राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भाषा विमर्श
*प्रो.ज्ञानदेव मणि त्रिपाठी
शिक्षा की बुनियाद में भाषा के अस्तित्व को सदैव स्वीकार किया जाता है। भारतीय शिक्षा में भाषा की भूमिका उसके बहुभाषिक स्वरुप के अनुरूप ही देखी जाती रही है। इसलिए आजादी के पूर्व या पश्चात का शायद ही कोई शिक्षा आयोग या समिति का प्रतिवेदन ऐसा हो जिसमें भाषा संबंधी अनुशंसाएं नहीं हों।यह भी तथ्य है कि ब्रितानी हुकूमत या ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीनस्थ भारत में पहली बार जब शिक्षा के सामाजिक स्वरुप को राजकीय बनाने की कोशिश शुरू हुई तब भारत में कैसी शिक्षा और किस भाषा में शिक्षा का सवाल , संभवतः पहली बार 1813 के चार्टर में उठा। इसके बाद के विगत दो सौ वर्षों में शिक्षा और भाषा का सवाल लगातार बजता रहा है।
दरअसल
शिक्षा के दायरे में भाषा का दो महत्वपूर्ण रुप है।पहला,एक विषय के रूप में किसी भाषा का अध्ययन-अध्यापन और दूसरा,शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर माध्यम के रूप में भाषा।बच्चे या बचपन में
सीखने की भाषा मातृभाषा व घर में बरती जाने वाली भाषा होती है,इस बात पर कोई विवाद नहीं है।भारत या अन्य देशों के भाषाविद व
शिक्षाशास्त्री सैद्धांतिक रूप से इसे स्वीकार करते हैं। भारत में प्रचलित
औपनिवेशिक शिक्षा के तत्व आज भी हमारे हिस्से यथावत जगह घेरे हुए है ऐसे में
मातृभाषा में शिक्षण का सैद्धांतिक रूप व्यवहार की धरातल उतरने के पूर्व ही दम
तोड़ता रहा है।
राष्ट्रीय
शिक्षा नीति,2020 भी बच्चे व बचपन की सीखने
की भाषा के रूप में मातृभाषा व स्थानीय भाषाओं की महत्ता को स्वीकार करते हुए इन
भाषाओं को प्रारंभिक कक्षाओं की माध्यम भाषा के रूप में व्यवहार में लाने की
अनुशंसा करता है। यहां यह ध्यान में रखना चाहिए कि इस नीति में शिक्षा की माध्यम
भाषा और त्रिभाषा सूत्र यानी तीन भाषाओं का अध्ययन,ये दोनों
अलग-अलग मुद्दे हैं लेकिन शिक्षा और भाषा के विमर्श में इन दोनों को शामिल करना
अनिवार्य सा है।
राशिनी-20,
यदि 21 सदी में भी मातृभाषाओं के माध्यम से
प्रारंभिक शिक्षा की वकालत करती है तो इसके कुछ निहितार्थ भी होंगे।ध्यान देने
योग्य तथ्य यह भी है कि स्कूली शिक्षा की संरचना को एक नया रुप इस राष्ट्रीय
शिक्षा नीति ने दिया है।पहली बार विद्यालय पूर्व की तीन वर्षीय शिक्षा को औपचारिक
शिक्षा के दायरे में कक्षा 1-2 के साथ लाने की अनुशंसा की गई
है। विद्यालय पूर्व की तीन वर्षों की शिक्षा माॅन्टेसरी या किन्डर गार्डन के रुप
में निजी विद्यालयों में और आंगनबाड़ी केंद्रों के रुप सरकारी व्यवस्था के
अन्तर्गत उपलब्ध तो हैं लेकिन इस नीति ने इस अवस्था को औपचारिक शिक्षण की पहली एवं
दूसरी कक्षा के साथ जोड़कर पांच वर्षीय संरचना का सूत्रपात किया है जो माध्यम भाषा
के सवाल के लिए अति महत्वपूर्ण है।इस नई संरचना के लिए यह आवश्यक होगा कि बच्चों को
उनकी मातृभाषाओं में सीखने का अवसर मिले अन्यथा जो चिंता इस नीति की है कि बचपन
में पड़ने वाली भाषा और गणितीय चेतना की नींव
कमजोर पड़ती जा रही है जिसे सुदृढ़ करना आवश्यक है। इसलिए इस नीति ने अपने 22 मार्गदर्शक सिद्धांतों
में दूसरे ही क्रम पर 'बुनियादी साक्षरता और संख्या ज्ञान को
