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अयोध्या का बौधों से कोई लेना देना नही

अयोध्या का बौधों से कोई लेना देना नही

सन 1528 हमें थमा दिया गया और हमारे हाथ बांध दिए 

 सुरेश पाण्डेय 
अयोध्या में राम जन्मभूमि परिसर में चल रहे कार्य के दौरान खुदाई में पुरावशेष मिलने के बाद कुछ लोग नया बखेड़ा खड़ा कर रहे हैं। किसी छुटभैये नेता ने ट्विटर पर दावा किया है कि अयोध्या एक बौद्ध स्थल था। किसी ने यूनेस्को से मांग कर डाली है कि निष्पक्ष रूप से राम जन्मभूमि की खुदाई कर सत्यता का पता लगाया जाए। फिर एक घृणित खेल शुरू हो गया है। खंडित मूर्तियों व अन्य पुरा-सामग्रियों को लेकर झूठे दावे किये जा रहे हैं। ये दुर्भाग्य ही है कि भारत में बिखरी पुरातत्व की अनमोल संपदा की समझ न सरकारों को रही, न भारत के नागरिकों को। पुरातत्व की सामान्य जानकारी न होना और उसमे रूचि न होने का ही कारण है कि भारत के गौरवशाली इतिहास की अधिकांश जानकारी आम नागरिक के पास नहीं है। पुरातत्व में रूचि न होने के कारण एक सामान्य हिन्दू अयोध्या का इतिहास नहीं जानता। उसका फायदा वामी-कामी गैंग उठाता है और गुमराह करता है। आज जानिये पुरातत्व के आधार पर वामी गैंग की काट कैसे होगी। 

वैवस्वत मनु ने अयोध्या की स्थापना की थी। ये समय श्रीराम जन्म से भी बहुत-बहुत पहले का है, इसलिए ब्रिटिश काल के बाद से किये जा रहे दावे इस विशेष कालखंड में कोई अस्तित्व ही नहीं रखते। वैवस्वत सातवें मनु थे। उनकी संतानों से आठ राजवंशों की स्थापना हुई थी। इक्ष्वाकु राजवंश उनमे से एक है, जिसमे प्रभु श्रीराम ने जन्म लिया था। इस बात का प्रमाण मांगने वाले तैत्तिरीय आरण्यक और अथर्ववेद टटोल सकते हैं, इनमे अयोध्या का उल्लेख किया गया है। अयोध्या भारतवर्ष की सर्वाधिक प्राचीन नगरियों में से एक है। 

जैन धर्म के तीर्थंकर ऋषभदेव, अजीतनाथ, अभिनंदन, सुमतिनाथ और अनंतनाथजी का जन्म अयोध्या में ही हुआ। लेकिन उनका प्रादुर्भाव श्रीराम के बहुत बाद में हुआ। अयोध्या का इतना प्राचीन इतिहास है कि ये राम जन्म के बाद से अब तक चार बार उजड़ी और बसाई गई है। यूनेस्को से खुदाई की मांग करने वाले जानते ही नहीं कि यूनेस्को के सात मानकों पर अयोध्या नगरी अपने पुरातात्विक सर्वेक्षण पर खरी उतरी है और अगले दो साल में उसे वैश्विक धरोहर भी घोषित कर दिया जाएगा।

नव बौद्ध आरोप लगाने से पहले इतिहास और अयोध्या में हो चुके उत्खनन की जानकारी ही नहीं रखते। जहाँ खुदाई के समय बुद्ध काल के अवशेष मिले थे, वह रामजन्म भूमि नहीं थी बल्कि हनुमानगढ़ी और लक्ष्मणघाट क्षेत्र थे। यहाँ प्राचीन काल में बीस बौद्ध विहार हुआ करते थे। ये ऐतिहासिक तथ्य है कि गौतम बुद्ध ने अयोध्या में छह वर्ष निवास किया। अयोध्या की अलौकिकता उन्हें वहां खींच लाई थी। 

