आधुनिक
विज्ञान का आधार है भारत
लेखक:- प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज,(लेखक प्रसिद्ध विचारक और समाजशास्त्री हैं)
भारत पर
अंग्रेजों की असली जीत 14 एवं 15 अगस्त 1947 ईस्वी को हुई, क्योंकि
उस दिन पहली बार वे भारत में एक ऐसे उत्तराधिकारी समूह को अपनी सत्ता सौंप कर जाने
में सफल हुये जो उनसे कई गुना बढ़कर अंग्रेजों का भक्त था और जो प्रत्येक भारतीय
सत्य और तथ्य से या तो अपरिचित था या फिर उससे उसे द्वेष और चिढ़ थी। इस
उत्तराधिकारी समूह के शीर्ष पुरूष हैं जवाहरलाल नेहरू। गांधीजी निश्चित ही
अंग्रेजों के मित्र थे परंतु वे भारत से बिलकुल भी विद्वेष नहीं रखते थे। अत: उनके
रहते नेहरू और उनके अनुयायियों को ऐसी अंतहीन सुविधा नहीं मिलती कि वे भारतीय
ज्ञान परंपरा का जड़ मूल से नाश तो करें हीं, शिक्षित
भारतीयों के चित्त और बुद्धि से भारत के प्रति किसी भी प्रकार की सच्ची श्रद्धा और
जिज्ञासा का विलोप कर दें तथा उनके मन में भारत के प्रति ग्लानि, तिरस्कार और उपहास का भाव भर दें।
यह तो भला
हो यूरोप में उभरी वैज्ञानिक चेतना का कि अपने तमाम यूरो-ईसाई पूर्वाग्रहों के बाद
भी वहां के विज्ञानी सत्य के प्रति यथासंभव समर्पित रहते हैं और जो तथ्य वे
प्राप्त करते हैं उनको समायोजित करने का प्रयास अवश्य करते हैं। यह तथ्य तो अब
सर्वविदित है कि गणित की संख्याओं और शून्य का ज्ञान भी भारत से तुर्की गया
क्योंकि तुरूष्क लोग भरतवंशी क्षत्रिय ही थे और भारत के ज्ञान के प्रति उनमें सदा
प्रचंड आकर्षण था। संस्कृत के शीर्ष विद्वानों को बुलवाकर उनसे आधारभूत संस्कृत
ग्रंथो का तुर्की में अनुवाद उन्होंने बड़े पैमाने पर करवाया। अंग्रेजों के
साम्राज्यवादी समूह ने तुर्की और जर्मनी की मैत्री के कारण तुर्की से गहरा विद्वेष
पालते हुये इतिहास से तुर्की का नाम ही मिटा देने की कोशिश की है। इसलिए वे तुर्की
के समस्त ज्ञान विज्ञान को अरबों का ज्ञान बताते रहे हैं और इसीलिये गणित को भी
अरबों के द्वारा प्राप्त बताते रहे जबकि वस्तुत: उन्होंने तुर्की के द्वारा ही
शून्य सहित संख्याओं आदि का ज्ञान प्राप्त किया था।
वस्तुत:
दलदलों और घने जंगलों से भरे उत्तर के उस पूरे क्षेत्र जिसे 19वीं शताब्दी ईस्वी में पहली बार यूरोप कहा गया है, में
इतनी विरल आबादी थी और दो-दो, चार-चार झोपडिय़ों और झुरमुटों
में रहने वाली बसाहटों को इतनी कम जानकारी थी कि वे दुनिया से पूरी तरह कट गये थे।
मध्ययुगीन चर्च ने उन्हें दुनिया से काटने का पूरा प्रबंध भी किया था। प्रकृति की
ओर से भी चूंकि उन्हें न तो पर्याप्त जल उपलब्ध था और न ही उष्ण और समशीतोष्ण
कटिबंध में उपजने वाले फल और अन्न उपलब्ध थे। इसलिये कंगाली और भुखमरी वहां
सर्वव्यापक थी। भेड़ों की ऊन और पेड़ों की छाल के सिवाय पहनने के लिये वस्त्रों के
विषय में न तो साधन थे और न ज्ञान। ऊन आदि भी इतने दुर्लभ थे कि केवल धनी लोग ही
उनका सामान्य उपयोग कर पाते थे। गेहूँ, कपास या गन्ने के
