
लड़ते-लड़ते
जीवन बीता लड़ते-लड़ते।
कभी इधर से कभी उधर से
होता रहा प्रहार।
तथाकथित अपनों ने भी तो
किया वार पर वार।
अबतक जीता रहा हूँ जीवन
बिन जीवन-आधार।
कर न सका जीवन में मैं
छल-छद्मों का व्यापार।
दुखने लगी हैं आँखें अब
जीवन को पढ़ते-पढ़ते---
जीवन बीता लड़ते-लड़ते।
कहते हैं सबलोग कि मुझको
जीना नहीं है आया।
जीवन-जहर को अबतक मुझको
पीना नहीं है आया।
'पर उपदेश कुशल बहुतेरे'
की है बात निराली।
कहते हैं वे ही मुझको
जिनने जीवन-निधि पा ली।
शून्य-हस्त हूँ, अस्त-व्यस्त हूँ,
थके पाँव हैं चलते-चलते---
जीवन बीता लड़ते-लड़ते।
रुको पार्थ,रथचक्र जरा
कीचड़ से बाहर कर लूँ।
रथ पर सवार होकर हाथों में
धनुष-बाण तो धर लूँ।
लड़ लेना फिर जितना चाहो,
पीछे नहीं हटूँगा।
प्रलय-बाण के सम्मुख भी मैं
सीना तान डटूँगा।
मरूँगा भी तो न्याय-नीति के
पंथ को गढ़ते-गढ़ते---
जीवन बीता लड़ते-लड़ते।
-मिथिलेश कुमार मिश्र 'दर्द'
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