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यह हिंदुओ को बांटने की ईसाई षड्यंत्र है।

यह  हिंदुओ को बांटने की ईसाई षड्यंत्र है।

संकलन अश्विनी कुमार तिवारी 

ब्राह्मणों के हाथों में पुस्तक थी इसलिए जो चाहा लिख दिया। ( नकारात्मक रूप में इसे ब्राह्मण की हिंसा मान लिया जाये)

जिसकी कुछ करने की इच्छा न हो वह पका पकाया भोजन भी नही खा सकता। बाकी परिश्रम के रूप में हड़ताल कर कर के बहाने बना बना कर अपना समय निकालता रहेगा। ( इसे शूद्र की हिंसा मान लिया जाये)

अब आते हैं विषय पर।

आधी हथेली की मोटाई जितना एक ग्रन्थ आता है जिसका नाम है "चर्म शिल्प संग्रह"

चमड़े से बनी वस्तुओं का काटना, बुनना, सिलाई, design वगेरह सब होता है उसमें।

कपड़े की कटाई, सिलाई, design आदि की भी पुस्तक होती थी।

भवन निर्माण की पुस्तक हैं, आज के आर्किटेक्ट अध्ययन करें तो शर्म आ जायेगी अपने अध्ययन पर ।

अब स्पष्ट है कि वह संस्कृत में ही होगा।

तो चर्मकार उद्योगपति, कारीगर आदि सब उसका अध्ययन करते ही होंगें, तभी उच्च कोटि की वस्तुओं का उत्पादन होता था जो सम्पूर्ण विश्व में अपना लोहा मनवाती थीं।

तो उन्होंने संस्कृत कहाँ से पढ़ी...

जिन चर्मकारों, दर्जियों ने, प्रजापतियों ने यह सब उत्पाद बनाये होंगे?

शिक्षा का स्तर ऊंचा था भारत में जिसमे भेदभाव नही था।

इस्लामिक काल के अत्याचारों को बात सब जानते हैं।

उससे पहले चलते हैं

ह्वेनसांग, फाह्यान और ईत्सिंग आदि चीनी यात्री सातवीं शताब्दी से पूर्व भारत का भ्रमण करते हैं और उनकी यात्राओं में सामाजिक ढांचे के वर्णन में शूद्र वर्ण के साथ शिक्षा के भेदभाव आदि अन्यान्य विषयों का कोई सन्दर्भ नही पायी जाती।

McCauley जैसों की कपोल कल्पित और समाज को तोड़ने की बातों से बाहर आइये और सभ्य समाज को विकसित करने में सभी वर्णो को एक साथ एकजुट होकर आगे बढ़ने का समय है।

वैश्विक दानवो ने यूरोप के लुटेरों के माध्यम से पहले हमारे वैश्य और शूद्र वर्ग को हानि पहुंचाई गई, हम नही सचेत हुए।

फिर हमारे राजाओं को अनुबंधों में बाँध कर उनके राज्यों को लूट लिया गया।

फिर ब्राह्मणों के गुरुकुल और धर्म शिक्षा पर हानि पहुंचा कर McCauley शिक्षा स्थापित की गई, हम फिर न सचेते।

पिछले 100 वर्षों में

पहले धर्म जागरण के माध्यम से ब्राह्मण वर्ण को दिग्भ्रमित करके मूर्ख बनाया गया।

फिर हमारी क्षत्रिय परम्परा को नष्ट करके पूर्णतया समाप्त कर दिया गया। सभी रजवाड़े लूट लिए गए, धन संपत्ति हीरे जवाहरात कुछ न छोड़ा गया।

सभी महलों को होटल में बदल दिया गया।

वैश्यों को पहले कम्पनी अनुबंधों में बांधा गया, Tax के बोझ से मारा गया और फिर वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन के अनुबंधों ने विदेशी कम्पनियो को सर पर बिठा कर वैश्य वर्ग को सीमित कर दिया गया।

आज पूरी FMCG इंडस्ट्री पर विदेशी दानवो का कब्जा है।

विदेशी वैश्यों बड़े बड़े taxes में छूट दी जाती है।

 

