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जंगल की दादी माँ' पद्मश्री श्रीमती लक्ष्मीकुट्टी अम्मा

जंगल की दादी माँ पद्मश्री  श्रीमती  लक्ष्मीकुट्टी अम्मा

नीरज पाठक

पद्मश्री  श्रीमती  लक्ष्मीकुट्टी अम्मा को हज़ारों लोग प्यार से 'जंगल की दादी माँ' कहते हैं। ये सभी लोग कल्लार के घने जंगलों में उनके पास इलाज के लिए जाते हैं। अम्मा एक कवियत्री हैं, चिकित्सक (पॉइजन हीलर) हैं और केरल फोकलोर अकादमी में एक शिक्षिका भी हैं।

 

75 साल की उम्र में भी वह लगातार 150 प्राकृतिक औषधीय पेड़-पौधों की देखभाल करतीं हैं। इन्हीं पेड़-पौधों की वजह से अब तक ज़हरीले साँपों द्वारा काटे गए लगभग 350 लोगों की जान बची है।     हर दिन, लक्ष्मीकुट्टी सुबह 5 बजे उठतीं हैं और रात में देर तक अपने हर्बल एक्सपेरिमेंट्स में लगी रहतीं हैं। इसी बीच में, वह अपने घर पर मदद के लिए आने वाले मरीज़ों को भी देखतीं हैं।

 

वह कहतीं हैं, "पीढ़ियों से चली आ रहे पारंपरिक ज्ञान की मदद से, मैं पिछले 46 सालों से साँप के काटने की पारंपरिक दवाइयाँ लोगों को दे रही हूँ। आप यहाँ तलहटी में साँपों को देख सकते हैं लेकिन वे मुझे नहीं काटते क्योंकि मैं अपने आसपास की प्रकृति के साथ सामंजस्य बना कर रखती हूँ।"

 

लक्ष्मीकुट्टी बतातीं हैं कि हर्बल उपचार पर उन्हें जो भी ज्ञान है, वह सब उन्हें अपनी माँ से मिला है। उनकी माँ दाई का काम करतीं थीं। लक्ष्मीकुट्टी और उनकी माँ ने कभी भी औषधीय पेड़-पौधों और उनके उपयोग के बारे में कहीं भी कुछ नहीं लिखा। ऐसे में केरल के वन विभाग ने उनके अनुभव के आधार पर एक किताब लिखने का फैसला किया है।

 

दिलचस्प बात यह है कि प्राकृतिक औषधीय ज्ञान के अलावा, लक्ष्मीकुट्टी को उनकी व्यंग्यात्मक कविताओं और लेखों के लिए भी जाना जाता है। उन्होंने जो कुछ भी हासिल किया है, उसके बावजूद वह यही कहतीं हैं कि वह जहाँ हैं, खुश हैं।

 

वह आगे कहतीं हैं, "बाहरी दुनिया ने मुझे बहुत कुछ दिया है, पुरस्कार, सम्मान, प्रकाशित किताबें और भी बहुत कुछ। लेकिन मैं यहीं रहना चाहतीं हूँ। जंगल में रहने के लिए आपको साहस चाहिए।

 

 इस विश्वपर्यावरणदिवस पर, हम देश के उन अनसुने आदिवासी नायक/नायिकाओं को सलाम करते हैं जो आज के सामाजिक संगठनों के अस्तित्व में आने के सालों पहले से प्रकृति की रक्षा कर रहे हैं!
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