आखिरकार बुद्ध स्वयं भी सनातनी परंपरा के वाहक थे। सातवीं शताब्दी में जब ह्वेनसांग चीन से अयोध्या आया तो उसे ज्ञात हुआ कि बुद्ध को यहाँ ‘वर्षावास’ करना भाता था। जो नव बौद्ध राजनीति से प्रेरित होकर राम जन्मभूमि को बुद्ध की भूमि बताने का प्रयास कर रहे हैं, उन्हें ज्ञात हो कि ये मूर्खतापूर्ण हास्यापद प्रयास होगा क्योंकि बुद्ध तो स्वयं सनातनी थे। बुद्ध को उनकी मुख्यधारा से आप कैसे अलग कर सकते हैं।

ईसा से लगभग सौ वर्ष पहले उज्जैन के राजा विक्रमादित्य अयोध्या पहुंचे थे। तब तक अयोध्या उजड़ चुकी थी। यहाँ उनकी भेंट तीर्थराज प्रयाग से हुई। तीर्थराज ने उन्हें अयोध्या और सरयू के बारे में बताया। विक्रमादित्य ने अपनी उलझन बताते हुए कहा उजड़ी हुई अयोध्या की सीमा और क्षेत्रफल के बारे में कैसे पता चलेगा। उन्होंने कहा ‘गवाक्ष कुंड के पश्चिम तट पर एक रामनामी वृक्ष लगा है। 

ये वृक्ष अयोध्या की परिधि नापने के लिए लगाया गया था। इस वृक्ष के एक मील के घेरे में एक नवप्रसूता गौ को घुमाओ। जिस स्थान पर उसके स्तनों से दूध की धारा गिरने लगे, समझना वही राम की जन्मभूमि है।’ विक्रमादित्य ने ठीक ऐसा ही किया। राम जन्मभूमि पर खुर रखते ही गौ माता के स्तनों से दूध की धारा फूट पड़ी। नवप्रसूता गाय का दूध जहाँ पर गिरा था, ठीक उसी स्थान पर उन्होंने श्री राम मंदिर का निर्माण करवाया।

राम जन्मभूमि की प्राचीनता का प्रमाण तो प्रोफेसर दीनबंधु पाण्डेय की किताब ‘राम-जन्मभूमि मन्दिर अयोध्या की प्राचीनता’ ही देने में सक्षम है। वे ‘स्थापत्यम (जर्नल आफ़ दि इन्डियन साइंस आफ़ आर्किटेक्चर एण्ड अलायेड सर्विसेस) के अतिथि संपादक हैं। उनकी किताब के अनुसार अयोध्या व राम जन्मभूमि की प्राचीनता ब्रिटिशों और मुगलों द्वारा दी गई जानकारी से भी बहुत पहले तक जाती है। वे अपनी दी जानकारी को वेदों में वर्णित इतिहास से पुष्ट करते हैं।

दीनबंधु पाण्डेय के अनुसार 6 दिसंबर 1992 को ध्वस्त ढाँचे के मलबे से एक अभिलेख  प्राप्त हुआ था। संस्कृत में लिखा ये अभिलेख गाहड़वाल शासक गोविन्दचन्द्र के शासन में लिखा गया था। इनका शासनकाल 1114-1155 तक माना जाता है यानि ब्रिटिश रचित झूठ का पर्दाफ़ाश हो जाता है। अभिलेख में साकेत के मण्डलपति मेघसुत द्वारा विष्णु-हरि के भव्य मन्दिर बनाए जाने का उल्लेख किया गया है।  इस मंदिर के निर्माण को आयुषचन्द्र ने पूरा करवाया था। इसी मंदिर को मीर बाकी ने ध्वस्त किया था।