स्वदेशी वैश्यों को नही।

आज शुद्र वर्ग को दिग्भ्र्मित कर करके, गरीब से गरीब बना कर उनका धर्मान्तरण करके उन्हें हिन्दू विरोधी बनाया जा रहा है।

शूद्र वर्ग को silent हिंसक बनाया गया।

पढ़ने की तो आज भी इच्छा नही है इनकी, यदि पढ़ने की ही योग्यता और इच्छा होती तो आरक्षण की आवश्यकता नही पड़ती किसी को।

और क्या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य समाज को गरियाने वाले इस समाज के अनुयायियों में से किसी में भी इतनी नैतिकता है कि वह योग्य न होने के बावजूद भी पद और नौकरी स्वीकार न करे।

किस प्रकार अयोग्य होने पर भी पद नौकरी स्वीकार करके देश के विकास और भविष्य के साथ खिलवाड़ कर सकता है कोई।

घोड़े से गधे और गधे से घोड़े का काम लेने वाला समाज कभी विकास नही कर पाता। दोनों का उपयोग उनकी अपनी अपनी योग्यता के अनुसार होना चाहिए।

समन्वय हो,

सामंजस्य हो,

सम्मान मिले तो गिलहरी भी पुल निर्माण में सहायक बनेंगी और पुल बनेगा।

अस्तु

लवी भरद्वाज सावरकर

महात्मा विदुर

तेन शापेन धर्मोऽपि शूद्रयोनावजायत

विद्वान्विदुररूपेण धार्मी तनुरकिल्बिषी

शाप था, धर्म ने विदुर के रूप में शूद्रा के गर्भ से जन्म लिया।  महाभारत अनंत सम्भावनाओं पर ला पटकता है, बारम्बार।

युधिष्ठिर को राज्य-वञ्चित करने से धूर्त राजा धृतराष्ट् को विरत करने हेतु विदुर ने वर्ण धर्म का उल्‍लेख किया कि हे राजन ! आप के कारण युधिष्ठिर एक राजन्य के राजधर्म से हीन हो रहे हैं, उन्हें राज्यधर्म में नियुक्त कीजिये।

क्षात्राद्धर्माद्धीयते पाण्डुपुत्र;स्तं त्वं राजन्राजधर्मे नियुङ्क्ष्व

धृतराष्ट्र ने कहा कि तुम्हारी बातें बहुत अच्छी लगती हैं किन्‍तु दुर्योधन से मिलते ही मेरी बुद्धि पलट जाती है। भाग्य बड़ा बलवान है, उसके आगे पुरुषार्थ कहाँ चलता है? निरर्थक हो जाता है।

 एवमेतद्यथा मां त्वमनुशाससि नित्यदा

ममापि च मतिः सौम्य भवत्येवं यथात्थ माम्

सा तु बुद्धिः कृताप्येवं पाण्डवान्प्रति मे सदा

 दुर्योधनं समासाद्य पुनर्विपरिवर्तते

न दिष्टमभ्यतिक्रान्तुं शक्यं मर्त्येन केनचित्

 दिष्टमेव कृतं मन्ये पौरुषं तु निरर्थकम्

कुछ और सुनाओ। विदुर समझ गये कि ये नहीं मानने वाला, बोले कि एक सनातन ऋषि हुये हैं सनत्सुजात, उन्हों ने कहा कि मृत्यु है ही नहीं !

अब वे ही आप के हृदय के व्यक्त एवं अव्यक्त, सभी प्रकार के प्रश्नों के उत्तर देंगे।

धृतराष्ट् ने उत्तर दिया कि क्या तुम नहीं जानते जो मुझे सनातन ऋषि बतायेंगे? तुम्हारी बुद्धि कुछ भी काम करती हो तो तुम्हीं सुनाओ !