विषय में तो उन्होंने कुछ सुना ही नहीं था और रंगों की विविधता का भी उन्हें कोई
ज्ञान नहीं था। पृथ्वी को चपटी मानने के कारण वे अपने आस-पास के ही विषय में जानकर
तृप्त रहते थे और संसार के विषय में कोई गहरी जिज्ञासा भी नहीं थी।
बाईबिल में
तथा यवन ग्रंथों में वर्णित इंडीज के आकर्षण से मार्को पोलो भारत के राजाओं के नाम
पोप की चि_ी लेकर चीन और भारत गया और घूमकर
लौटा। तब रोम और वेनिस सहित कुछ शहरों के धनियों को पहली बार पता चला कि घड़ी नाम
की भी कोई चीज है और नक्शे भी होते हैं तथा नक्शों में ऐसी प्रमाणिकता भी होती है।
कागज भी होता है, बारूद भी होता है तथा चटख रंग भी होते हैं
और सूती तथा रेशमी वस्त्र भी होते हैं। विरल आबादी के कारण मार्को पोलो के संस्मरण
धीरे-धीरे फैले और फिर उस क्षेत्र के, जिसे अब यूरोप कहा
जाता है, साहसी और जीवट वाले लोग धन-साधन की खोज में भारत की
ओर दौडऩे लगे। यद्यपि उनके पास केवल छोटी-छोटी डोंगियां थीं जिनके द्वारा समुद्र
के किनारे वाले हिस्से से ही वे चप्पू चलाते हुये जा पाते थे परंतु धन-साधन पाने
का आकर्षण प्रचंड था और इसके लिये उन्होंने जान की बाजी लगा दी जो आज सर्वविदित
है।
सबसे पहले
भारत में जर्मन लोग अपेक्षाकृत अधिक संख्या में आये और उन्होंने संस्कृत भी सीखी
तथा भारत से गणितशास्त्र, आयुर्वेदशास्त्र,
विमानशास्त्र आदि के अनेक ग्रंथ लेकर गये और वहां उनका जर्मन अनुवाद
कराया। इसके बाद तो डच, पुर्तगीज, फ्रेंच,
अंग्रेज आदि सभी जातियों के दुस्साहसी और दमदार लोग यह जोखिम उठाने
लगे और उदार मानवतावादी भारतीयों के सद्व्यवहार से लाभ उठाने लगे।
यह तथ्य तो
आज व्यापक हैं कि आयुर्वेद का अर्थात् चिकित्साशास्त्र का और शल्य चिकित्सा का
ज्ञान उन्होंने भारत से ही सीखा। शल्य चिकित्सा वाली बात तो चिकित्साशास्त्र के
यूरो-अमेरिकी विश्वविद्यालयों में पढ़ाई भी जाती है। स्वयं अंग्रेजों ने ये विवरण
दिये हैं कि 19वीं शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ
में उन्होंने भारत में शल्य चिकित्सा में दक्ष समूह देश भर में जगह-जगह देखे जो
कटी हुई नाक या अन्य कटे हुये हाथ आदि अंगों को कुशलता से जोड़ देते थे और ‘ट्रांसप्लांट’ करने में बहुत कुशल थे। इसके साथ ही
चेचक का टीका लगाते हुये उन्होंने लोगों को देखा। इसी प्रकार लोहे से इस्पात बनाते
और उत्कृष्ट तलवारें बनाते पहली बार उन्होंने भारत में ही देखा। बर्फ बनाने की
प्रक्रिया भी यहीं देखी। इतना तो स्वयं ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों ने
विस्तार से लिखा है।
चरक और
सुश्रुत संहिताओं में मानव देह और उसके विविध अंगों तथा उनके स्वस्थ एवं विकृत
रूपों के लक्षणों और रोग के लक्षणों का और उनके उपचारों का जैसा विस्तार से वर्णन
है वह यूरोप में केवल 20वीं शताब्दी ईस्वी
में संभव हुआ है। उसमें भी आहार और विहार, भोजन तथा पोषण और
औषधि तथा चिकित्सा का जिस स्तर का ज्ञान इन दोनों आयुर्वेद ग्रंथों में है,
