साधु की ठगविद्या
धनंजय जयपुरी प्राचार्य, लॉर्ड कृष्णा मॉडल स्कूल सुंदरगंज, औरंगाबाद, बिहार
सोमेश्वर की
प्रसिद्धि आस-पास के इलाके में सोमेश्वरानंद भारती के नाम से थी। ललाट पर त्रिपुंड,
बालों एवं दाढ़ियों की जगह लंबी-लंबी जटाएं,हाथों
में त्रिशूल एवं चिमटा,पावों में खड़ाऊं उसकी आडंबरी कलेवर
में चार चांद लगा रहे थे। आसपास के इलाके में भूत-पिशाचादि की परेशानियों से निजात
पाने के लिए उसे बड़े ही आदर के साथ ले जाया जाता था ।"कभी-कभी सुयोग और
संयोग के सायुज्य से छुद्रों का भी हस्त लाघव कामयाब हो जाता है।" ईश्वर की
कृपा से वह जिस बीमार व्यक्ति के माथे पर हाथ फेर देता, चंगा
हो जाता।
अगले दिन कार्तिक मास की पूर्णमासी आने वाली थी। गांव के लोगों में गंगा स्नान की होड़ सी लगी हुई थी।लखनपुर के लोग बनारस जाने के लिए काफी उत्सुक दिख रहे थे। ऐसा लग रहा था मानों एक बार गंगा स्नान कर लेने से उनके जन्म- जन्मांतर के पापों का नाश होना तय था। करीब दो दर्जन लोग सुबह ही वहां जाने के लिए रवाना हो चुके थे। कुछ की तैयारियां चल रही थी। साधु सोमेश्वर के दिल में बर्षों से दबी गंगा स्नान की इच्छा आज तीव्र हो उठी थी। वह भी बनारस जाने हेतु अपना कंबल- कमंडल लेकर तैयार हो चुका था। उसका मुंहलगा भतीजा दीपक भी लोगों को तैयार होते देखकर मचल उठा तथा बनारस ले चलने का हठ करने लगा। पहले तो साधु ने उसे साथ ले जाने से असमर्थता जाहिर की परंतु अत्यधिक जिद करने पर तैयार हो गया। दीपक की उम्र लगभग चौदह-पंद्रह साल की थी। सोमेश्वर के पास मात्र बीस रुपये थे जो दो व्यक्तियों को बनारस की यात्रा कर वापस लौटने के लिए नाकाफी थे।पैसे के अभाव से निजात पाने की उसने एक युक्ति सोची। पहले से ही उपलब्ध गेरुआ वस्त्र के एक अन्य जोड़े को उसने पहनने के लिए दीपक को दे दिया। उसके ललाट को त्रिपुंड से मंडित कर दिया। अब दीपक भी पूर्ण रूप से साधु बनकर तैयार था। सज-धज कर दोनों चाचा-भतीजा बनारस जाने हेतु ट्रेन पकड़ने के लिए पैदल ही अनुग्रह नारायण रोड स्टेशन के लिए रवाना हो गए।रास्ते के कलेवे का इंतजाम उन्होंने घर से ही कर लिया था। शाम पांच बजे आसनसोल-वाराणसी पैसेंजर स्टेशन पर रुकी, जिसमें दोनों सवार हो गये। गाड़ी तो यात्रियों से खचाखच भरी हुई थी फिर भी साधु-महात्मा समझ कर यात्रियों द्वारा उन्हें सीट उपलब्ध करा दी गई। गाड़ी अपने गंतव्य की ओर तीब्र गति से रवाना हो चली। साधु ने अपनी झोली से चिलम निकाली, हाथ पर गांजा रगड़ा तथा बिना किसी की परवाह किये आग लगाकर दम लगाना शुरू कर दिया। इधर साधु दम पर दम लगाए जा रहा था उधर अगल-बगल बैठे यात्रियों का गांजे की दुर्गंध से दम निकला जा रहा था, फिर भी उसकी लाल-लाल आंखों के