किं त्वं न वेद तद्भूयो यन्मे ब्रूयात्सनातनः

त्वमेव विदुर ब्रूहि प्रज्ञाशेषोऽस्ति चेत्तव

विदुर ने जो उत्तर दिया तथा आगे जो किया, वह भारतीय वर्ण व्यवस्था एवं उसकी अनुवर्ती जाति व्यवस्था पर मनन करने की सामग्री देता है :

विदुर उवाच

शूद्रयोनावहं जातो नातोऽन्यद्वक्तुमुत्सहे

कुमारस्य तु या बुद्धिर्वेद तां शाश्वतीमहम्

ब्राह्मीं हि योनिमापन्नः सुगुह्यमपि यो वदेत्

न तेन गर्ह्यो देवानां तस्मादेतद्ब्रवीमि ते

मैं शूद्रयोना हूँ अत: मेरा अधिकार न होने से जो कुछ कहा, उसके अतिरिक्त उपदेश करने का साहस नहीं कर सकता। कुमार सनत्सुजात की बुद्धि शाश्वती है। ब्राह्मण योनि में जन्मा हुआ वह  यदि गोपनीय तत्त्व का प्रतिपादन कर दे, कह दे तो भी देवों की निंदा का पात्र नहीं बनेगा, इस कारण कह रहा हूँ।

विदुर ने उस सनातन ऋषि का चिंतन मात्र किया तथा वे उपस्थित हो गये। आगे जो प्रश्नोत्तर हुआ, वह सनत्सुजातीयदर्शनं नाम से प्रसिद्ध है।

ध्यान देने योग्य है कि विदुर माता के पक्ष से अपने को शूद्र बता रहे हैं, जैविक पिता तो दोनों के एक ही थे, द्वैपायन व्यास जो कि पिता के पक्ष से ब्राह्मण थे।

विदुर यह नहीं कह रहे कि मुझे ज्ञात नहीं, यह कह रहे हैं कि मुझे गोपन ज्ञान कहने का साहस नहीं हो रहा, क्यों कि शूद्रा का पुत्र हूँ। गोपन ज्ञात है किंतु कह नहीं रहे।

यह भली भाँति जानते हैं कि कौन अन्य जानता है तथा उपदेश भी दे सकता है, ब्राह्मण होने से उसे देव निंदा का भागी नहीं होना पड़ेगा।

विदुर की सामर्थ्य देखें कि स्मरण मात्र से सनातन ऋषि सनत्सुजान को पहुँचने को विवश कर दिया !

वञ्चना नहीं है किन्‍तु अधिकारों के प्रति सजगता है, मर्यादा उल्लङ्घन नहीं करना है - समर्थ होते हुये भी। यह घटना वास्तव में हुई थी या कथा मात्र है, जो भी हो, पर्याप्त स्पष्टीकरण दे जाती है कि जिस समय इस प्रसङ्ग को लिखा गया, उस समय क्या स्थिति थी।

विवाह-बंधन से बाहर शूद्रा के गर्भ से साक्षात धर्म का जन्म अनुमन्य था। वह व्यक्ति अपने समय के सबसे शक्तिशाली राज्य का महामंत्री था। उसे गुह्य ज्ञान की भी शिक्षा प्राप्त थी, आदरणीय था किंतु अपने अधिकार एवं मर्यादाओं के प्रति बहुत सावधान था, तब भी जब कि स्मरण मात्र से ऋषियों को आने को विवश कर सकता था।

गिरिजेश राव

वर्ण के कई अर्थ होते हैं ।

1- वर्ण का एक अर्थ होता है  अक्षर

उदहारण  वर्णमाला यानि अक्षरों की माला।

2- दूसरा अर्थ होता है  रंग जैसे  कृष्ण और राम  श्याम_वर्ण के थे ।

3- वर्ण  का तीसरा अर्थ होता है -  वर्गीकरण  उदहारण  वर्णधर्माश्रम में जीवन का ब्रम्हचर्य गृहस्थ वानप्रस्थ और सन्यास अवस्था में वर्गीकरण ।

 वर्ण_व्यवस्था जैसा शब्द संस्कृत में नही है ।लेकिन अगर उसको गुण  कर्म जिसको स्वधर्म भी कह सकते हैं उसके अनुसार  वर्ण को आप परिभासित करेंगे तो

  गुण_धर्म/कर्तव्यों के अनुसार मानव संसाधन  का ब्राम्हड़ क्षत्रिय वैश्य शुद्र में वर्गीकरण ।