वह अभी भी यूरोपीय विज्ञान के लिये दूर का लक्ष्य ही है।
फार्माकोलॉजी जिसमें औषधियों और चिकित्सा संबंधी विस्तृत ज्ञान आता है तथा विभिन्न
औषधि वृक्षों वनस्पतियों आदि का ज्ञान आता है तथा रसों और रसायनों का ज्ञान
आयुर्वेद में, वह यूरोप के आधुनिक ज्ञान की तुलना में बहुत
विस्तृत है। सबसे पहले निकोलस कल्पेपर ने 17वीं शताब्दी
ईस्वी में ही इन भारतीय शास्त्रों का अध्ययन किया था और इनके अनुवाद किये थे। बाद
में प्रिटिंग प्रेस के आने के बाद उनका प्रकाशन भी सरल हो गया। लंदन में
यूनिवर्सिटी कॉलेज में फार्माकालॉजी विभाग की स्थापना 20वीं
शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ में ही की जा सकी है। इससे स्पष्ट होता है कि जो ज्ञान
भारत में लाखों वर्षों से या अज्ञात काल से इन सभी विषयों में रहा है, उसका ज्ञान 19वीं और 20वीं
शताब्दी ईस्वी में जाकर यूरोप को पहली बार हुआ है।
इसी प्रकार
विमानशास्त्र वाली बात अब सर्वविदित है और उसके विषय में ये भी सर्वमान्य है कि
संभवत: जानबूझकर उसके कुछ अंश ऐसे छिपा दिये गये जिनसे कि वे सब लोग जिनमें
वैज्ञानिक प्रतिभा है, सरलता से विमान बनाने
का शास्त्र न सीख सकें।
यह भी आज
सर्वविदित है कि यूरोप के विविध देश भारत से जो विज्ञान के ग्रंथ और कुछ
वैज्ञानिकों को भी ले जाकर अपने-अपने देश में कोई चीज सीखते थे तो उसे ‘डिस्कवरी या खोज’ का नाम देते थे और अपने उन प्रयोग
स्थानों में अन्य देशों के लोगों का प्रवेश पूरी तरह वर्जित रखते थे। इंग्लैंड,
फ्रांस, पुर्तगाल, स्पेन
आदि अलग-अलग देशों के लोग किस प्रकार एक-दूसरे के यहाँ के वैज्ञानिक जानकारियों की
चोरी करते थे, इस पर आज प्रचुर साहित्य उपलब्ध है।
परंतु इस
बीच भारत में तो ऐसा व्यापक अज्ञान 15
अगस्त 1947 ईस्वी के बाद फैला दिया गया कि औसत शिक्षित
भारतीय तो यहां तक मानता है कि यूरोप में सदा से रेलें थीं, बिजली
थी और विज्ञान भी था। इसीलिये हमने प्रारंभ में ही यह कहा कि वस्तुत: भारत पर
अंग्रेजों की विजय 14 व 15 अगस्त 1947 को ही हुई है।
यह
सर्वविदित है कि ब्रह्माण्ड के विविध पिंडो की गति सहित अंतरिक्ष के विषय में
विशाल जानकारी भारत में अत्यन्त प्राचीनकाल से थी। सूर्य सिद्धांत का विवरण स्वयं
आर्यभट्ट और वराहमिहिर ने दिया है। बर्गसां ने 19वीं शताब्दी के मध्य में ही सूर्य सिद्धांत से सम्बन्धित उपलब्ध अंशो को
सम्पादित कर प्रकाशित किया था। उस समय तक अर्थात् ईसा के पूर्व काल में यूरोप को
सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहण के बारे में भी कुछ भी नहीं ज्ञात था। जर्मनी और
इंग्लैण्ड सहित यूरोप के सभी देशों को इसकी जानकारी भारत से ही मिली, यह सर्वमान्य है। वराहमिहिर के पंचसिद्धांतिका का प्रकाशन भी यूरोप में 19वीं शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ में ही हुआ परंतु उसका अध्ययन तो जर्मनी और
इंग्लैण्ड में 18वीं शताब्दी ईस्वी में ही किया जा चुका था।