एक सन हमें थमा दिया गया सन 1528। ताकि हम इस तारीख को पकड़ कर बैठे रहे और वामी-कामी गैंग के अनर्गल इतिहास को पचा जाए। ताकि नव बौद्ध इस तारीख की झूठी प्रामाणिकता के नाम पर राजनीति खेल सके। इक्ष्वाकु वंश का इतिहास इतना प्राचीन है, जितनी प्राचीन अयोध्या है और जितने प्राचीन वैवस्वत मनु हैं। क्या वेद झूठ बोलेंगे? क्या  खुदाई में मिले अभिलेख झूठ बोलेंगे? क्या उस वंश को झुठला दोगे, जो आज भी इक्ष्वाकु की गौरवशाली परम्परा को आगे बढ़ा रहा है। उनमे राम रक्त दौड़ता है। भारतभूमि पर जन्म लिया हर मनुष्य राम से बंधा है। ये प्रमाण वगैरह तो कागजी बातें हैं।

।।वेद में अयोध्या को ईश्वर का नगर बताया गया है, 'अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या'।।
 पुराणों और महाकाव्यों के अनुसार सातवें मनु 'वैवस्वत मनु' ने अयोध्या नगरी बसाई थी। अथर्ववेद और तैत्तिरीय आरण्यक में इसका उल्लेख किया गया है। सरयू नदी के तट से ये नगरी 144 किमी के घेरे में बसी हुई थी। जैन मत के अनुसार यहां आदिनाथ सहित पांच तीर्थंकरों का जन्म हुआ था लेकिन ये भ्रम इसलिए फैला क्योंकि गौतम बुद्ध ने अयोध्या में छह साल बिताए थे। 

इस तथ्य का पता एक ब्रिटिश पुराविद एलेक्जेंडर कनिंघम ने लगाया था। वह सन 1862 में अपने दोस्त फ्यूरर के साथ अयोध्या आया था। उसने अपनी रिपोर्ट में लिखा है 'सन 1523 ईस्वी में राम मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाई गई। मस्जिद बनाने के लिए काले प्रस्तर (कसौटी) पत्थरों के बने स्तम्भों का उपयोग किया गया था।' औरंगजेब ने स्वर्गद्वार और त्रेता ठाकुर के स्थान पर मस्जिद बनाई। फ़ैजाबाद के संगहालय में आज भी उस ठाकुर स्थान का प्रमाण रखा हुआ है।

यहाँ पर सातवीं शाताब्दी में चीनी यात्री हेनत्सांग आया था। उसने बताया है कि बुद्ध यहाँ 'वर्षावास' करते थे। सन 1970 में यहाँ से पुराविदों को पहली शताब्दी में बनी ताम्बे की मुद्राएं मिलती हैं। बुद्ध के आने से भी बहुत पहले की मुद्राएं। मुद्राओं पर ब्राम्ही भाषा में 'अजुधे' लिखा पाया जाता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण बताता है कि अयोध्या में पहली बस्ती के प्रमाण सातवीं शताब्दी ईसा पूर्व के पाए गए है। गुप्त युग के बाद क्षेत्र के आवासीय जमाव में लम्बा अंतराल पाया गया यानी चार बार अयोध्या के उजड़ने की कथा पर पुरातत्व विभाग मोहर लगा रहा है। 

अयोध्या के पुरातन अवशेषों ने बताया कि वे प्राचीन लोग मिट्टी के वैज्ञानिक प्रयोग जानते थे। उन्होंने ईंटें बनाने में प्रवीणता हासिल कर ली थी। अयोध्या में मिट्टी से बने वलयाकार कुँए(रिंग वेल्स) के अवशेष मिले थे। अयोध्या के राजा रहे गोविन्द चन्द्र देव एवं उनके वंशजों ने यहां मंदिर का पुनर्निमाण कराया था। इसी मंदिर को बाबर ने 1528 में तुड़वाया था।

अयोध्या की खसरा-खतौनी में रामकोट पर दशरथ के पुत्र राम का नाम दर्ज है। इतने साक्ष्य होने के बाद भी राम जन्मभूमि का प्रकरण न्यायालय में लंबित है तो ये हिन्दुओं के लिए डूब मरने वाली बात है। जिस पवित्र भूमि पर गौ माता का दूध गिरा था, वहां राम मंदिर बनाया गया। उस भूमि पर निगाह डालने वाले बाबर और औरंगजेब को कैसी मौत नसीब हुई, इतिहास गवाह है। 

