अनासक्तियोग का साक्षात्कार
शब्दों के अर्थ से जरा हट कर आसक्ति शब्द के भाव को समझने का प्रयास करते हैं, जो प्राणीमात्र के लिए, विशेष कर मनुष्य के लिए तो सर्वाधिक दुःखदायी है । आसक्ति से सर्वदा बिलग होने (अलग नहीं) अनासक्ति की स्थिति बनती है और वहीं से सांसारिक दुःखों के निवारण का रास्ता शुरु होता है ।
एक संत के पास एक युवक पहुँचा गुरुदीक्षा के उद्देश्य से । संत ने किंचित विचार किया और कहा कि अच्छा हुआ कि तुम आ गए, मेरी कुटिया की देखभाल करो एक-दो दिन, फिर लौट कर तुम्हें दीक्षित करता हूँ ।
आगन्तुक से अतापता पूरा परिचय जानकर, कुटिया का भार उसे सौंपकर चल दिये संतजी और पहुँच गए उसके घर । उसके पिता से मिलकर शोक प्रकट किये – “ कल रात आपका पुत्र मेरे यहाँ ठहरा था । रात में बाघ ने उसे खा लिया । मुझे पश्चाताप है कि उसकी रक्षा भी न कर सका । ”
युवक के पिता ने कहा – “ आप संत हैं, किन्तु व्यर्थ संतप्त हो रहे हैं । एकःवृक्षः समारुढ़ नाना पक्षि समागमः । प्रातः परिविहंग्याति काकस्य परिवेदना । ” (रात्रि के समय तरह-तरह के पक्षी विभिन्न स्थलों से आकर एक वृक्ष पर निवास करते हैं, और प्रातः पुनः कहीं न कहीं उड़कर चले जाते हैं। फिर इसमें दुःख की क्या बात है ? यानी कि ये संसार रुपी वृक्ष भी ऐसा ही है। कुछ खास समय के लिए हम इकट्ठे हो जाते हैं ।)
थोड़ी देर में युवक की माता भी बाहर आगयी । संवाद सुनकर उसने कहा— “ संतों को कदापि संतप्त नहीं होना चाहिए । मैं तो सामान्य गृहणी हूँ, फिर भी इतनी समझ है कि आयाचिते मयागर्भे दैवेन यदि दीयते । दीयते ह्रीयते वापि काकस्य परिवेदना । (दैव ने मेरे गर्भ में इसे दिया । वो दिया न होता तो वो मेरा पुत्र भी नहीं होता । दैव ने दिया, दैव ने ले भी लिया । फिर इसमें चिन्ता की क्या बात है ?) ”
बातें हो ही रही थी कि किवाड़ की ओट में खड़ी युवक की पत्नी भी बाहर आ गयी । उसने कहा— “ आप दुःखी न हों महात्मन ! अन्यानि वहति काष्ठानि नद्यानि वहति संगमें । संगमे वायु वृक्षस्य काकस्य परिवेदना । ” (नदी में छोटी-छोटी लकड़ियाँ बहते रहती हैं । वायु के झोंके से प्रभावित होकर कभी-कभी दो लकड़ियाँ एक साथ हो जाती हैं । पुनः उसी वायु के प्रभाव से विलग भी हो जाती हैं । अब भला इसमें किस प्रकार की वेदना ? )
युवक के आत्मीयजनों की अनासक्ति-संदेश सुन कर संत वापस अपनी कुटिया में आ गए और युवक से बोले — “ मैं तुम्हारे गांव चला गया था, तुम्हारे विषय में जानकारी के लिए । यह जानने के लिए कि तुम सही में दीक्षा के अधिकारी हो या नहीं । किन्तु बड़े खेद की बात है कि वहाँ जाने पर ज्ञात हुआ कि तुम्हारे आने के दूसरे ही दिन पुत्रशोक में पिताजी चल बसे । पुत्र और पति के शोक में तुम्हारी माँ भी प्राण त्याग दी । ऐसी घोर विपत्ति को वेचारी तुम्हारी पत्नी कैसे सहन कर पाती? कुछ ही देर बाद उसकी भी हृदयगति बन्द हो गयी । ”
युवक ने कहा— “ कस्य माता पिता कस्य कस्य भ्राता सहोदरः । मायाप्राण सम्बन्धः काकस्य परिवेदना । (कौन किसकी माता है यहाँ, कौन किसका पिता और कौन सहोदर है यहाँ ? माया और प्राण का सम्बन्ध है सिर्फ और कुछ नहीं । फिर इसमें किस बात की चिन्ता ? ”
युवक की बात सुन कर संत महाराज गदगद होकर उसे गले लगा लिए। वास्तविकता से अवगत कराते हुए बोले— “ जिस अनासक्तियोग को साधने में मेरा पूरा जीवन चुक गया, वो अनासक्तियोग तो तुम्हारे पूरे परिवार को स्वयमेव सिद्ध है। तुम तो बिना दीक्षा के ही दीक्षित ही नहीं, बल्कि स्वयंसिद्ध हो। ऐसे भाग्यवान को शिष्य नहीं गुरु बनाने की लालसा हो रही है। ’’
और इतना कह कर उस युवक के चरणों में लोट गए । अस्तु ।दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com
0 टिप्पणियाँ
दिव्य रश्मि की खबरों को प्राप्त करने के लिए हमारे खबरों को लाइक ओर पोर्टल को सब्सक्राइब करना ना भूले| दिव्य रश्मि समाचार यूट्यूब पर हमारे चैनल Divya Rashmi News को लाईक करें |
खबरों के लिए एवं जुड़ने के लिए सम्पर्क करें contact@divyarashmi.com