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वाण्येका समलंकरोति पुरुषम्।

वाण्येका समलंकरोति पुरुषम्।

मनोज कुमार मिश्र"पद्मनाभ"।
पुरुष, वाणी रूपी आभूषण को धारण कर ही अलंकृत होता है।पुरुष से तात्पर्य यहाँ नर मात्र से नहीं अपितु मानव मात्र से है।वह चाहे स्त्री हो या पुरुष।पुरुष को यहाँ नीतिकार ने व्यापक अर्थ में ग्रहण किया है।हमारे व्यक्तित्व की परख हमारी वाणी से ही होती है।तभी तो इस संबंध में एक कवि ने यह भी कहा.....
"वाणी एक अमोल है जो कोई बोलै जानि
हिये तराजु तौल के तब मुख बाहर आनि।।"
बढ़िया से बढ़िया पुस्तकों का अध्ययन कर लेने मात्र से या चंद शब्दों को जोड़कर कुछ भी लिख देने मात्र से हमारे व्यक्तित्व की पहचान नहीं होती।जब तक हमारी वाणी में सौम्यता या हमारे शब्दों में सरलता ,भावबोधगम्यता नहीं होगी हमारा व्यक्तित्व भी बोधगम्य नहीं होगा।इसीलिये आगे कहा गया "या संस्कृता धार्यते"।अर्थात् वह वाणी भी सुसंस्कृत होनी चाहिये।क्योंकि वाणी सौम्य तभी होती है जब वह सुसंकृत होती है।शायद यही समझ रही होगी तब तो महामना तुलसी ने "श्रीरामचरितमानस"जैसे परमपावन अमृततुल्य ग्रंथ के प्रणयन का आरंभ ही वाणी वंदना से किया ......
"वर्णानामर्थसंघानाम् रसानां छंदसामपि
 मंगलाम्चकर्तारौ वंदे वाणी विनायकौ।।"
यदि हम ऐसा नहीं कर पाते तो हमारा विनाश अवश्यम्भावी है ...."क्षीयन्तेखिलभूषणानिसततम्।"अर्थात् जैसे जैसे वाणी का क्षरण होगा हमारे विनाश का मार्ग भी प्रशस्त होना आरंभ हो जायेगा।इसलिये सामाजिक ,पारिवारिक,या वैश्विक स्तर पर भी हमें इसका ध्यान अवश्य रखना चाहिये।आज  तक जितने भी युद्ध हुये उसका आरंभ वाक् से ही हुआ।पहले वार्तालाप में तल्खी फिर बढ़ते बढ़ते शस्त्रानुसंधान ।यदि हमने वाण्याभूषण के महत्व को जान लिया होता तो शायद इससे बच सकते थे।परिवार या समाज में भी जो आज वैमनस्य की स्थिति परिलक्षित हो रही है उसका कारण भी असंयत वाण्यप्रहार ही है।यह एक बहुत बड़े अस्त्र के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है।रक्षात्मक एवं विनाशात्मक दोनो ही प्रयोग हम इसका कर सकते हैं।यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है।एतदर्थ अंत में "वाग्भूषणम्भूषणम्"कहकर वाणी की महत्ता को विराम देते हैं।काक और पिक की पहचान उनकी वाणी से ही संभव हो पाता है।दोनो का रंग रूप आकृति एक तरह का ही होता है।प्रथम दृष्ट्या भेद करना मुश्किल है जाता है।वसंत की वेला आते ही वाणी के माध्यम से ही हम इनकी पहचान कर पाते ह़ै।फिर एक का सम्मान और दूसरे के प्रस्थान का निर्णय हम कर पाते हैं।अस्तु व्यक्तित्व निर्माण के लिये अपने जीवन में हमें वाणी की महत्ता को समझने की परम आवश्यकता है।
"वंदे वाणी विनायकौ"।
.........मनोज कुमार मिश्र"पद्मनाभ"।
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