मर्यादा पुरषोत्तम राम सब कार्य स्वयं ही कर रहे हैं। हम अस्सी करोड़ आत्माओं में उनका ही रक्त प्रवाहित हो रहा है। उन्होंने हमसे सब कार्य करवा लिया है और आज उच्चतम न्यायालय से भी उन्होंने अपने मन की करवा ली है। अभी तो आधी राह बाकी है। बची आधी राह काँटों से भरी होगी। ये आप सबकी सबसे कठिन अग्नि परीक्षा होगी। राम लला अपना आखिरी कार्य आपके सहयोग से ही करेंगे। राम भली करेंगे।
✍🏻विपुल विजय रेगे

#बौधोंकीअयोध्यायासाकेतकल्पनायायथार्थ?

मित्रो आज कल कुछ बौध आप को अयोध्या में बौद्ध विहार का दावा करते हुवे दिखाई दे रहे होंगे। किन्तु बहुत विचारणीय प्रश्न है की बौधों की अयोध्या या साकेत कहा पर स्थित था। उसका भोगौलिक क्षेत्र क्या था, इस नगर की स्थिति क्या थी यह जान लेना आवश्यक है। 

मित्रो वर्तमान में जो अयोध्या है वह सरयू नदी के तट पर स्थोति है।  किन्तु बौद्ध ग्रथो और हुवेत्संग के यात्रा वृतांतों के अनुसार अयोध्या गंगा नदी के किनारे का एक नगर था , यहां बुद्ध ने अपना काफी समय व्यतीत किया था।  
संयुक्तनिकाय में उल्लेख आया है कि बुद्ध ने यहां की यात्रा दो बार की थी। इस सूक्त में भगवान बुद्ध को गंगा नदी के तट पर विहार करते हुए बताया गया है। इसी निकाय की अट्ठकथा में कहा गया है कि यहां के निवासियों ने गंगा के तट पर एक विहार बनवाकर किसी प्रमुख भिक्षु संघ को दान कर दिया था। जबकि वर्तमान अयोध्या गंगा नदी के तट पर स्थित नहीं है।

साथ ही हुवेत्संग के अनुसार गंगा तट पर स्थित अयोध्या में राजा अशोक ने 200 फिट ऊँचा स्तूप बनवाया था। जबकि  (सीयूकी, खंड-1,लंदन, 1906 पृष्ठ 224-25). इससे सातवीं शताब्दी में अयोध्या में बौद्ध धर्म के प्रभुत्व का संकेत मिलता है!  

आइये जानते हुवेत्संग कि अयोध्या का क्या दृश्यांकन था। 

ह्वेनसांग की भारत यात्रा

पृष्ठ :- १६३.

यहा पर अन्न बहुत उत्पन्न होता है तथा सब प्रकार के फल-फूलों की अधिकता है प्रकृति कोमल तथा सह्य और मनुष्यो का पाचरण शुद्ध और सुशील है । यहाँ के लोग धार्मिक कृत्य से बड़ा प्रेम रखते हैं, तथा विद्याभ्यास मे विशेष परिश्रम करते हैं ।संपूर्ण देश भर में कोई १०० संघाराम और ३,००० साधु हैं, जो हीनयान और महायान दोनों संप्रदायों की पुस्तकों का अध्ययन करते हैं । कोई दस देवमन्दिर हैं जिनमे अनेक पंयो के अनुयायी ( बौद्धधर्म के विरोधी ) निवास करते हैं, परन्तु उनकी संख्या
थोडी है।

