चले बिहारी शहर छोड़कर
नीरज कुमार पाठक
बहुत उड़ाई जिसने खिल्लीरोएंगे अब बॉम्बे दिल्ली
जिनके बल उद्योग खड़े थे
हरियाणा, पंजाब हरे थे
अन्न उगाए नहर खोदकर
चले बिहारी शहर छोड़कर
करते थे वे इनका शोषण
कैसे मिलता तन को पोषण
मांग मांगने पर धमकाज्ञया
कुछ कर्मी को छांट दिखाया
दिखा रहे थे अकड़ बोलकर
चले बिहारी शहर छोड़कर
माना इनकी मजबूरी थी
तो तेरी भी मजबूरी थी
दोनों की ही आवश्यकतायें
दोनों से होती पूरी थी
पर रख न पाए इन्हें रोककर
चले बिहारी शहर छोड़कर
तुम केवल इनको ही क्यों
मजबूर समझते आए थे
मजदूरी कम निर्धारित कर
तुम इनका हिस्सा खाए थे
सुन लो तुम यह कान खोलकर
चले बिहारी शहर छोड़कर
सर पर चढ़कर नाच किये थे
दस के बदले पांच दिये थे
अपने माल का दस का सत्तर
खून चूसते बनकर मच्छर
काम किये ये कमर तोड़कर
चले बिहारी शहर छोड़कर
लॉक डाउन ने इन्हें चेताया
मर जाओगे भूखे भाया
जिनको तुम पर तरस न आई
दे पाएंगे क्या वो छाया
घर भागो हे सबल दौड़कर
चले बिहारी शहर छोड़कर
जिस गर्मी से सभी बेहाल
रोक सकी ना उनकी चाल
पैरों में पड़ गए फफोले
रोक न पाए ओले शोले
निकल पड़े वे ताल ठोककर
चले बिहारी शहर छोड़कर
भूख प्यास न उन्हें डिगाया
दृढ़ इच्छा ने जोश दिलाया
कोई रिक्शा कोई ठेला
पर परिजन को ढो कर लाया
मौन सभी सरकारी नौकर
चले बिहारी शहर छोड़कर
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