आरंभ में वे 'कमल' उपनाम से लिखा करते थे। बाद में 'दिनकर जी की प्रेरणा से 'केसरी' उपनाम कर लिया। अपनी मृत्यु के दो महीने पूर्व ही, अपनी काव्य-यात्रा को शब्द देते हुए उन्होंने स्वयं ही 'दिनकर' जी की चर्चा करते हुए लिखा कि - “ राष्ट्रकवि दिनकर सहपाठी थे। दबंग आदमी थे वे। एक दिन उन्होंने कहा- अरे! कलक्टर साहेब! कमल, विमल जैसे टलमल उपनाम मुझे पसंद नही ! कोई दूसरा उपनाम क्यों नही चुन लेते ! इस तरह (दिनकर जी की प्रेरणा से) 'कमल' की जगह 'केसरी' ने ले ली। कवि-शार्दुल 'दिनकर' दहाड़ते थे, और शायद उनकी राय में 'केसरी' उपनाम के अनुरूप मुझे भी दहाड़ना चाहिए था। मेरी कोमल, करुण पंक्तियों को सुनकर वे ख़ुश होते थे ज़रूर, किंतु व्यंग्य भरे लहजे में कहते- “तुम तो कोकिल की तरह कूकते हो! भाई! तुम 'केसरी' तो हुए, किंतु हुए घास खाने वाले!”
केसरी जी 'प्रकृति के मनोहारी सौंदर्य और प्रेम की साधना' के पथ पर आगे बढ़ते हैं। प्रेम की उस भोली कच्ची पगडंडी पर कुलाँचे भर कर , जिसमें घास की कोमल पत्तियाँ, तो कहीं स्नेह के ओंस-बिंदु, तो कहीं कँटीली झाड़ियाँ भी है, उन्होंने समर्पण और उत्सर्ग का वह महान आर्द्रभाव प्राप्त किया, जो हर वस्तु और भाव को आनंदप्रद और मंजुल बना देता है। उनके प्रथम काव्य-संग्रह 'मराली' की शीर्षक कविता 'मराली' की ये पंक्तियाँ उनके प्रकृति-राग और प्रेम का मोहक चित्रण प्रस्तुत करती हैं;-
“युग-युग से उर्मिल मानस के मोती चुगने वाली!
ओ तुम चिर-संगिनी शारदा की, ओ मंजु मराली!
तुम जानती, उगी इस रेती में कैसे हरियाली!
कैसे बना दीन मैं इस मोती-मधुवन का माली!
एक अमर यह तत्त्व- जिसे ज्ञानी कहते नादानी!
एक अमर यह तत्त्व यही मेरे मोती का पानी !”
इसी संग्रह की एक अन्य कविता 'कुहू-केका' में कवि ने प्रेम के उस उदात्त भाव को शब्द दिए हैं, जो जीवन का सारभूत तत्त्व है;-
“मैं नाचूँगा उन्मुक्त पवन-सा वन-वन की हरियाली में!
मैं भौरों-सा गुंजार करूँगा, हिय-हिय की मधु-प्याली में !
कोमल का मादक विरह-गान,वनफूलों की मुस्कान लिए!
मन फूट खिलूँगा नव वसंत-सा, जग की डाली-डाली में !”
केसरी जी 'अंग्रेज़ी' के विद्यार्थी और शिक्षक थे, किंतु राष्ट्रभाषा हिन्दी और अपनी कुलभाषा 'भोजपुरी' की अनन्य सेवा की। भोजपुरी में भी उन्होंने अनेक लोकप्रिय गीत लिखे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर लिखी उनकी यह रचना- 'बापू' , संपूर्ण भोजपुरी अंचल सहित हिन्दी पट्टी में भी देश-प्रेमी काव्य-रसिकों की कंठ-हार बनी रही;-
“कइसे मानी हम जोत चान-सूरज के उतरल माटी में!
कइसे मानी भगवान समागइलन मानुस के काठी में!
जर गइल फिरंगिनि के लंका, बाज़लि आज़ादी के डंका!
अइसन अंगिया बैताल जगवलन कइसे एक लुकाठी में!”
केसरी जी के प्रकृति-राग में आँचलिक-बोध और ग्राम्य-अंचल की पीड़ा भी है। उनके कवि का अधिवास कल्पनाओं के नीरा स्वप्नलोक में नही है, वे ग्रामीण-समाज की समस्याओं और संघर्ष में भी अपना करुण भावावास देखते हैं। वे तन-मन के संताप झेल रही ग्रामीण स्त्रियों और दलितों-शोषितों की पीड़ाओं की भी अत्यंत मार्मिक चित्रण करते हैं;-
“ देव, पेट की भूख जहाँ रे! वहाँ जिगर की भूख न देना!