राजधानी में एक प्राचीन संघाराम है। यह वह स्थान है जहाँ पर वमुबंधु: बोधिसत्व ने कई वर्ष के कठिन परिश्रम से अनेक शास्त्र, हीनयान और महायान, दोनो सम्प्रदाय-विषयक निर्माण किये थे । इसके पास ही कुछ उजड़ी-पुजड़ी दीवारें अब तक वर्तमान हैं । ये दीवारें उस मकान की हैं जिसमे वसुबन्धु बोधिसत्व ने धर्म के सिद्धातों को प्रकट किया था, तथा अनेक देश के राजामो, बडे प्रादमियो, श्रमणो ओर ब्राह्मणो के उपकार के निमित्त धर्मोपदेश किया था।

नगर के उत्तर ४० ली दूर गङ्गा के किनारे एक बड़ा संघाराम है जिसके भीतर अशोक राजा का बनवाया हुमा एक स्तूप २०० फीट ऊंचा है। यह वह स्थान है जहाँ पर तथागत भगवान् ने देव-समाज के उपकार के लिए तीन मास तक धर्म के उत्तमोत्तम सिद्धातो का विवेचन किया था।

स्मारक स्वरूप स्तूप के निकट बहुत से चिह्न गत चारो बुद्धो के उठने-बैठने आदि के पाये जाते हैं।

संबाराम के पश्चिम ४-५ ली दूर एक स्तूप है जिसमे तथागत भगवान के नख और बाल रखे हैं । इस स्तूप के उतर एक संघाराम उजड़ा हुआ पड़ा है । इस स्थान पर श्रीलब्ध शास्त्री ने सौत्रान्तिक सम्प्रदाय-सम्बन्धी विमापा शास्त्र का निर्माण किया था।

नगर के दक्षिण पश्चिम ५-६ ली की दूरी पर एक बड़ी प्रानवाटिका मे एक पुराना संघाराम है। यह वह स्थान है जहां प्रसङ्ग' बोधिसत्व ने विद्याध्ययन किया था। फिर भी जब उसका अध्ययन परिपूर्णता को नहीं पहुंचा तब वह रात्रि मे मैत्रय बोधिसत्व के स्थान को, जो स्वग में था, गया और वहां पर योगचार्यशास्त्र, महायन सूत्रालङ्कार टीका, मद्यान्त विमङ्गशास्त्र आदि को उसने प्राप्त किया, और अपने गूढ सिद्धान्तो को, जो इस अध्ययन से प्राप्त हुए थे, समाज में प्रकट किया।

_आम्रवाटिका से पश्चिमोत्तर दिशा मे लगभग १०० कदम की दूरी पर एक
स्तूप है जिसमे तथागत भगवान के नख मौर बाल रक्खे हुए हैं । इसके निकट ही कुछ
पुरानी दीवारो की बुनियाद है । यह वह स्थान है जहाँ पर वसुबन्धु बोधिसत्व तुषित'
स्वर्ग से उतर कर प्रसङ्ग बोधिसत्व को मिला था। प्रसङ्ग बोधिसत्व गन्धार प्रदेश
का निवासी था । बुद्ध भगवान के शरीरावासान के पांच सौ वर्ष पीछे इसका जन्म हुआ
था, तथा अपनी अनुपम प्रतिभा के बल से यह बहुत शीघ्र बौद्ध-सिद्धान्तो मे ज्ञानवान्
हो गया था। प्रथम यह महीशासक-मम्प्रदाय का सुप्रसिद्ध अनुयायी था, परन्तु पीछे मे
इसका विचार बदल गया और वह महायान-सम्प्रदाय का अनुगामी हो गया। इसका
भाई वसुबन्यु सर्वास्तिवाद-सम्प्रदाय का था । सूक्ष्म बुद्धिमत्ता, दृढ विचार और अक्षम
प्रतिभा के लिए उसकी बहुत ख्याति थी । प्रसङ्ग का शिष्य बुद्धसिंह जिस प्रकार बड़ा
बुद्धिमान और सुप्रसिद्ध हुआ उसी प्रकार उसके गुप्त और उत्तम चरित्रो की थाह भी
किसी को नहीं मिली।