गीता में लिखा है ।

चातुस्वर्ण मया सृस्टि गुण कर्म विभागसह् ।

 

अब  सवर्ण का अर्थ उसी वर्ण में , प्रायः शादी के सन्दर्भ में प्रयोग किया जाता था।

 असवर्ण का अर्थ दूसरे वर्ण में , प्रायः शादी के सन्दर्भ में

अर्थात अगर ब्राम्हण गुण कर्म  वाले पुरुष की शादी उसी गुण कर्म वाली स्त्री से होती है तो सवर्ण । लेकिन यदि उसकी शादी किसी अन्य गुण कर्म वाले वर्ण से शादी होती है तो असवर्ण।

बाकी ये व्याख्या कि  सवर्ण  का अर्थ ब्राम्हण क्षत्रिय वैश्य  और  असवर्ण का अर्थ शुद्र ; ये ईसाई संस्कृतज्ञों द्वारा  फैलाये हुए झूठ कि  आर्यबाहरसे आये की शाजिश मात्र है जिसको कालान्तर में दलित चिंतको ने  और वामपंथियों ने आगे बढ़ाया।

शुद्र भी  सवर्ण होता है ।ये डॉ आंबेडकर ने भी लिखा है।

दूसरा भ्रम की वर्ण का रंग एक खास चमणी का रंग ये ईसाईयों की बाइबिल से उत्रंपत्र रंगभेद्व  नीति का हिस्सा भर  है ।

राम श्याम वर्ण के थे और लक्ष्मण गौर वर्ण के ।

ईसाई विद्वानों, वामपंथी कपटी मुनियों और दिव्यांग दलित चिन्तको के मत से राम असवर्ण थे और लक्ष्मण सवर्ण :

सवर्ण अवर्ण और असवर्ण की खोज:

वर्ण का अर्थ चमड़ी का रंग होता है , ये ईसाई संस्कृतज्ञों ने हमे पढ़ाया था। लेकिन आज एक नई जानकारी कि caste का अर्थ भी चमड़ी का रंग होता है , एक ईसाई संस्कृतज्ञ के मुह से सुनें।

1776 के अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटेन का अमेरिका में लूटी जा रही धनसम्पत्ति से हिस्सा मिलना बंद हो गया ।उसके बाद अमेरिका में बसने वाले ईसाई यूरोप के गोरे ईसाई थे । उनको अपने सफ़ेद रंग पर इतना घमंड था कि भारत के 1947 में आजादी के 13 साल बाद  1960 तक,   काले और  गोरों को स्कूल और बसों में,  अलग अलग ग्रुप में रहने को बाध्य किया जाता था ।

जिसको हम अखबारों के जरिये  रंगभेद या Apartheid के नाम से जानते थे। इसका सबसे वीभत्स रूप डच और ब्रिटिश शासन मे अफ्रीका मे देखने को मिला।

जबकि भारत में चमड़े के रंग और रूप का कोई महत्व नहीं रहा कभी भी वरना  अष्टवक्र राजा  जनक के गुरु न हुए होते और  वेद व्यास कुरु राज्य के गुरु न रहे होते ।भारत के  पूज्य  आदर्श  राम और  कृष्ण    श्याम  वर्ण  के   ही   थे।

लेकिन जब यूरोप ने पूरे विश्व को गुलाम बना लिया तो चमड़े के रंग और वाह्य शारीरिक संरचना के आधार पर,  बाइबिल के थेओलॉजी के अनुसार दुनिया के लोगो को विभिन्न समूहों और नश्लों में बांटा , जिसका परिणाम भारत आज भी भुगत रहा है ।

र्जॉन मुइर जो एक ईसाई विद्वान था , जो 19 साल की उम्र में भारत आता है इंडियन सिविल सर्विसेज में , और जो इलाहाबाद  और फ़तेहपुर  में अंग्रेजी सरकार मे एक ऑफिसर  था ,वही  जॉन मुइर 29  साल की उम्र में मत्परीक्षा नामक एक पुस्तक लिखता है, और ईसाइयत को हिंदूइस्म से श्रेष्ठ साबित करता है। सरकारी नौकरी में रहते हुए वो संस्कृत का इतना बड़ा विद्वान बन जाता है कि " ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट्स " नामक एक किताब लिखता है , जिसका डॉ आंबेडकर ने अपनी पुस्तक "शूद्र कौन थे " , में बहुतायत रूप से उद्धृत किया है।