सामने अपनी जुबान खोलने की हिम्मत किसी में न हो सकी। साधु अपनी लाल-लाल आंखें किए बगल की सीट पर बैठे एक व्यक्ति के माथे पर हाथ फेरते हुए बोला- बच्चे,मैं भगवान शंकर का परम भक्त हूं। उनकी कृपा से मुझे कुछ सिद्धियां भी प्राप्त हो चुकी हैं जिनके बल पर तुम्हारे मस्तक पर मंड़राते हुए काल को मैं स्पष्ट रूप से देख रहा हूं। भगवत कृपा से मुझे यह ज्ञात हो गया है कि आज के ठीक आठवें दिन तुम्हारे ऊपर भारी विपत्ति आने वाली है, जिसके परिणामस्वरूप तुम्हारी शारीरिक, आर्थिक एवं मानसिक क्षति होने की संभावना बन रही है।
अगले दिन कार्तिक मास की पूर्णमासी आने वाली थी। गांव के लोगों में गंगा स्नान की होड़ सी लगी हुई थी।लखनपुर के लोग बनारस जाने के लिए काफी उत्सुक दिख रहे थे। ऐसा लग रहा था मानों एक बार गंगा स्नान कर लेने से उनके जन्म- जन्मांतर के पापों का नाश होना तय था। करीब दो दर्जन लोग सुबह ही वहां जाने के लिए रवाना हो चुके थे। कुछ की तैयारियां चल रही थी। साधु सोमेश्वर के दिल में बर्षों से दबी गंगा स्नान की इच्छा आज तीव्र हो उठी थी। वह भी बनारस जाने हेतु अपना कंबल- कमंडल लेकर तैयार हो चुका था। उसका मुंहलगा भतीजा दीपक भी लोगों को तैयार होते देखकर मचल उठा तथा बनारस ले चलने का हठ करने लगा। पहले तो साधु ने उसे साथ ले जाने से असमर्थता जाहिर की परंतु अत्यधिक जिद करने पर तैयार हो गया। दीपक की उम्र लगभग चौदह-पंद्रह साल की थी। सोमेश्वर के पास मात्र बीस रुपये थे जो दो व्यक्तियों को बनारस की यात्रा कर वापस लौटने के लिए नाकाफी थे।पैसे के अभाव से निजात पाने की उसने एक युक्ति सोची। पहले से ही उपलब्ध गेरुआ वस्त्र के एक अन्य जोड़े को उसने पहनने के लिए दीपक को दे दिया। उसके ललाट को त्रिपुंड से मंडित कर दिया। अब दीपक भी पूर्ण रूप से साधु बनकर तैयार था। सज-धज कर दोनों चाचा-भतीजा बनारस जाने हेतु ट्रेन पकड़ने के लिए पैदल ही अनुग्रह नारायण रोड स्टेशन के लिए रवाना हो गए।रास्ते के कलेवे का इंतजाम उन्होंने घर से ही कर लिया था। शाम पांच बजे आसनसोल-वाराणसी पैसेंजर स्टेशन पर रुकी, जिसमें दोनों सवार हो गये। गाड़ी तो यात्रियों से खचाखच भरी हुई थी फिर भी साधु-महात्मा समझ कर यात्रियों द्वारा उन्हें सीट उपलब्ध करा दी गई। गाड़ी अपने गंतव्य की ओर तीब्र गति से रवाना हो चली। साधु ने अपनी झोली से चिलम निकाली, हाथ पर गांजा रगड़ा तथा बिना किसी की परवाह किये आग लगाकर दम लगाना शुरू कर दिया। इधर साधु दम पर दम लगाए जा रहा था उधर अगल-बगल बैठे यात्रियों का गांजे की दुर्गंध से दम निकला जा रहा था, फिर भी उसकी लाल-लाल आंखों के सामने अपनी जुबान खोलने की हिम्मत किसी में न हो सकी। साधु अपनी लाल-लाल आंखें किए