पंचसिद्धांतिका में वराहमिहिर के समय तक प्रचलित पांच खगोलीय सिद्धांतों का वर्णन
है तथा ग्रहों और नक्षत्रों के विषय में विस्तृत जानकारी है जिस जानकारी की पुष्टि
यूरोप के वैज्ञानिकों द्वारा बीसवीं शताब्दी ईस्वी में ही की जा सकी है। ग्रहों और
नक्षत्रों के समय और स्थिति का ज्ञान इन्हीं सिद्धांतों के द्वारा होता है। यह भी
सर्वविदित है कि वराहमिहिर को त्रिकोणमिति का विस्तृत ज्ञान था जबकि यूरोप में
त्रिकोणमिति का ज्ञान इन्हीं ग्रंथों के आधार पर हुआ और बाद में उन्हें अलग-अलग
यवन या अन्य यूरोपीय विद्वानों के नाम से जोड़ दिया गया। पाइथागोरस का प्रमेय इसी
प्रकार का एक झूठा नाम है क्योंकि उसका वर्णन पूर्व में वराहमिहिर द्वारा किया जा
चुका था। इसी प्रकार अयनांश का मान 50.32 सेकेंड के बराबर है
यह भी वराहमिहिर ने स्पष्ट लिख दिया था। वेधशालाएँ वैदिक काल से ही भारत में रहीं
हैं। बृहत्संहिता और बृहत्जातक खगोलशास्त्र के अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। इसके
साथ ही बृहत्संहिता में वायुमंडल की प्रकृति, वृक्षों से
सम्बन्धित विज्ञान, वास्तुशास्त्र और भवन निर्माणशास्त्र का
भी विस्तार से वर्णन है और स्वयं वराहमिहिर यह कहते हैं कि खगोलशास्त्र एक अथाह
समुद्र है, मेरी पुस्तकें केवल उसमें तैरने वाली सुरक्षित
नाव की तरह ही हैं।
ग्रहों की
स्थिति,
ग्रहों की चाल, उनकी दिशा स्थान और समय,
ग्रहों के संयोग, नक्षत्रों सम्बन्धी ज्ञान
प्रत्येक नक्षत्र और प्रत्येक तारे के उदय और अस्त का समय, चंद्रोदय
और चंद्रास्त का समय और गतियां तथा सूर्योदय और सूर्य की गतियां तथा सूर्यास्त के
भिन्न-भिन्न देशों में दिखने वाले भिन्न-भिन्न समय का वर्णन, सूर्यघड़ी का वर्णन, ब्रह्माण्ड के सृजन और
आकाशगंगाओं तथा वर्तमान सौरमंडल के सृजन सम्बन्धी विवरण लोकों की गतियां आदि सभी
गहन वैज्ञानिक विषयों का ज्ञान भारत में वैदिक काल से विस्तृत था और जर्मनी तथा
अन्य यूरोपीय राष्ट्रों के लोग भारत से इन कृतियों को चुराकर ले गये और उनके आधार
पर ही अनेक अविष्कार करने का दावा किया गया है। पृथ्वी से सूर्य, चंद्रमा तथा विविध नक्षत्रों की दूरी और स्थिति का जैसा प्रमाणित विवरण
भारतीय ग्रंथों में है वह केवल वर्तमान विज्ञान के द्वारा ही तुलनीय हो सका है। 19वीं शताब्दी ईस्वी तक तो यूरोप इस विषय में अत्यन्त पिछड़ा हुआ था।
यह तथ्य भी
आज विष्वविदित है कि प्रतिमा निर्माण, वास्तु
एवं स्थापत्य में भारतीय संसार में सबसे आगे थे और स्वयं यूरोप के लोगों ने ये
चीजें यहीं से सीखी हैं। प्रारंभ में भारतीय षिल्पियों को लंदन तथा अन्य शहरों में
ले जाकर उनसे भवन बनवाये गये यही काम पुर्तगाल और फ्रांस में भी हुआ।
इसी प्रकार
यह तथ्य सर्वविदित है कि यूरोप के लोगों को चटक रंगों का कोई ज्ञान नहीं था और इन
रंगों का ज्ञान उन्हें भारत से ही मिला। लियोनार्दो दा विंची के शिल्प में रंगों
का जो जीवन्त वैविध्य है उसका मूल स्रोत भारत ही है।
