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भारतीय शिक्षा का इतिहास प्राचीन काल

भारतीय शिक्षा का इतिहास प्राचीन काल

प्राचीन भारत की शिक्षा का प्रारंभिक रूप हम ऋग्वेद में देखते हैं। ऋग्वेद युग की शिक्षा का उद्देश्य था तत्वसाक्षात्कार। ब्रह्मचर्य, तप, और योगाभ्यास से तत्व का साक्षात्कार करनेवाले ऋषि, विप्र, वैघस, कवि, मुनि, मनीषी के नामों से प्रसिद्ध थे। साक्षात्कृत तत्वों का मंत्रों के आकार में संग्रह होता गया वैदिक संहिताओं में, जिनका स्वाध्याय, सांगोपांग अध्ययन, श्रवण, मनन औरनिदिध्यासन वैदिक शिक्षा रही।

विद्यालय गुरुकुल, आचार्यकुल, गुरुगृह इत्यादि नामों से विदित थे। आचार्य के कुल में निवास करता हुआ, गुरुसेवा और ब्रह्मचर्य व्रतधारी विद्यार्थी षडंग वेद का अध्ययन करता था। शिक्षक को आचार्य और गुरु कहा जाता था और विद्यार्थी को ब्रह्मचारी, व्रतधारी, अंतेवासी, आचार्यकुलवासी। मंत्रों के द्रष्टा अर्थात्‌ साक्षात्कार करनेवाले ऋषि अपनी अनुभूति और उसकी व्याख्या और प्रयोग को ब्रह्मचारी, अंतेवासी को देते थे। गुरु के उपदेश पर चलते हुए वेदग्रहण करनेवाले व्रतचारी श्रुतर्षि होते थे। वेदमंत्र कंठस्थ किए जाते थे। आचार्य स्वर से मंत्रों का परायण करते और ब्रह्मचारी उनको उसी प्रकार दोहराते चले जाते थे। इसके पश्चात्‌ अर्थबोध कराया जाता था। ब्रह्मचर्य चले जाते थे। इसके पश्चात्‌ अर्थबोध कराया जाता था। ब्रह्मचर्य का पालन सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य था। स्त्रियों के लिए भी आवश्यक समझा जाता था। आजीवन ब्रह्मचर्य पालन करनेवाले विद्यार्थी को नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहते थे। ऐसी विद्यार्थिनी ब्रह्मवादिनी कही जाती थी।

यज्ञों का अनुष्ठान विधि से हो, इसलिए होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा को आवश्यक शिक्षा दी जाती थी। वेद, शिक्षा, कल्प, व्यकरण, छंद, ज्योतिष और निरुक्त उनके पाठ्य होते थे। पाँच वर्ष के बालक की प्राथमिक शिक्षा आरंभ कर दी जाती थी। गुरुगृह में रहकर गुरुकुल की शिक्षा प्राप्त करने की योग्यता उपनयन संस्कार से प्राप्त होती थी। 8 वें वर्ष में ब्राह्मण बालक के, 11 वें वर्ष में क्षत्रिय के और 12 वें वर्ष में वैश्य के उपनयन की विधि थी। अधिक से अधिक यह 16, 22, और 24 वर्षों की अवस्था में होता था। ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्यार्थी गुरुगृह में 12 वर्ष वेदाध्ययन करते थे। तब वे स्नातक कहलाते थे। समावर्तन के अवसर पर गुरुदक्षिणा देन की प्रथा थी। समावर्तन के पश्चात्‌ भी स्नातक स्वाध्याय करते रहते थे। नैष्ठिक ब्रह्मचारी आजीवन अध्ययन करते थे। समावर्तन के सम ब्रह्मचारी दंड, कमंडलु, मेखला, आदि को त्याग देते थे। ब्रह्मचर्य व्रत में जिन जिन वस्तुओं का निषेध था अब से उनका उपयोग हो सकता था। प्राचीन भारत में किसी प्रकार की परीक्षा नहीं होती थी और न कोई उपाधि ही दी जाती थी। नित्य पाठ पढ़ाने के पूर्व ब्रह्मचारी ने पढ़ाए हुए षष्ठ को समझा है और उसका अभ्यास नियम से किया है या नहीं, इसका पता आचार्य लगा लेते थे। ब्रह्मचारी अध्ययन और अनुसंधान में सदा लगे रहते थे तथा बाद विवाद और शास्त्रार्थ में संम्मिलित होकर अपनी योग्यता का प्रमाण देते थे।