बगल की सीट पर बैठे एक व्यक्ति के माथे पर हाथ फेरते हुए बोला- बच्चे,मैं भगवान शंकर का परम भक्त हूं। उनकी कृपा से मुझे कुछ सिद्धियां भी प्राप्त हो चुकी हैं जिनके बल पर तुम्हारे मस्तक पर मंड़राते हुए काल को मैं स्पष्ट रूप से देख रहा हूं। भगवत कृपा से मुझे यह ज्ञात हो गया है कि आज के ठीक आठवें दिन तुम्हारे ऊपर भारी विपत्ति आने वाली है, जिसके परिणामस्वरूप तुम्हारी शारीरिक, आर्थिक एवं मानसिक क्षति होने की संभावना बन रही है।
इन बातों को सुनते ही यात्री का चेहरा मुरझा गया। उसे लगने लगा कि सचमुच कोई बड़ी विपत्ति हमारे सामने खड़ी है। वह साधु के चरणों में गिर पड़ा और गिड़गिडा़ते हुए बोला- आप कोई बड़े तपस्वी जान पड़ते हैं, जिन्होंने मेरे भविष्य में आने वाली विपत्तियों के बारे में जान लिया है। वैसे तो मेरे ऊपर विपत्तियों की काली छाया तो पड़नी शुरू ही हो गई है। कल सुबह ही मेरा भतीजा खो गया है, जिसे शाम तक ढूंढा गया परंतु उसका कोई अता-पता नहीं चल सका। सुबह एक तांत्रिक ने बताया कि वह मुगलसराय के समीपवर्ती किसी गांव में है। जाओ वह तुम्हें वहां मिल जाएगा। सो उसे ढूंढने मैं मुगलसराय जा रहा हूं।ईश्वर की असीम अनुकंपा से आप जैसे संतों के दर्शन संभव हो पाते हैं। आप मुझे कोई ऐसा उपाय बताएं जिससे मेरे ऊपर आने वाला संकट टल जाए। साधु ने अपनी आंखों को गोल-गोल घुमाते हुए कहा- हां टल सकता है, लेकिन इसके लिए कुछ साधनाएं करनी पड़ेंगी। तुझे कृष्णपक्ष की प्रतिपदा( जो परसों आ रही है) से तीन दिनों तक श्मशान घाट में जाकर कुछ तांत्रिक क्रियाएं करनी पड़ेंगी क्योंकि तुम्हारे ऊपर महाडाकिनी का प्रकोप शुरू हो गया है। यह डाकिनी ऐसी है कि जिस पर पड़ जाती है उसका समूल ही विनाश कर देती है। उस यात्री का शरीर हवा के झोंके से कांपते हुए पत्ते की भांति थर-थर कांपने लगा। वह गिड़गिड़ाते हुए बोला- महात्मन! आप इस विषय के जानकार हैं, जितना कहें मैं पैसों का इंतजाम कर देता हूं, आप हमारी रक्षा का उपाय कर दें। साधु ने कहा - अब तुम कह ही रहे हो तो कुछ न कुछ इंतजाम तो करना ही पड़ेगा।इस तरह डरा-धमका कर साधु ने उससे तीन सौ रुपये ऐंठ लिए। पैसे दे देने के बाद यात्री को भी आत्मिक शांति की प्रतीति हुई ।
भभुआ रोड स्टेशन पर टिकट चेक करने के लिए तीन टीटियों का दल बोगी में प्रवेश किया।सारे यात्री अपना-अपना टिकट दिखला कर निश्चिंत हो रहे थे। एक टीटीई साधु के पास पहुंचकर उससे टिकट मांगा। साधु ने अपनी आंखें तरेरते हुए बोला- हम साधु-संत यात्रा करने के लिए टिकट नहीं लेते। टीटीई ने कहा महात्मा जी हमारी ड्यूटी टिकट चेक करने की है और हमें ऐसा निर्देश नहीं है कि साधु-महात्माओं से टिकट नहीं लेना है। इतना सुनते ही वह भड़क उठा और अपनी त्यौरियों पर बल देते हुए तेज आवाज में बोलने लगा-क्या भारतवर्ष में साधु-महात्माओं की कोई इज्जत नहीं रह गई है, हम जैसे संत जो देश की उन्नति के लिए अहर्निश साधना करते रहते हैं, को भी यात्रा करने हेतु टिकट की आवश्यकता पड़ेगी?