
लगभग चौबीस साल पहले की बात है। बिहार के एक दूरदराज के गांव में पसीने से सना छतरराम ईंट-भट्टे में कोयला झोंक रहे थे ताकि घर में पेट की आग बुझाने के लिए चूल्हा जल सके। एक तरफ रोजी-रोजी की जद्दोजहद थी, तो दूसरी तरफ घर में उनकी पत्नी बहुत ज्यादा बीमार थी। बच्चों के लिए भी कुछ खाने की व्यवस्था करनी थी और ऊपर से पत्नी की बीमारी। आमदनी का यही एकमात्र जरिया था। जेठ की गर्मी में थोड़े से पैसे की उम्मीद में वह बिना थमे और रुके लगातार अपने काम में लगे हुए थे। ईंट-भट्टे के दम घोंटू धुएं में प्यास से बेहाल, पसीना पोंछते जाते। तभी घर की तरफ से भागकर आते हुए हांफते-घबराते, बदहवास बेटे सुरेश ने आकर बताया कि मां नहीं रही।
छतरराम यह खबर सुनते ही स्तब्ध रह गया। दरअसल सही इलाज नहीं मिलने के चलते उसकी पत्नी असमय काल के गाल में समा गई। छतरराम ने फिर एक बार खुद को बेबस महसूस किया। उसे लगा अब जैसे जीने की उम्मीद ही खत्म हो गई हो, अब बचा ही क्या है, जिसके लिए वह खुद को चार पैसों के लिए तपते ईंट के भट्टों में झोंके। लेकिन यह हताशा ज्यादा समय नहीं रही और उसे अहसास हुआ कि उसकी पत्नी की निशानी उसका बेटा अभी उसके साथ है, जिसका भविष्य उसे बनाना है, ताकि जो भयानक जिंदगी वह जी रहा है, वह जीवन उसके बच्चे के नसीब में न हो। खुद अशिक्षित होने के बावजूद उन्होंने तय किया कि उनका बेटा पढ़ेगा, मजदूरी नहीं करेगा।
उन्हें लगा कि सिर्फ अच्छी पढ़ाई ही जिंदगी को बेहतर बनाने की राह बना सकती है और पढ़-लिखकर ही उनकी बेटा इस गरीबी के अभिशाप से उन्हें व खुद को मुक्त करा सकता है। वे समझ गए कि इसके अलावा अब उनके पास कोई और चारा नहीं है। समय गुजरा और फिर सुरेश अपनी दसवीं कक्षा पास करता है। छतरराम की सारी उम्मीदें अब सुरेश पर केंद्रित हो जाती हैं। लेकिन जब वे पटना में दाखिल होते हैं, तो उन्हें बेटे की आगे की पढ़ाई असंभव लगती है। महंगे स्कूल, उससे महंगे कोचिंग संस्थान। ऊपर से एक नहीं कई सारी कोचिंग। अनपढ़ छतरराम को समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर जाएं तो किधर जाएं?
इत्तेफाक से छतरराम को कहीं से सुपर 30 का पता चला, तो उम्मीद की किरण उन्हें मेरे पास ले आई। छतरराम को यह सुनकर बड़ी राहत मिलती है कि यहां न सिर्फ पढ़ाई मुफ्त है, बल्कि बच्चे के रहने और खाने-पीने की फिक्र भी उन्हें नहीं करनी होगी। वह बड़ी आस लिए मेरे सामने खड़े थे। उन्होंने अपनी पूरी कहानी तसल्ली से मुझे सुनाई और अपना सपना अपने बेटे के रूप में मुझे सौंप दिया। मुझे दोनों पिता-पुत्र की लगन और जुनून पसंद आया। यही एक चीज है, जो सारी मुश्किलों और दुविधाओं में से भी आपको निकालकर सबसे आगे ले जाती है। फिर सुरेश ने दो साल कड़ी मेहनत की। विषय को गहराई तक जाकर समझने की अद्भुत ललक उसमें थी। 2005 में छतरराम को उसी ईंट-भट्टे पर वह जाकर बताता है कि उसका चयन आईआईटी में हो गया है। पिता-पुत्र मिठाई लेकर भरी आंखों से मेरे पास आते हैं। आखिरकार सुरेश दिल्ली आईआईटी में सिविल इंजीनियरिंग के छात्र के रूप में प्रवेश करता है। वक्त पंख लगाकर उड़ता है।
हर छोटी सफलता सुरेश को उत्साहित करती है। इधर वह मेहनत में कोई कसर नहीं छोड़ता, उधर छतरराम भी मौसम की परवाह किए बिना चार पैसे कमाने में कोई आलस नहीं करते। वक्त को तो बदलना ही था। फिर पढ़ाई पूरी होने के बाद सुरेश की नौकरी एक बड़ी कंपनी में लग गई और बड़े सम्मान भी मिले। सुरेश ने अपने मेहनतकश पिता को ईंट-भट्टों में उसके बाद कभी नहीं जाने दिया। उन्हें दिल्ली बुलाया, अपने साथ रहने के लिए। जिंदगी का सबसे नामुमकिन सा सपना साकार होता हुआ देखने के लिए। अब सुरेश का परिवार संपन्न घर में रहता है, जहां छतरराम अपने बीते वक्त की यादें ताजा करके अक्सर भावुक हो जाते हैं। मुझे लगता है कि एक बार कोई ठान ले कि उसे अपने मौजूदा हालातों से बाहर आना है, फिर कुदरत भी अपना काम करती है। छतरराम और सुरेश की कहानी का यही सबक है।
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source https://www.bhaskar.com/local/bihar/patna/news/look-at-the-goal-you-want-to-become-nature-will-also-support-you-again-127498085.html
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