  उसी पुस्तक के पार्ट -२ सी कुछ ओरिजिनल टेक्स्ट्स पेश करा रहा हूँ , अंग्रेजी में जिसको कहते है - " Right From Horses mouth "---

"ये नॉन आर्यन नश्ल के लोग अमेरिका के रेड इंडियन की तरह कमजोर नश्ल के थे । दूसरी तरफ Arians ज्यादा organisesed enterprising और creative लोग थे, धरती पर अर्वाचीन जन्म लेने वाले ज्यादा सुदृढ़ पौधे और जानवरों की तरह वे ज्यादा सुदृढ़ लोग।अंततः दो विपरीत राजनैतिक लोगों की तरह ही अलग दिखने वाले ।तीन ऊपरी वर्गों को जिनको द्विज या आर्य के नाम से भी जाना जाता है , एक अलग विशेष क्लास के लोग। Arian इस तरह से एक सुपीरियर और विजेता नश्ल साबित हुई । इसको सिद्ध करने के लिए complexion को एक और सबूत के तौर पर जोड़ा जा सकता है। ( यही 3 तथाकथित वर्णो को सवर्ण मान लिया गया। जाति के क्रम मे भी इन्हे ऊंची जाति के नाम से जाना जाता है आज । बाकियों को शूद्र मानकर उनको OBC SC और ST मे विभाजित कर दिया गया )

 संस्कृत में Caste को मूलतः रंग (कलर ) के नाम से जाना जाता है।  इसलिए caste उनके रंग (चमड़ी के रंग ) से निर्धारित हुई । लेकिन ये सर्विदित हैं कि ब्राम्हणों का रंग शूद्र और चाण्डालों से ज्यादा फेयर था। इसी तरह क्षत्रियों और वैश्यों के भी इसी तरह फेयर complexion रहा होगा ।

      इस तरह हम इस निर्णय पर पहुंचते हैं कि कि एरियन -इंडियन मूलतः काले मूल निवासियों से भिन्न थे; और इस अनुमान को बल मिलता है कि वे किसी उत्तरी देश से आये थे ।

अतः एरियन भारत के मूल निवासी नहीं थे बल्कि किसी दूसरे देश से उत्तर (भारत) में आये , और यही मत प्रोफेसर मैक्समूलर का भी है। "

 From- Original Sanskrit Texts Part Second P. 308-309 ; by John Muir

जो संस्कृत विद्वान वर्ण और caste के भेद को भी नहीं समझ सकते ।वो चमड़ी के रंग के आधार पर सवर्ण अवर्ण  और असवर्ण जैसे शब्दों से समाज को विभाजित करते है , उन्होंने किस संस्कृत ग्रन्थ को पढ़कर ये वाग्जाल फैलाया है ?

आप स्वयं देख सकते हैं कि रंगभेद के चश्मे से दुनिया को बांटने वाले और गुलाम बनाने वाले , 1500 से 1800 के बीच अमेरिका के 200 million मूल निवासी रेड इंडियन का क़त्ल करने वाले ईसाई विद्वान कितने शाश्त्रों का अध्यन कर इस निर्णय पर पहुंचे है ?