जाओ- जाओ टीटी बाबू!हम महात्माओं के पास किसी को देने के लिए आशीर्वाद के सिवा कुछ है ही कहां, जो तुम्हें दूं। टीटीई ने कहा- हम सरकार के सेवक हैं और उसके नियम-कानून के अनुसार चलना हमारा कर्तव्य है। मुझे तो आपसे अभी टिकट की ही आवश्यकता है सो कृपा कर दें।साधु ने अपनी आंखों से अंगारों की वर्षा करते हुए बोला- यदि तुम नहीं मानोगे तो मैं तुझे शाप दे दूंगा जिसके प्रभाव से तुरंत भस्म हो जाओगे। चूंकि हमारे देश में साधु- संतों के सत्कार एवं सम्मान देने की परंपरा सनातन से चलती आ रही है इसलिए अगल-बगल के यात्रियों ने किसी तरह समझा बुझाकर टीटी को आगे रवाना कर दिया।
रात के साढ़े बारह बजे गाड़ी वाराणसी जंक्शन पर पहुंची। यात्रियों की भीड़ का लाभ उठाते हुए चाचा-भतीजा स्टेशन पर तैनात टिकट चेकरों को चकमा देते हुए बाहर निकल गए। स्टेशन के बाहर फुटपाथ पर उन्होंने कंबल बिछाया।घर से लाये भोज्य-पदार्थों को खाकर सड़क के किनारे लगे चापाकल पर पानी पिया और दोनों ने खुद को निद्रा देवी के हवाले कर दिया। सुबह पांच बजे दीपक ने अपने चाचा को जगाया। बगल के सुलभ शौचालय में दोनों ने साधुई शौकत के बल पर बिना शुल्क दिये ही बारी-बारी से शौचादि से निवृत्ति पायी ।तदुपरांत दो रुपये में एक रिक्शा तय करके दशाश्वमेध घाट जाने के लिए उस पर सवार हो गए। रिक्शा पर बैठे दोनों गेरुआ वस्त्रधारियों की छवि देखते ही बनती थी। रास्ते में राहगीर बड़े ही प्रेम-भाव से उन्हें प्रणाम करते और अपने को सौभाग्यशाली मानते, मानो उनके जन्म भर के संचित पुण्यकर्मों का उदय हुआ हो। रिक्शा चालक जल्द ही उन्हें गोदौलिया चौक होते हुए दशाश्वमेध घाट के निकट पहुंचा दिया।रास्ते में साधु ने रिक्शा चालक को पूर्णमासी के दिन साधु-महात्मा की नि:स्वार्थ सेवा और दान की महत्ता अन्य दिनों से कई गुना अधिक बतलाया जिसके प्रभाव से चालक ने यह कहते हुए उनसे किराया लेने से मना कर दिया कि आप जैसे संतों के दर्शन ही कई जन्मों के पुण्यकर्मों के फलस्वरूप होते हैं। वह कौन अभागा होगा जो आपकी थोड़ी सी सेवा के बदले रुपए ले। मैं आपसे किराया लेकर पाप का भागी नहीं बनना चाहता। साधु ने इसे रेलवे पुल से पार करते हुए गंगा-दर्शन का पुण्य फल समझकर गंगा मईया को मानसिक प्रणाम किया।