भारतीय शिक्षा में आचार्य का स्थान बड़ा ही गौरव का था। उनका बड़ा आदर और सम्मान होता था। आचार्य पारंगत विद्वान्‌, सदाचारी, क्रियावान्‌, नि:स्पृह, निरभिमान होते थे और विद्यार्थियों के कल्याण के लिए सदा कटिबद्ध रहते थे। अध्यापक, छात्रों का चरित्रनिर्माण, उनके लिए भोजनवस्त्र का प्रबंध, रुग्ण छात्रों की चिकित्सा, शुश्रूषा करते थे। कुल में सम्मिलित ब्रह्मचारी मात्र को आचार्य अपने परिवार का अंग मानते थे और उनसे वैसा ही व्यवहार रखते थे। आचार्य धर्मबुद्धि से नि:शुल्क शिक्षा देते थे।

विद्यार्थी गुरु का सम्मान और उनकी आज्ञा का पालन करते थे। आचार्य का चरणस्पर्श कर दिनचर्या के लिए प्रात:काल ही प्रस्तुत हो जाते थे। गुरु के आसन के नीचे आसन ग्रहण करा, सुसंयत वेश में रहना, गुरु के लिए दातौन इत्यादि की व्यवस्था करना, उनके आसन को उठाना और बिछाना, स्नान के लिए जल ला देना, समय पर वस्त्र और भोजन के पात्र को साफ करना, ईधंन संग्रह करना, पशुओं को चराना इत्यादि छात्रों के कर्तव्य माने जाते थे। विद्यार्थी ब्राह्ममुहूर्त में उठते थे और प्रात: कृत्यों से निवृत्त होकर, स्नान, संध्या, होम आदि कर लेते थे। फिर अध्ययन में लग जाते थे। इसके उपरांत भोजन करते थे और विश्राम के पश्चात्‌ आचार्य के पाठ ग्रहण करते थे। सांयकाल समिधा एकत्र कर ब्रह्मचारी संध्या ओर होम का अनुष्ठान करते थे। विद्यार्थी के लिए भिक्षाटन अनिवार्य कृत्य था। भिक्षा से प्राप्त अन्न गुरु को समर्पित कर विद्यार्थी मनन औरनिदिध्यासन में लग जाते थे।

वेदों का अध्ययन श्रावण पूर्णिमा को उपाकर्म से प्रारंभ होकर पौष पूर्णिमा को उपसर्जन से समाप्त होता था। शेष महीनों में अधीत पाठों की आवृत्ति, पुनरावृत्ति होती रहती थी। विद्यार्थी पृथक्‌ पृथक्‌ पाठ ग्रहण करते थे, एक साथ नहीं। प्रतिपदा और अष्टमी को अनध्याय होता था। गाँव, नगर अथवा पड़ोस मे आकस्मिक विपत्ति से और शिष्टजनों के आगमन से विशेष अनध्याय होते थे। अनध्याय में अधीत वेदमंत्रों की पुनरावृत्ति और विषयांतर का अध्ययन निषिद्ध न थे। विनय के नियमों का उल्लंघन करनेवाले विद्यार्थी को दंड देने की परिपाटी थी। पाठ्यक्रम के विस्तार के साथ वेदों ओर वेदांगों के अतिरिक्त साहित्य, दर्शन, ज्योतिष, व्याकरण और चिकित्साशास्त्रइत्यादि विषयों का अध्यापन होने लगा। टोल पाठशाला, मठ ओर विहारों में पढ़ाई होती थी।

काशी, तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वलभी, ओदंतपुरी, जगद्दल, नदिया, मिथिला, प्रयाग, अयोध्या आदि शिक्षा के केंद्र थे। दक्षिण भारत के एन्नारियम, सलौत्गि, तिरुमुक्कुदल, मलकपुरम्‌ तिरुवोरियूर में प्रसिद्ध विद्यालय थे। अग्रहारों के द्वारा शिक्षा का प्रचार और प्रसार शताब्दियों होता रहा। कादिपुर और सर्वज्ञपुर के अग्रहार विशिष्ट शिक्षाकेंद्र थे। प्राचीन शिक्षा प्राय: वैयक्तिक ही थी। कथा, अभिनय इत्यादि शिक्षा के साधन थे। अध्यापन विद्यार्थी के योग्यतानुसार होता था अर्थात्‌ विषयों को स्मरण रखने के लिए सूत्र, कारिका और सारनों से काम लिया जाता था। पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष पद्धति किसी भी विषय की गहराई तक पहुँचने के लिए बड़ी उपयोगी थी। भिन्न भिन्न अवस्था के छात्रों को कोई एक विषय पढ़ाने के लिए समकेंद्रिय विधि का विशेष रूप से उपयोग होता था सूत्र, वृत्ति, भाष्य, वार्तिक इस विधि के अनुकूल थे। कोई एक ग्रंथ के बृहत्‌ और लघु संस्करण इस परिपाटी के लिए उपयोगी समझे जाते थे। बौद्धों और जैनों की शिक्षापद्धति भी इसी प्रकार की थी।