 

 आजकल ईसाइयत फैलाने के लिए एक नयी शाजिश ये ईसाई फिर रच रहे है - AFRO_DALIT प्रोजेक्ट के नाम से , जिसके भारत के न जाने कितने क्षद्म ईसाई , दलित के वेश मे इस कार्य को आगे बढ़ा र्हए हैं ।इन्ही संस्कृतज्ञ ईसाई विद्वानो के गढे  हुए कुतर्कों के अनुवादों के अनुवादों के अनुवाद को  आधार बना कर जब डॉ आंबेडकर "शूद्र कौन थे " की  खोज में वेदों की सैर पर निकल जाते हैं , तो उनकी मंशा पर उंगली उठे न उठे लेकिन उनके सूचना के श्रोतों की विश्वसनीयता पर प्रश्चिन्ह अवस्य लग जाएगा ।

 जिस देश के भगवान राम कृष्ण और शंकर श्याम वर्ण के हों वहां पर समाज को डार्क complexion के आधार पर सिर्फ ईसाई संस्कृत विद ही बाँट सकते है।शंकर जी अर्जुन को एक किरात के वेश मे दर्शन देते हैं जब वह वनवास के समय आयुध की खोज मे जाते हैं ।

 हमारे ऋषि मुनि यहाँ तक कि मनुस्मृति के रचनाकार जंगल मे tribal जीवन व्यतीत कर धर्मग्रंथों की रचना करते हैं ; अब यही tribal ईसाई बनाए जा रहे हैं , अंग्रेजों की कार्यपद्धति को अपनाकर ।

संस्कृत ग्रंथों में तो इसका कहीं जिक्र मिलता नहीं  ??

 अनुमानों पर आधारित बायस्ड उनपढ़ कुतर्की और कट्टर  ईसाई संसकृतविदो  को आधार बनाकर लिखा गया भारत का इतिहास हम ढो रहें हैं न जाने कितने वर्षों से।

  गलती उसकी नहीं थी जिसने इस कपोल कल्पना से भरी पुस्तक को  ओरिजिनलसंस्कृतटेक्स्ट लिख के पेश किया।

गलती उनकी है जो इसको ओरिजिनल मान बैठे और उन  Bigot ईसाइयों  के फैलाये जाल में भहरा के गिर पड़े।

 जब गीता कहती है।

 चातुस्वर्ण मया शृष्टि  गुण कर्म विभागसह : अर्थात गुण और कर्म के अनुसार जो मनुस्य जो कार्य करेगा उसी वर्ण मे उसको वर्गीकृत किया जाएगा । आज उसको एप्टिट्यूड टेस्ट के नाम से जाना जाता है , कि कौन सा बच्चा किस प्रॉफ़ेशन के लिए फिट है ?

 

 देश का आज तक का सबसे विद्वान ब्रम्हाण और अर्थशास्त्री कौटिल्य उसको कहता है - शुश्रूषा वार्ता कारकुशीलम शूद्रस्य कर्मम । वार्ता विद्या का एक अंग है : अंवीछकी त्रयी वार्ता दंडनीति इति विद्या । ये विद्या की कौटिल्य की परिभाषा है ।

तो डॉ आंबेडकर और दलित साहित्य में शूद्रों को menial जॉब अलॉट करने का काम मुइर जैसे Bigot ईसाई की ओरिजिनल संस्कृत टेक्स्ट से पढ़कर लिखा होगा।

आंबेडकर साहित्य में वर्णित सवर्ण अवर्ण और असवर्ण की खोज इन्ही ईसाई bigot विद्वानों की रंगभेद और रंग से जुड़े उनके पूर्वाग्रह से उपजे शब्द है।

 संस्कृत में सवर्ण और असवर्ण शब्द जरूर हैं लेकिन वो उन अर्थों में प्रयुक्त नहीं होते जिन अर्थों में इन संस्कृत विदों ने प्रयोग किया हैं , और जहाँ से डॉ आंबेडकर ने कॉपी पेस्ट किया है ।

वर्ण और कास्ट को चमड़ी के रंग से परिभाषित करने वाले लोग बाइबल के Genesis मे नोह द्वारा Ham को दिये श्राप से उद्धृत है जिसको ईसाई थेओलोगीस्ट ऑर्गन ने तीसरी शताब्दी मे प्रतिपादित किया था।

यह  हिंदुओ को बांटने की ईसाई षड्यंत्र है।

सवर्ण और असवर्ण का अर्थ कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार :

सवर्ण - उसी वर्ण में - within same Varna.

असवर्ण - इतर वर्ण में - Out of Same Varna.

इन शब्दों का प्रयोग विवाह के संदर्भ में होता रहा है।

डॉ त्रिभुवन सिंह

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