सीढ़ियों से उतरते हुए वे गंगा तट पर पहुंचे। कार्तिक पूर्णिमा के दिन वहां काफी भीड़भाड़ होती है। दूरदराज के लोग गंगा स्नान की कामना से वहां इकट्ठे होते हैं। सोमेश्वर ने यह सोचकर आठ-दस डुबकियां लगाई मानों वह अपने जीवन भर के सारे पाप-कर्मों को गंगा की लहरों में प्रवाहित कर रहा हो। दीपक ने भी जी भरकर स्नान किया। स्नानोपरांत दोनों ने अपने-अपने ललाट पर भड़कदार त्रिपुंड तिलक लगाए जिसके बाद उनके मुखमंडल से आभा का संचार होने लगा।
अब वे काशी विश्वनाथ के दर्शनों के लिए चल पड़े।साधु के खड़ाऊं की चट-चट की आवाज के साथ-साथ उच्च स्वर में उच्चरित होते जय भोले भंडारी, हर-हर महादेव, जय मां गंगे आदि शब्दों के टंकार से खचाखच भरी सड़कों में भी उनका रास्ता प्रशस्त होता जाता। साधु के भारी भरकम शरीर,लाल-लाल आंखें एवं भड़कदार पहनावे को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों साक्षात् परशुराम ही भगवान भोलेनाथ के दर्शनों की कामना लिए वहां प्रस्तुत हो गए हों। खैर! आसानी पूर्वक साधु ने अपने भतीजे के साथ काशी विश्वनाथ के दर्शन किए एवं अपनी मानसिक कामनाओं की सूची उनके चरणों में अर्पित की।
भोलेनाथ के दर्शन कर लेने के पश्चात् दीपक को भूख की अनुभूति हुई। उसने साधु से कहा- चाचाजी मुझे भूख लगी है ,कुछ खाने-पीने का प्रबंध कीजिए। साधु ने कहा- ठीक है, कोई अच्छा सा होटल देख कर हम लोग भोजन कर लेंगे। कुछ ही क्षणों के बाद वे एक बढ़िया होटल में पहुंचे जिसके बोर्ड पर *"शुद्ध शाकाहारी भोजनालय"* लिखा हुआ था। होटल के काउंटर पर बैठे व्यक्ति से साधु ने पूछा- क्या हमें यहां शुद्ध सात्विक भोजन मिल सकता है जिसमें लहसुन, प्याज का भी उपयोग नहीं किया गया हो? व्यक्ति ने जवाब दिया- हां-हां क्यों नहीं? मेरे यहां तो बिना लहसुन प्याज का ही भोजन बनता है, इसमें आपको शंका करने की कोई आवश्यकता नहीं है। साधु ने कहा-भई!हम साधु-संत ठहरे,स्टील के बर्तन में तो भोजन करते नहीं, संभव हो तो हमें फूल के बर्तन (थाली, लोटा, ग्लास) में भोजन करा दीजिए। दुकानदार ने कहा- हां- हां महात्मन!आप इत्मीनान होकर बैठिये।हमारे यहां फूल के भी दो सेट बर्तन उपलब्ध हैं।आप दोनों के लिए हम उसी में भोजन की व्यवस्था करवाते हैं। साधु, दीपक के साथ होटल के अंदर जाकर पहले तो बेसिन में हाथ-मुंह धोया, फिर बड़े इत्मीनान से बेन्च पर बैठ गया ।दीपक ने दुकानदार से पूछा-एक व्यक्ति के भरपेट भोजन का चार्ज कितना लगता है? दुकानदार ने बतलाया- बीस रुपये ।उसने दो थालियों में भोजन परोसने का आर्डर दिया। नौकर ने दो थालियों एवं तस्तरियों में भोजन के साथ-साथ फूल के लोटे और गिलास में पानी भी दोनों के सामने रख दिया। भोजन में बासमती चावल, अरहर की दाल, दो प्रकार की सब्जियां, चटनी, अचार, पापड़, सलाद और घी भी परोसा गया।