बड़ी
नौकाओं और जहाजों के विषय में तो यह सर्वज्ञात है कि डचों,
पुर्तगालियों, स्पेनिश लोगों और फ्रेंच तथा
अंग्रेज लोगों को समुद्री जहाज पहली बार भारत में ही देखने को मिले और शुरू में तो
ये लोग भारत के पुराने जहाजों को सस्ते में खरीद कर या कई बार लूट कर ले जाते थे
और उनसे ही काम चलाते थे। ब्रिटेन के सभी प्रारंभिक जहाज वस्तुत: पुराने भारतीय
जहाज ही थे, जिनकी मरम्मत कर और रंगरोगन कर अंग्रेज अपना नाम
दे देते थे। यूरोप में समुद्री जहाज तो दूर, बड़ी नौकाओं का
भी ज्ञान नहीं था। इसी प्रकार बड़े भवनों और भव्य स्थापत्य का भी ज्ञान यूरोप ने
भारत से ही प्राप्त किया।
मिठास के
नाम पर यूरोप के लोगों को केवल शहद का ज्ञान था। गन्ने और चीनी तथा गुड़ का ज्ञान
उन्हें भारत से मिला और इसीलिये प्रारंभ में वहाँ चीनी को एक पात्र में रखकर
ड्राइंग रूम में दिखावे के लिये रखा जाता था कि हमारे पास चीनी भी है। इसी प्रकार
उष्णकटिबंधीय फलों से परिचय भी उन्हें भारत और अफ्रीका जाकर ही मिला और इसीलिये
फलों की टोकरी सजाकर ड्राइंग रूम में रखने का चलन वहाँ चला क्योंकि उनके लिये ये सब
दुर्लभ चीजें थीं।
अधिकांश
भारतीयों को तो यह भी नहीं ज्ञात है कि कांटा, छुरी
और चम्मच से खाना यूरोप के लोगों को कभी भी ज्ञात नहीं था और वह उन्होंने चीन से
ही सीखा। इसी प्रकार लगभग बेस्वाद भोजन का ही उन्हें अभ्यास था और स्वादों की
विषेष जानकारी भी नहीं थी क्योंकि काली मिर्च सहित सभी मसालों का ज्ञान उन्हें
भारत आने पर ही हुआ। तम्बाकू भी उन्होंने यहीं से जाना। इसी प्रकार सूती तथा रेशमी
वस्त्रों की जानकारी भी उन्हें यहीं से मिली परंतु आधुनिक शिक्षित भारतीय ये तथ्य
भी नहीं जानते।
जिन लोगों
को कच्चा मांस खाने या बेस्वाद भोजन और साल में एक या दो जोड़ी कपड़े ही मुश्किल
से पहनने का अभ्यास था तथा जहाँ पेट भर भोजन हर यूरोपवासी को 18वीं शताब्दी ईस्वी तक उपलब्ध नहीं था, वहां विज्ञान
की कोई भी खोज और उपलब्धि संभव ही कहां थी।
वस्तुत:
वैज्ञानिक खोजों के लिये यूरोप पूरी तरह भारत का ऋणी है परंतु ईसाइयत के उन्माद के
कारण वहाँ कृतज्ञता का संपूर्ण अभाव हो जाने से उन्होंने इन चीजों का प्रामाणिक
वर्णन नहीं किया। तब भी टुकड़े-टुकड़े में ऐसे वर्णन भरपूर उपलब्ध हैं जिनसे यह
तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि आधुनिक यूरोपीय विज्ञान के मूल स्रोत और मूल प्रेरणायें
भारत से ही प्राप्त हुईं। यह बात अलग है कि वस्तुत: विज्ञान एक मानवीय ज्ञान है और
विश्व में कहीं भी हो, वह समस्त मानव जाति
की थाती है परंतु तब भी ऐतिहासिक तथ्यों का ज्ञान तो होना ही चाहिये।
0 टिप्पणियाँ
दिव्य रश्मि की खबरों को प्राप्त करने के लिए हमारे खबरों को लाइक ओर पोर्टल को सब्सक्राइब करना ना भूले| दिव्य रश्मि समाचार यूट्यूब पर हमारे चैनल Divya Rashmi News को लाईक करें |
खबरों के लिए एवं जुड़ने के लिए सम्पर्क करें contact@divyarashmi.com