अटकाव – लटकाव - भटकाव
वटेसरकाका ने एक बकरी की टांग तोड़ दी थी, अपने लड़कपन की बेसुधी में । अभागा जवानी तो बहुत बाद में आया ।
गरीब की बकरी, समुचित इलाज़ के अभाव में आठ-दस दिनों बाद मर गयी । कानाफूसी में ऐसी चर्चा भी सुनने को मिली कि इलाज़ करने का ज़हमत लेने से, शिकार का लुफ़्त लेना ज्यादा मज़ेदार है। खाल की कीमत अलग से मुनाफ़े में हासिल हो जाना है...।
कुछ ऐसी ही कारगुजारी हुयी थी उस बकरी के साथ, जो एक निर्बल-धनहीन उच्च जाति के हाथों घायल हुयी थी।
कानून के लहज़े में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि पहले धारा 307 लागू हुआ, जो दस दिनों बाद धारा 302 में बदल दिया गया दारोगाजी द्वारा । क्योंकि धाराओं का पहला खेल तो उन्हीं के मारफ़त शुरु होता है न । भलेमानस दारोगाजी दस दिनों तक इन्तज़ार करते रहे थे कि अभियुक्त वटेसर आयेगा अपने वाप के साथ और क्षमा-याचना के साथ कुछ पूजा-दक्षिणा दे-दा कर सुलहनामा की अर्जी लगायेगा। किन्तु उनके पिता भी जीवट के इन्सान ठहरे। उन्होंने भी ठान रखा था कि जो भी हो, मुकदमें को अदालत में ही निपटाया जायेगा।
जन्मजात “ हरामखोरी की गद्दी ” पर जाकर रोने-गिड़गिड़ाने की तौहीनी क्यों झेली जाए !
उस जिद्दी बाप को ये नहीं पता था कि “इन्टेन्सनली” या “इनोसेन्टली ” की धाराओं की तो अभी बात ही नहीं की जा रही है। उसे तो बुद्धिमान अधिवक्ताओं के स्व-संज्ञान पर छोड़ दिया जा रहा है । क्योंकि कानून में ऐसी व्यवस्था है कि जितना चाहो, जब चाहो धाराऐं बहाते जाओ एक ही नदी में।
दुर्भाग्य से वो बकरी पड़ोस के ही भूलन की थी, जिसे उस समय की राजनैतिक शब्दावली में “हरिजन” वर्ग विशेष का दर्जा प्राप्त था । सम्भवतः आप जानते ही होंगे कि स्वतन्त्रता के आसपास ही ये शब्द कुलबुला कर तत्कालीन चालू शब्दकोष के कोख से बाहर आया था। इस महान शब्द का सामयिक प्रसव हुआ था या असामयिक गर्भपात कराया गया था—इसके बावत मुझे ठीक से पता नहीं है और न वटेसरकाका ने ही कुछ जानकारी दी मुझे। वस इतना ही पता है कि देशहित के साथ-साथ जनहित का विशेष ध्यान रखने वाले एक विशेष व्यक्ति द्वारा ही जनित किया गया था ये शब्द, भावी भारत के कल्याण और नवनिर्माण के ख्याल से, जिसे आगे चल कर कल्याणकारी कार्य में कम, विनाशकारी अस्त्र-शस्त्र के रुप में ही ज्यादातर प्रयोग किया गया।
सम्भवतः “दलित” शब्द के बारे में उस समय किसी को कुछ अता-पता नहीं था । क्यों कि अगर ये पता होता तो निश्चित ही ये दोनों शब्द जुड़वां पैदा हुए होते शब्द-कोख से । और ऐसे में 50-60 साल छोटे होने की व्यथा नहीं झेलनी पड़ती दलित शब्द को।
आपको पता ही होगा कि उस जमाने में राष्ट्र के भी वाप-दादा, ताऊ-चाचाओं की बाढ़ सी थी। भले ही किसी इन्सान के वाप का अता-पता न हो, परन्तु राष्ट्र के वाप-चाचा की घोषणा शिलापट्टों पर कर दी गयी थी। दरअसल काफी दिनों बाद स्वतन्त्रता का नया-नया स्वाद चखा था न देशवासियों ने, इसलिए उंगली पकड़ कर चलाने के लिए अभिभावक तो चाहिए ही चाहिए।
हाँ, तो मैं बात कर रहा था भूलन हरिजन की दुष्टा बकरी की, जिसने ठाकुरवाड़ी के सारे फूलों को चट किया था। बकरी को गुज़रे कोई 56-57 साल जरुर गुज़र गए, परन्तु वटेसरपंडित पर लगाये गए आरोपों वाला मुकदमा अभी तक ज्यों का त्यों जिंदा है— कालजयी द्रोणपुत्र अवत्थामा की तरह अपने सिर पर बने कलंक-व्रण की याद दिलाते हुए।
नयी पीढ़ी वाले भी कभी-कभार पूछ बैठते हैं— ‘ का वटेसरकाका मुकदमा अभी चलिए रहा है बकरिया वाला?’