ये दोनो या तीनो महात्मा प्रायः आपस मे कहा करते थे कि हम सब लोग
अपने चरित्रो को इस प्रकार सुधार रहे हैं कि जिसमे मृत्यु के बाद मैत्रय भगवान के
सामने बैठ सकें। हममे मे जो कोई प्रथम मृत्यु को प्राप्त होकर इस अवस्था को पहुंचे
( अर्थात् मैत्रेय के स्वर्ग मे जन्म पावे ) वह एक बार वहां से लौट आकर अवश्य सूचना
देवे ताकि हम उसका वहां पहुंचना मालूम कर सकें।

सबसे पहले बुद्धसिंह का देहान्त हुमा । तीन वर्ष तक उसका कुछ समाचार
किसी को मालम नही हुआ। इतने ही मे वसुबन्धु बोधिसत्व भी स्वर्गगामी हो गया।
छः मास इसको भी व्यतीत हो गये परन्तु इसका भी,कोई समाचार किसी को विदित
न हुआ । जिन लोगो का विश्वास नहीं था वह अनेक प्रकार की बातें बनाकर हंसी
उडाने लगे कि वसुबन्धु और बुधसिंह का जन्म नीच योनि मे हो गया होगा इसी मे कुछ
दैवी चमत्कार नहीं दिखाई पडता। .

_एक समय प्रसङ्ग -वोधिसत्व रात्रि के प्रथम भाग मे अपने शिष्यो को बता 
रहा था कि समाधि का प्रभाव - अन्य-पुरुषों पर किस प्रकार होता है, उसी समय
अकस्मात् दीपक की ज्योति ठंडी हो गई और उसके स्थान में बड़ा भारी प्रकाश फैल
गया। फिर ऋषिदेव आकाश से नीचे उतरा और मकान की सीढ़ियों पर चढकर
असङ्ग के निकट आया और प्रणाम करने लगा। प्रसङ्ग बोधिसत्व ने बड़े प्रेम से
उससे पूछा कि 'तुम्हारे आने मे क्यो देर हुई ? तुम्हारा अब नाम क्या है ?' उत्तर
मे उसने कहा, "मरते ही, मैं तुषित स्वर्ग मे मैत्रेय भगवान के भीतर समाज मे पहुंचा
और वहाँ एक कमल के फूल -मे उत्पन्न हुआ । शीघ्र ही कमलपुष्प के खोले जाने पर
मैत्रेय ने बड़े शब्द से मुझसे कहा, 'ए महाविद्वान ! स्वागत । हे महाविद्वान ! स्वागत' ।
इसके उपरान्त मैने प्रदक्षिणा करके बडी भक्ति से उनको प्रणाम किया और फिर
अपना वृत्तान्त कहने के लिए सीधा.यहाँ चला पाया । प्रसङ्ग ने पूछा, "और बुद्धसिंह
कहाँ है ? " उसने उत्तर दिया, "जब मैं मैत्रेय भगवान की प्रदक्षिणा कर रहा था
उस समय मैंने उसको बाहरी भीड मे देखा था, वह सुख और आनन्द मे लिप्त था ।
उसने मेरी ओर देखा तक नही, फिर क्या उम्मेद की जा सकती है कि वह यहाँ तक
अपना हाल कहने आवेगा ?" असङ्ग ने कहा, "यह तो तय हो गया प न्तु अब यह
बताओ कि मैत्रेय भगवान का स्वरूप कैसा है और कौन से धर्म की शिक्षा वह देते
हैं।" उसने उत्तर दिया कि 'जिह्वा और शब्दो मे इतनी सामध्यं नही है जो उनकी
सुन्दरता का बखान किया जा सके । मैत्रय भगवान क्या धर्म सिखाते है उसके विषय
में इतना ही यथेष्ट है कि उनके सिद्धान्त हम लोगो मे भिन्न नहीं हैं। वोधिसत्व की
सुस्पष्ट वचनावली ऐसा शुद्ध, कोमल और मधुर है जिसके सुनने मे कभी थकावट
नही होती और न सुननेवाले की कभी तृप्ति ही होती है"।