वर्तमान शिक्षा पद्धति : कमियां एवं विकल्प

वर्तमान शिक्षा में गुरु या अध्यापक श्रध्दा का पात्र न होकर वेतन भोगी नौकर बन गया। अध्यापक की भूमिका गौण हो गई तथा विद्यालय-विश्वविद्यालय के प्रबन्ध तन्त्र की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है। 

वर्तमान शिक्षा का इतिहास अधिक प्राचीन नहीं है। प्राय: लोग इसे मैकाले की शिक्षा प्रणाली के नाम से पुकारते हैं। लार्ड मैकाले ब्रिटिश पार्लियामेन्ट के ऊपरी सदन (हाउस आफ लार्ड्स) का सदस्य था। 1857 की क्रान्ति के बाद जब 1860 में भारत के शासन को ईस्ट इण्डिया कम्पनी से छीनकर महारानी विक्टोरिया के अधीन किया गया तब मैकाले को भारत में अंग्रेजों के शासन को मजबूत बनाने के लिये आवश्यक नीतियां सुझाने का महत्वपूर्ण कार्य सौंपा गया था। उसने सारे देश का भ्रमण किया। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि यहां झाडू देने वाला, चमड़ा उतारने वाला, करघा चलाने वाला, कृषक, व्यापारी (वैश्य), मंत्र पढ़ने वाला आदि सभी वर्ण के लोग अपने-अपने कर्म को बड़ी श्रध्दा से हंसते-गाते कर रहे थे। सारा समाज संबंधोें की डोर से बंधा हुआ था। शूद्र भी समाज में किसी का भाई, चाचा या दादा था तथा ब्राहमण भी ऐसे ही रिश्तों से बंधा था। बेटी गांव की हुआ करती थी तथा दामाद, मामा आदि रिश्ते गांव के हुआ करते थे। इस प्रकार भारतीय समाज भिन्नता के बीच भी एकता के सूत्र में बंधा हुआ था। इस समय धार्मिक सम्प्रदायों के बीच भी सौहार्दपूर्ण संबंध था। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि 1857 की क्रान्ति में हिन्दू-मुसलमान दोनों ने मिलकर अंग्रेजों का विरोध किया था। मैकाले को लगा कि जब तक हिन्दू-मुसलमानों के बीच वैमनस्यता नहीं होगी तथा वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत संचालित समाज की एकता नहीं टूटेगी तब तक भारत पर अंग्रेजों का शासन मजबूत नहीं होगा। 
भारतीय समाज की एकता को नष्ट करने तथा वर्णाश्रित कर्म के प्रति घृणा उत्पन्न करने के लिए मैकाले ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली को बनाया। अंग्रेजों की इस शिक्षा नीति का लक्ष्य था संस्कृत, फारसी तथा लोक भाषाओं के वर्चस्व को तोड़कर अंग्रेजी का वर्चस्व कायम करना। साथ ही सरकार चलाने के लिए देशी अंग्रेजों को तैयार करना। इस प्रणाली के जरिए वंशानुगत कर्म के प्रति घृणा पैदा करने और परस्पर विद्वेष फैलाने की भी कोशिश की गई थी। इसके अलावा पश्चिमी सभ्यता एवं जीवन पध्दति के प्रति आकर्षण पैदा करना भी मैकाले का लक्ष्य था। 
इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में ईसाई मिशनरियों ने भी महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई। ईसाई मिशनरियों ने ही सर्वप्रथम मैकाले की शिक्षा-नीति को लागू किया। आज स्वतन्त्रता के साठ वर्ष बाद यह स्पष्ट है कि मैकाले की शिक्षा नीति अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में पूर्णतया सफल हो चुकी है। इसका प्रमाण है कि देश के एक प्रतिष्ठित प्रदेश का राज्यपाल संस्कृत के मंच से संस्कृत का अपमान करने का साहस जुटा सका। यह हमारे समाज के अभिजात्य वर्ग की मानसिक गुलामी का प्रतीक है। आईएएस, आईपीएस आदि के माध्यम से आज भी देशी अंग्रेज तैयार किए जा रहे हैं। वंशानुगत कर्म के प्रति सभी वर्ण हीन भावना एवं घृणा के शिकार हो चुके हैं। पश्चिमी सभ्यता एवं जीवन पध्दति के प्रति आकर्षण अपने चरम पर है। वर्तमान शिक्षा में गुरु या अध्यापक श्रध्दा का पात्र न होकर वेतन भोगी नौकर बन गया। अध्यापक की भूमिका गौण हो गई तथा विद्यालय-विश्वविद्यालय के प्रबन्ध तन्त्र की भूमिका महत्वपूण्र्हो गई है। शिक्षा में मानव को योग्य एवं चरित्रवान बनाने का वास्तविक लक्ष्य छूट गया तथा डिग्री-सर्टिफिकेट का महत्व बढ़ गया। पेशेगत योग्यता की शिक्षा मंहगी हो गई। इसने एक उद्योग (व्यापार) का रूप ग्रहण कर लिया। सेवा भाव का लोप हुआ तथा व्यापारिक मनोवृत्ति हावी हो गई। 