आज इसी प्रश्न-वेदना ने अति व्यथित कर दिया काका को और मन हल्का करने के लिए मेरे पास चले आए। छोटी बात भी कभी-कभी बहुत बड़ी हो जाती है। कंकड़ी की चोट भी घायल कर जाती है। भले ही मारने वाले को इस परिणाम का अनुमान भी नहीं होता।
काका की व्यथा को मैं भलीभाँति समझता हूँ। संत तुलसी ने कहा है न—वांझ का जाने प्रसव की पीड़ा...। आप इसे मॉर्डेनाइज्ड करके कह सकते हैं—पुरुष क्या जाने प्रसव की पीड़ा ! और बिलकुल फिल्मी अन्दाज में कहना चाहें तो कहें—मर्द क्या जाने दर्द ! यदि ये भी न समझ आए तो कह सकते हैं कि जाके पांव ना फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर परायी ।
मुकदमे और तारिखों से जिसे वास्ता ही न पड़ा हो, वो भला क्या जाने कोट-कचहरी की समस्या और पीड़ा ! लड़कपन से बुढ़ापा आ गया, मुकदमा अभी चल ही रहा है। तारीख पर तारीख पड़ रहे हैं। इन तारीखों पर जाने में, हाजिरी लगाने में और वकीलसाहव को “दस्खती” देने में जितना खर्च हो गया अबतक, उतने में तो एक बकरी क्या, दो-चार हाथी खरीद लिए होते काकाजान। परन्तु आज भी चाय ‘ लीकर ’ पीते हैं और टुटही सायकिल पर ही सवारी करते हैं।
ऐसे ही व्यथित परिवेश में जब कभी मन में हलचल होने लगती है, तो स्वयं को धिक्कारने लग जाते हैं— “ बुद्धि मारी गयी थी उस दिन, जो मुई बकरी पर डंडा चला दिया। ये कौन नहीं जानता कि बकरी-सूअर इसीलिए पाले जाते हैं कि दूसरे का जज़ात उजारते रहे। कोई टोके-बोले तो चढ़ बैठो। ज्यादा कुछ हो तो बाकायदा हरिजनथाना चले जाओ। अपनी वाली सरकार ने सारी व्यवस्थायें कर रखी हैं। खेत-खलिहान, जोत-जजात लूटते रहो औरों का और चिल्लाते रहो कि लुटे जा रहे हैं ... सताये जा रहे हैं। दबो नहीं किसी से,दबाते रहो और चिल्लाते रहो कि दबाये जा रहे हैं। भोजन, आवास, शिक्षा, नौकरी...सब सुलभ, फिर भी कुछ एक अपवादों को छोड़कर, बाकी की न दशा बदली न दिशा विगत 73 सालों में । अदालत की तारीखों की तरह “मुफ़्तखोरी” की तारीखें भी बढ़ती गयी। कहने को तो लोग कह देते हैं कि पढ़ोगे नहीं तो बकरी चराओगे। किन्तु क्या आज तक बकरी की चरवाही करते देखा है किसी को ! वो तो बिन कहे-सिखाए किसी का फसल यूँ चट कर जाती है मानों आरक्षित अधिकार हो । अब तो सभ्य सामाजिक व्यवस्था में गाय की भी चरवाही विरले ही कोई करता है। शहरी लोग इस मामले में ज्यादा समझदार दिखते हैं। दूध दूहने के बाद पिकनिक मनाने, सड़क-बाजार घूमने के लिए विदा कर देते हैं गायों को । ”
व्यथित वटेसरकाका को मैंने सान्त्वना-संदेश देने का प्रयास किया—“राम” को न्याय मिलने में 491 वर्ष लग गए, फिर “आम” की कौन कहे ! दादा के मुकदमे का फैसला पोते को भी मिल जाए तो समझो रामराज आ गया। कानून बनाये ही इस हिसाब से गए हैं कि अदालती भैंसों का जीवन सुख-चैन से पागुर करते हुए गुजरे। त्वरित न्याय मिलने लगे यदि तो फिर कितने ही वकील भूखे मरने लगेंगे । वैसे भी कुछेक की ही चाँदी रहती है, बाकी तो बदबूदार काले कोट की सफेद छींटों की धुलाई का भी औकात नहीं रखते। मुकदमों का लटके रहना प्रबुद्ध अधिवक्ताओं की बुद्धिमत्ता का कृपाप्रसाद है।
द्रौपदी को सान्त्वना देने के लिए कृष्ण कहा करते थे—अनेक अपमानों के बीच तुम्हें अपना ही अपमान दीख रहा है सिर्फ ! ये अपमान केवल तुम्हारा नहीं है...।
इतने बड़े देश में लाखों नहीं करोड़ों की संख्या में मुकदमे वर्षों-वर्षों से लटके पड़े हैं। इस अटकन-लटकन-भटकन की भीड़ में आपको सिर्फ अपना ही मुकदमा दीख रहा है !
अतः सिर्फ अपनी ही न सोचें, राष्ट्र की भी सोचें। इतने वड़े विसात पर एक अदने व्यक्ति का अस्तित्व ही क्या है !
काका मेरा मुंह ताकते रह गए।
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