असङ्ग बोधिसत्व के भग्नस्थान से लगभग ४. ली उत्तर-पश्चिम चलकर
हम एक प्राचीन संघाराम मे पहुंचे चिसके उत्तर तरफ गंगा नदी बहती है । इसके
भीतरी भाग मे ईंटो का बना हुआ एक स्तूप लगभग १.० फीट ऊंचा खड़ा है ।
यही स्थान है जहाँ पर वसुबन्धु बोधिसत्व को सर्वप्रथम महायान सम्प्रदाय के सिद्धान्तो
के अध्ययन करने की अभिनाषा उत्पन्न हुई थी' । उत्तरी भारत से चलकर जिस
समय वसुवन्धु इस स्थान पर पहुँचा उस समय असङ्ग बोधिसत्व ने अपने अनुयायियो
को उससे मिलने के लिए भेजा, और-वे लोग इस स्थान पर आकर उससे मिले।
असङ्ग का शिष्य जो बोधिसत्व के द्वार के बाहर लेटा था, वह रात्रि के पिछले पहर- मे दशभूमिसूत्र का पाठ करने लगा। वसुबन्तु उसको सुनकर और उसके प्रर्य को
समझ कर बहुत विस्मित हो गया। उसने बड़े शोक से कहा कि यह उत्तम और शुद्ध
सिद्धान्त यदि पहले से मेरे कान मे पड़ा होता तो मैं महायान-सम्प्रदाय की निन्दा
करके अपनी जिह्वा को क्यो कलङ्कित कर पाप का भागी बनता ? इस प्रकार शोक
करते हुए उसने कहा कि अब मैं अपनी जिह्वा को काट डालूंगा। जिस समय छुरी लेकर
वह जिह्वा काटने के लिए उद्यत था उसी समय उसने देखा कि प्रसङ्ग बोधिसत्व उसके
सन्मुख रहा है और कहता है कि 'वास्तव मे महायान-सम्प्रदाय के सिद्धान्त बहुत शुद्ध
और परिपूर्ण है; सब बुद्ध देवो ने जिस प्रकार इसकी प्रशंसा की है उसी प्रकार सब
महात्माओ ने इसको परिवर्द्धन किया है । मैं तुमको इसके सिद्धान्त सिखाऊंगा । परन्तु तुम
खुद इसके तत्व को अब समझ गये हो, और जब इसको समझ गये और इसके महत्व को
मान गये तब क्या कारण है कि बुद्ध भगवान् की पुनीत शिक्षा के प्राप्त होने पर
भी तुम अपनी जिह्वा को काटना चाहते हो। इसमे कुछ लाम नही है, ऐसा मत करो
यदि तुमको पछतावा है कि तुमने महायान-सम्प्रदाय की निन्दा क्यो की तो तुम अब
उसी जबान से उसकी प्रशंसा भी कर सकते हो। अपने व्यवहार को बदल दो और
नवीन ढंग से काम करो, यही एक बात तुम्हारे करने योग्य है । अपने मुख को बन्द कर
लेने से, अथवा शाब्दिक शक्ति को रोक देने में कुछ लाम नही होगा।" यह कह कर
वह अन्तर्ध्यान हो गया।

वसुबंबु ने उसके बचनो की प्रतिष्ठा करके अपनी जिह्वा काटने का विचार
परित्याग कर दिया और दूसरे ही दिन से प्रसङ्ग बोधिसत्व के पास जाकर महायान
सम्प्रदाय के उपदेशो को अध्ययन करने लगा। इसके सिद्धान्तो को भली भांति मनन
करके उसने एक सौ में अधिक सूत्र महायान सम्प्रदाय की पुष्टि के लिए लिखे जो कि
बहुत प्रसिद्ध और सर्वत्र प्रचलित हैं।