कर्म के प्रति श्रध्दा के समाप्त होने से यह मात्र आर्थोपार्जन का साधन बन गया। इससे आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग बन्द हो गया। आहार-विहार में सन्तुलन न होने से शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य में कमी आई तथा आलस्य-प्रमाद के कारण श्रम शक्ति का ह्रास हुआ। इस प्रकार वर्तमान शिक्षा से सामाजिक दायित्व एवं राष्ट्रीय कर्तव्य का ज्ञान न मिलने से विद्यार्थी स्वयं एवं परिवार केन्द्रित होकर अधिक से अधिक अर्थोपार्जन में लगे हैं। वे अधिक से अधिक भौतिक सुख-साधनों के संग्रह-उपभोग को ही जीवन का लक्ष्य समझ बैठे हैं। येन-केन-प्रकारेण अर्थोपार्जन के लक्ष्य ने कर्म के अनुष्ठान में नैतिक मानदण्डों को नष्ट किया है। भौतिक सुखों को भोगने की सीमा टूटने से अनेक प्रकार की शारीरिक, मानसिक एवं बौध्दिक समस्याएं उत्पन्न हुईं। अपनी भाषा, संस्कृति तथा राष्ट्र के प्रति गौरव-स्वाभिमान की भावना नष्ट हुई तथा परकीय भाषा, संस्कृति तथा पर-देश के प्रति आदर एवं आकर्षण बढ़ा। कहना न होगा कि वर्तमान शिक्षा विद्यार्थी को शरीर, मन एवं बुध्दि से रुग्ण बनाकर कुसंस्कृत तथा पतनोन्मुख बना रही है। राजनीतिक संघर्ष से भले ही देश को शारीरिक स्वतन्त्रता मिली पर विगत साठ वर्षों में मानसिक-बौध्दिक परतन्त्रता की बेड़ियां मजबूत हुईं हैं। 

वर्तमान शिक्षा की किलता को स्वीकार कर विगत दो दशकों से इसमें आमूल परिवर्तन की आवश्यकता की बात को अनेक विद्वानों, विचारकों एवं राजनेताओं ने उठाया है। चूंकि अब तक कोई विचारणीय, अनुकरणीय तथा स्वीकार्य विकल्प प्रस्तुत न हो सका इसलिए वर्तमान शिक्षा को अपनाना लोगों की मजबूरी है। विकल्प के अन्तर्गत दो प्रश्न उठते हैं। पहला यह कि वर्तमान सन्दर्भों में एक सम्यक भारतीय शिक्षा का स्वरूप क्या हो? इसके अलावा वर्तमान शिक्षा में भारतीय परिवेश के अनुसार क्या परिवर्तन हो