जलने को जो बनी चकोरी, उसको चंद्र-मयुख न देना!
कठिन ग़रीबी की दुनिया, मायूसी के जीवन की आहें!
रही सिसकती ही कितनी, मन की मेरे मन ही में चाहें!
बेटा! बेटा! आह! न जीवन में जीभर बेटा कह पाई!
हाय न मुझ माँ की गोदी के दूध-पूत की साध अघाई!”
केसरी जी ने हिन्दी गद्य साहित्य को भी अपनी विपुल प्रतिभा से आप्यायित किया। 'अक्षर-पुरुष' में उन्होंने अपने मनीषी अग्रज साहित्यकारों के प्रति अत्यंत भाव-पूर्ण श्रद्धांजलि दी है। आचार्य शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी, आचार्य नलिन विलोचन शर्मा, राज राधिका रमण प्रसाद सिंह, डा लक्ष्मी नारायण 'सुधांशु' तथा दिनकर समेत हिन्दी के १० अक्षर-पुरुषों पर उनके विद्वतापूर्ण तर्पण-आलेख हृदय में संग्रहणीय है। उसी प्रकार 'संस्मरण' में उन्होंने महात्मा गांधी, संत विनोबा भावे, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, पं जनार्दन झा 'द्विज' तथा राम रीझन रसूलपुरी जी के साथ अपने अविस्मरणीय क्षणों को रेखांकित किया है।
उनके निबंध भी काव्य-रस से युक्त ज्ञान के सार प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने अवतारी संत रामकृष्ण परमहंस, कवि-कोकिल विद्यापति, तुलसीदास,शकुंतला, बर्नाड शा, थौमस हार्डी तथा मदर टेरेसा जैसी विभूतियों पर भी संग्रहणीय निबंध लिखे। उन्होंने जय प्रकाश जी में 'काव्य-पुरुष' को देखा और भगवान श्रीराम के पुत्र लव-कुश को संगीत के जादूगर के रूप में। इसी तरह उनके ललित-निबंध और बाल-साहित्य हिन्दी-साहित्य की धरोहररूप हैं।
केसरी जी के समग्र प्रांजल व्यक्तित्व में कवित्व के साथ आचार्यत्व भी प्रकट होता रहा। सन १९४१ में, पटना विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में स्नातकोत्तर करने के बाद, १९४२ में, वे डी. ए. वी. कालेज, सीवान में अंग्रेज़ी के व्याख्याता हुए। कुछ काल के लिए सी. ए. कालेज, दरभंगा में भी अपनी सेवाएँ दी। फिर १९४५ में समस्तीपुर महाविद्यालय की स्थापना से लेकर अगले २० वर्षों तक उसके प्राचार्य रहे। वे जब तक समस्तीपुर में रहे, वह महाविद्यालय शिक्षा का हीं नही, साहित्य और संस्कृति का भी बहुश्रुत केंद्र बना रहा। साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजनों की वहाँ झड़ी लगी रही। १९६५ में उन्हें विश्वविद्यालय सेवा आयोग का सदस्य और फिर १९६८ में अध्यक्ष बनाया गया। पुण्य-श्लोक डा शंकर दयाल सिंह की इच्छा और प्रेरणा से वे, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के दो बार अध्यक्ष चुने गए। शंकर जी सम्मेलन के अर्थमंत्री हुआ करते थे।
८० वर्ष की अवस्था में केसरी जी ने १८ सितम्बर १९८९ को इस पुण्य-धरा को अंतिम प्रणाम कहा। यह एक भीष्म पितामह सदृश एक तपस्वी साहित्यकार और शिक्षाविद का महाप्रयाण था, जिसने समस्त साहित्य-संसार को दुःख के सागर में छोड़ दिया था। १११वीं जयंती पर, उस महान साधु-पुरुष के चरणों में, उनकी ही निम्न पंक्तियां अशेष श्रद्धासुमन के रूप में निवेदित करता हूँ;-
“बंधु मुझसे अब न माँगो गीत !
उत्स ही जिसका कि मुझसे छिन गया,
वह वसंत चला गया, मैं सिर्फ़ छूँछा शीत!
बंधु मुझसे अब न माँगो गीत !”
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