दोनों ने खूब छककर खाना खाया। होटल में करीब पचास- साठ की संख्या में भोजनार्थी भोजन करने में मशगूल थे। भोजनोपरांत दीपक साधु के इशारे पर दुकान के काउंटर के ठीक सामने खड़ा हो गया तथा दुकानदार से रुपए वापसी की मांग करने लगा।दुकानदार ने कहा- आपने मुझे पैसे दिए कहां जो वापस मांग रहे हैं? जोर-जोर से चिल्लाते हुए दीपक ने कहा- मैंने अभी तो आपको सौ रुपये के नोट दिए हैं जिसमें चालीस काटकर साठ रुपये वापस करने हैं। बच्चा समझकर आप मुझे ठगने का प्रयास कर रहे हैं?दुकानदार बार-बार कहे जा रहा था कि आपसे भूल हुई है,आपने मुझे पैसे नहीं दिए हैं।इस पर दीपक और भी उग्र हो गया तथा उससे झगड़ा करने पर उतारू हो गया। सामने की बेंच पर बैठा साधु, जो इस मजमें का सूत्रधार था, घड़ियाली आंसू बहाते हुए फफकने लगा और बोल पडा़-हे भगवान! कैसा जमाना आ गया है, अब तो साधु- संतों को भी धोखा देने से लोग नहीं चूक रहे हैं। मैंने कहानियों में सुन रखा था कि बनारसी लोग ठग होते हैं।यहां बहुतेरे लोग ठगी का शिकार हो जाते हैं ।परंतु आज तो मैं खुद ही ठगी का शिकार हुआ जा रहा हूं। अभी-अभी मैंने दीपक को सौ रुपये का नोट देकर दुकानदार के पास भेजा था जिसमें चालीस कटवा कर साठ रुपये वापस लाने थे। यह दुकानदार इसे बच्चा समझ कर ठगी करने पर उतारू है।हंगामे की आवाज सुनकर दुकान में भोजन करने वाले लोगों के साथ-साथ सड़क पर आने-जाने वाले लोगों की भी भीड़ इकट्ठी हो गई।साधु ने अपनी आवाज को बुलंद करते हुए कहा- हम साधु-संत भला दूसरों का धन हड़पना या धोखा देना क्या जानें? हम तो जहां भी चलते हैं अपने खाने-पीने की वस्तुओं के साथ- साथ फूल के बर्तन (थाली, लोटा, ग्लास,तस्तरी) लिए चलते हैं। भोजन की सामग्री खत्म हो जाने के बाद लाचारी में किसी शुद्ध,सात्विक होटल में भोजन कर लिया करते हैं। लोगों का ध्यान आकृष्ट कराते हुए उसने कहा- यह दुकानदार हमें परदेसी समझ कर ठगने पर तुला हुआ है ।ऐसा भी हो सकता है कि यह कहने लगे कि हमने जिन बर्तनों में भोजन किया हैक वे भी इसी के हैं ।वहां पर उपस्थित लोगों की सहानुभूति भी साधु के साथ ही थी क्योंकि हमारे देश में साधु-संतों को ईश्वर का प्रतिरुप माना जाता है।
दुकानदार समझ चुका था कि यहां कुछ भी दलील देना मेरे लिए नुकसानदेह ही होगा। वह अपनी बेईज्जती के साथ साथ दुकान का भी नाम खराब नहीं करना चाहता था। परिस्थितियों से बाध्य होकर वह अपनी ही गलती स्वीकार करते हुए साठ रुपये के साथ- साथ दोनों द्वारा जिन बर्तनों में भोजन किया गया था, को भी वापस करते हुए उन्हें विदा किया।
साधु अपनी कामयाबी का दंभ भरता हुआ अपने घर वापस आने के लिए स्टेशन की ओर इस तरह चला मानों कोई योद्धा बड़ा जंग जीतकर वापस लौट रहा हो।
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