सर्वाधिक प्राथमिकता देना',को स्थान दिया है।
शिक्षाशास्त्र
से यह ज्ञात होता है कि बच्चों के सीखने के लिए उनकी मातृभाषा को आधार बनाकर अन्य
भाषाएं और विषयों की समझ बनायी जा सकती है। बच्चों के अनुभव जगत का स्कूल की परिधि
में सम्मानजनक स्थान देना सीखने के माहौल निर्माण की अनिवार्य शर्त होती है। अतः
मातृभाषाओं में शिक्षण का अवसर देना बच्चों की सामाजिक सीख और स्कूली सीख में
तादात्म्य स्थापित करता है। बिहार के संदर्भ में इस अनुशंसा का महत्वपूर्ण योगदान
हो सकता है। ज्ञातव्य है कि माननीय मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार के निर्देश के
आलोक में राज्य में पहली बार 2006-08में
बिहार पाठ्यचर्या की रुपरेखा का विकास किया गया और इसके आधार पर स्कूल शिक्षा के
लिए कक्षा 1से12 तक के लिए नया
पाठ्यक्रम और पाठ्य-पुस्तकें विकसित की गईं।इस पाठ्यक्रम में बिहार की स्थानीय
भाषाओं, मैथिली, भोजपुरी,मगही, अंगिका और वज्जिका को एक पाठ्य विषय के रूप
में कक्षा 6-12 तक स्थान दिया गया तथा इसके लिए
पाठ्य-पुस्तकें विकसित कीं गईं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति से इसे विस्तार मिलेगा और
इन सभी स्थानीय भाषाओं को पहली बार प्रारंभिक शिक्षा का माध्यम भाषा बनने का गौरव
भी हासिल होगा। बिहार के अलग-अलग हिस्सों में बोली-बरती जाने वाली ये भाषाएं,
माध्यम भाषा बनने की भाषिक क्षमता रखतीं हैं। इनका साहित्य तो
उपलब्ध है लेकिन माध्यम भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होकर ये सभी भाषाएं विमर्श की
भाषा बन पायेंगी जिन्हें व्यक्त करने का पूरा अवसर मिलेगा। कोई भी नीति अपने समय
की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए आकार लेती है,ऐसा इस
राशिनी-20 के साथ भी है।शिक्षा के दायरे से बाहर ढकेल दी गई
भाषाओं का वर्तमान स्वरूप चिंताजनक है। हमारे तथाकथित आधुनिक बोध वाले स्कूल और
विशेषकर सी बी एस ई से मान्यता प्राप्त स्कूलों ने हिंदी के साथ इन स्थानीय भाषाओं
को व्यक्त नहीं करने वाली भाषाओं के रूप में रेखांकित कर रखा है। स्कूल के घोषित
दायरे में इन स्थानीय भाषाओं के उपयोग पर रोक लगी हुई है।बच्चे यदि इन स्थानीय
भाषाओं का प्रयोग करें तो दंड के भागी बनते हैं।वह भाषा जिसमें उनकी विरासत
सुरक्षित है जो उन्हें अपनी माटी के संस्कार से जोड़ती है उसके प्रति ये स्कूल
उनमें हिकारत का भाव भरते हैं। बताते हैं कि आगे बढ़ने के मार्ग में सबसे बड़ी
बाधा हैं उनकी मातृभाषा,जब तक वे उससे मुक्ति नहीं पायेंगे
शिक्षा का जीवन रस उन्हें नहीं मिलेगा। परिणाम यह होता है कि बच्चे और उनका परिवार
भी धीरे धीरे मातृभाषाओं से मुक्त होने लगता है।इसका प्रत्यक्ष प्रमाण बिहार के
शहरों में देखा जा सकता है जहां स्थानीय भाषाओं की उपस्थिति लगातार घटती जा रही
है। भाषाएं संस्कृति का संवहन करतीं हैं,एक पीढ़ी से दूसरी,
तीसरी पीढ़ियों को जोड़ती हैं।इनकी अनुपस्थिति किसी भी समाज के लिए
श्रेयस्कर नहीं हो सकती है।
ऐसे
में,
राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मातृभाषाओं को माध्यम भाषा के रूप में
प्रतिष्ठित करने का प्रयास ऐतिहासिक महत्व का है। (लेखक के
अपने विचार हैं)
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