यहां से पूर्व दिशा मे ३०० ली चल कर गगा के उतरी किनारे पर हम
'प्रोयीमोखी' को पहुंचे।

तो इस प्रकार हम हुवेत्संग के यात्रा वृतांत और अयोध्या में बौद्ध धर्म के उदय की बात करे तो ,, एक बात प्रमुखता से स्पष्ट है की हुवेत्संग की अयोध्या तो सरयु किनारे पर नही है ,, साथ ही बुद्ध जिस अयोध्या में गए वह सरयु नही गंगा किनारे पर स्थित था। हुवेत्संग अयोध्या में 200 फिट ऊँचे स्तूप की बात लिखता है लेकिन अयोध्या आज तक इतना ऊँचा स्तूप होना तो दूर उसके अवशेष तक नही मिले , 

आज कल कुछ इतिहासकारों और ऊपर से खुद को वैज्ञानिक का तगमा देने वाले लोगो को अयोध्या के इतिहास पर यह दलील देते हुवे देखता हूं की अयोध्या के विषय में जो वर्णन हिन्दू ग्रंथो में है वह अविश्वसनीय है। तो हे आदरणीय विद्वानों फिर जिस अयोध्या का जिक्र हुवेत्संग ने किया है क्या वह अविश्वसनीय नही है। 

जब बौद्ध धर्म 7 वी शताब्दी के आस पास अयोध्या पहुचा तो वहां उससे पूर्व अशोक ने 200 फिट स्तूप कब बनवा दिया , जिसका आज तक कोई प्रमाण नही मिला न अवशेष मिले। 

दूसरा अयोध्या वृतांत में जिस प्रकार हुवेत्संग बोधिस्तावो को डारेक्ट स्वर्ग आने जाने का टिकट बांट रहा है उससे तो यही लगता है की हुवेत्संग की भी अयोध्या कोई काल्पनिक नगरी ही है जो गंगा नदी के किनारे पर स्थिति थी और वहाँ से बौधों बोधिस्तावो का डारेक्ट स्वर्ग आने जाने का वीजा मिलता था। 

अगर हिन्दू ग्रंथो में किया गया अयोध्या का वर्णन इतिहासकारों और विद्वानों को काल्पनिक लगता है तो हुवेत्संग की अयोध्या में कौन सी वैज्ञानिकता है थोड़ा स्पष्ट करें .....? 

हिन्दू ग्रंथो की अयोध्या सुरु से सरयु नदी के क्षेत्र में स्थित बताई जाती है।  किन्तु बौधों की अयोध्या उनके धार्मिक ग्रंथो और विदेशी यात्रियों के लेखों के आधार पर तो गंगा टत पर स्थिति थी , जिसका आज के वर्तमान में कही कोई नमो निशान नही ,,

तो साफ साफ पता चलता है कि वर्तमान अयोध्या तो हिन्दुओ की ही है जिसका सम्बन्ध हिन्दुओ के आराध्य भगवान राम से है। 
रही बात बौधों की तो वह खोजे अपनी गंगा तट पर स्थिति अयोध्या और 200 फिट ऊँचे स्तूप वाली अयोध्या को की कहा गुलाटी मार कर छुपी हुई है। 
     बिना आधार और तथ्यों और प्रमाणों के विपरीत  सरयू तट पर स्थोति अयोध्या पर अपनी फर्जी दावेदारी क्यो दिखा रहे है । 
बौधों की अयोध्या या साकेत एक काल्पनिक नगर था जिसका  उल्लेख हुवेत्संग ने गंगा नदी तट पर किया है।  जबकि हिन्दुओ की अयोध्या एक वास्तविक स्थान है जिसका क्षेत्र सरयु नदी के तट तक है। 
अतः हुवेत्संग और बौद्ध ग्रंथो के आधार पर यह सिद्ध होता है की वर्तमान अयोध्या का बौधों से कोई लेना देना नही है। यह सिर्फ एक प्रपंच है जो जल्द ही बेनकाब होगा।
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