आज जरूरत वर्तमान शिक्षा को स्वदेशी, सार्थक और मूल्य आधारित बनाने की है। इसके लिए भारतीय पध्दति से आधुनिक विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए। साथ ही गुरु एवं शिष्य के बीच भावनात्मक आत्मीय सम्बन्धों के निर्माण पर जोर दिए जाने की जरूरत है। गुरु के महत्व को बढ़ाकर प्रबन्ध तन्त्र के वर्चस्व को घटाना भी आवश्यक है। उच्च-शिक्षा को सर्व सुलभ बनाने के लिए आर्थिक दबाव को तो कम करना ही होगा। इसके अलावा चरित्र निर्माण्ा के लिए विशेष पाठयक्रम एवं प्रयास की आवश्यकता है। शिक्षा के दो प्रमुख आयाम हैं: विधि और विषय। शिक्षा की गुणवत्ता को गुरुकुल पध्दतिके नाम से जाना जाता है। इस पध्दति में अध्यापक शिक्षा के केन्द्र में तथा विद्यार्थी परिधि पर अवस्थित रहा है। प्रत्येक विषय के अध्यापक अपने-अपने कक्ष में स्थिर रहते थे तथा हर स्तर के विद्यार्थी निर्धारित समयानुसार आकर शिक्षा ग्रहण करते थे। इस पध्दति में अध्यापक-विद्यार्थी के बीच आत्मीय एवं भावनात्मक सम्बन्ध बनता है तथा अध्यापक पर विद्यार्थी को अपने विषय की योग्यता प्रदान करने का दायित्व रहता है। 

वर्तमान शिक्षा में अध्यापक विद्यार्थी को योग्य बनाने के दायित्व से रहित है। इसलिये शिक्षा के यान्त्रिक हो जाने से डाक्टर, इंजीनीयर जैसे कल-पुर्जों का निर्माण तो हो रहा है लेकिन मानव का निर्माण बाधित हो गया है। शिक्षा को स्वदेशी, भावनात्मक तथा सार्थक बनाने के लिए सबसे पहले कक्षाओं का निर्माण विषयवार हो और विषय के अनुसार कक्षाओं को सजाया जाए। प्रवेश में अध्यापक की भूमिका निर्णायक हो। प्रबन्ध तन्त्र का वर्चस्व कम हो। अध्यापकों पर विद्यार्थी को योग्य बनाने का भार हो। अध्यापकों के प्रशिक्षण एवं चयन में उनके गुण, शील, चरित्र तथा शिक्षण कार्य के प्रति उनके समर्पण भाव का आकलन हो। जल, जमीन, जंगल एवं जानवरों के महत्व का ज्ञान कराने वाले पाठयक्रम का निर्माण हो। मानवीय चरित्र निर्माण के लिए आवश्यक पाठयक्रम का विकास हो। साथ ही अपने राष्ट्र, संस्कृति, भाषा-भूषा, आहार-व्यवहार के प्रति स्वाभिमान एवं गौरव के भाव का विकास हो। इसके अलावा प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर किताबों का बोझ कम हो और डिग्री-सार्टिफिकेट से अधिक योग्यता के विकास को महत्व दिया जाए। 

परीक्षाओं का संचालन एवं नियंत्रण इस प्रकार हो कि विद्यार्थी निर्भय होकर उत्साह से परीक्षा में बैठें। निजी शिक्षण संस्थाओं द्वारा किए जा रहे आर्थिक शोषण पर तो अंकुश लगना ही चाहिए। शिक्षण संस्थानों में प्रवेश एवं नियुक्तियों के संदर्भ में राजनीतिक हस्तक्षेप समाप्त होना चाहिए। महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों एवं अध्यापकों को सक्रिय राजनीति में भाग लेने पर रोक लगे। क्योंकि इससे दोनों स्तर पर एकता एवं सद्भाव का विघटन होता है तथा दोनों विभिन्न राजनीतिक गुटों में बंटकर शैक्षणिक परिसर को राजनीति का अखाड़ा बना देते हैं, जिससे विद्यार्थियों का शैक्षणिक विकास बाधित होता है। विद्यार्थी संघ का चुनाव तो हो लेकिन उसमें राजनीतिक गुटबाजी का प्रवेश निषेध हो। विद्यार्थी संघ का मुख्य कार्य इनके समस्याओं का समाधान एवं कल्याण हो। किसी भी राजनीतिक दल या नेताओं को उच्च शिक्षण संस्थानों में अपनी विचारधारा के प्रचार की अनुमति न हो। सभी जातियों एवं सम्प्रदायों के विद्यार्थियों को सभी स्तर पर शिक्षा का समान अधिकार एवं अवसर प्राप्त हो। 

वर्तमान शिक्षा में यदि ये परिवर्तन किए जा सकें तो संभव है विद्यार्थियों के भटकाव पर काफी हद तक लगाम लग जाए। ये बदलाव छात्रें में योग्यता का विकास करने में भी सहायक सिध्द होंगे। इसके परिणामस्वरूप उत्पादक प्रतिभा एवं मानवीय चरित्र से युक्त युवा उत्तम नागरिक बनकर परिवार को सुख, समाज को समृध्दि एवं राष्ट्र को शान्ति प्रदान कर सकेंगे।

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