वांगमय ग्रंथों मे कार्तिक पूर्णिमा
सत्येन्द्र कुमार पाठक
सनातन धर्म में प्रत्येक वर्ष की 12 पूर्णिमाएं महत्वपूर्ण होती हैं। अधिकमास या मलमास की पूर्णिमा मिलने के पर पूर्णिमा की संख्या १3 हो जाती है। कार्तिक पूर्णिमा, कतकी पूरनिमा , गंगा स्नान , त्रिपुराुरी पूर्णिमा , गुरू पूर्णिमा , देव दिवाली , प्रकाशोत्सव और गुरू नानक जयन्ती के नाम से पूर्णिमा ख्याति प्राप्त है। कार्तिक पुर्णिमा को भगवान शिव ने असुरराज त्रिपुरासुर का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे। कृतिका में शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है। चन्द्र आकाश में उदित होते है उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है। गंगा नदी में स्नान करने से भी पूरे वर्ष स्नान करने का फाल मिलता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन तमिलनाडु मै अरुणाचलम पर्वत की १३ किमी की परिक्रमा होती है। पूर्णिमा बड़ी परिक्रमा कहलाती है । लाखो लोग यहां आकर परिक्रमा करके पुण्य कमाते है ।अवंतिकापुर अरुणाचलम पर्वत पर कार्तिक स्वामी का आश्रम है । उन्होंने स्कंदपुराण की रचना की गई थी । भगवान विष्णु ने प्रलय काल में वेदों की रक्षा के लिए तथा सृष्टि को बचाने के लिए मत्स्य अवतार धारण किया था।महाभारत काल में हुए १८ दिनों के विनाशकारी युद्ध में योद्धाओं और सगे संबंधियों को देखकर जब युधिष्ठिर कुछ विचलित हुए थे । भगवान श्री कृष्ण पांडवों के साथ गढ़ खादर के विशाल रेतीले मैदान पर आए। कार्तिक शुक्ल अष्टमी को पांडवों ने स्नान किया और कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक गंगा किनारे यज्ञ किया। इसके बाद रात में दिवंगत आत्माओं की शांति के लिए दीपदान करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की। इस दिन गंगा स्नान का और विशेष रूप से गढ़मुक्तेश्वर तीर्थ नगरी में आकर स्नान करने का विशेष महत्व है।
पूर्णिमा व्रत रखकर रात्रि में वृषदान बछड़ा दान करने से शिवपद की प्राप्ति होती है। भगवान भोलेनाथ का भजन और गुणगान करता है उसे अग्निष्टोम नामक यज्ञ का फल प्राप्त होता है। पूर्णिमा को शैव धर्म तथा वैष्णव धर्म म कर्तिक पूर्णिमा की महता है । कार्तिक पूर्णिमा को गोलोक के रासमण्डल में श्री कृष्ण ने श्री राधा का पूजे तथा अन्य सभी ब्रह्मांडों से परे जो सर्वोच्च गोलोक है वहां इस दिन राधा उत्सव मनाया जाता है तथा रासमण्डल का आयोजन होता है। कार्तिक पूर्णिमा को श्री हरि के बैकुण्ठ धाम में देवी तुलसी का मंगलमय पराकाट्य हुआ था। कार्तिक पूर्णिमा को देवी तुलसी ने पृथ्वी पर जन्म ग्रहण किया था। कार्तिक पूर्णिमा को राधिका जी की शुभ प्रतिमा का दर्शन और वन्दन करके मनुष्य जन्म के बंधन से मुक्त हो जाता है। बैकुण्ठ के स्वामी श्री हरि को तुलसी पत्र अर्पण करते हैं। कार्तिक मास में विशेषतः श्री राधा और श्री कृष्ण का पूजन करना चाहिए। कार्तिक में तुलसी वृक्ष के नीचे श्री राधा और श्री कृष्ण की मूर्ति का पूजन करते हैं उन्हें जीवनमुक्त समझना चाहिए। तुलसी के अभाव में हम आवंले के वृक्ष के नीचे भी बैठकर पूजा कर सकते है। कार्तिक मास में पराये अन्न, गाजर, दाल, चावल, मूली, बैंगन, घीया, तेल लगाना, तेल खाना, मदिरा, कांजी का त्याग करें। कार्तिक मास में अन्न का दान अवश्य करें। कार्तिक पूर्णिमा को अधिक मान्यता मिली है। कार्तिक पूर्णिमा को महाकार्तिकी , कुमार माह कहा गया है। पूर्णिमा के दिन भरणी नक्षत्र हो तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। अगर रोहिणी नक्षत्र हो तो इस पूर्णिमा का महत्व कई गुणा बढ़ जाता है। कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और बृहस्पति हो तो यह महापूर्णिमा कहलाती है। कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और विशाखा पर सूर्य हो तो "पद्मक योग" बनता है जिसमें गंगा स्नान करने से पुष्कर से भी अधिक उत्तम फल की प्राप्ति होती है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान, दीप दान, हवन, यज्ञ आदि करने से सांसारिक पाप और ताप का शमन होता है। इस दिन किये जाने वाले अन्न, धन एव वस्त्र दान का भी बहुत महत्व बताया गया है। इस दिन जो भी दान किया जाता हैं उसका कई गुणा लाभ मिलता है। मान्यता यह भी है कि इस दिन व्यक्ति जो कुछ दान करता है वह उसके लिए स्वर्ग में संरक्षित रहता है जो मृत्यु लोक त्यागने के बाद स्वर्ग में उसे पुनःप्राप्त होता है।
शास्त्रों के अनुसार कार्तिक पुर्णिमा के दिन पवित्र नदी व सरोवर एवं धर्म स्थान में जैसे, गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरूक्षेत्र, अयोध्या, काशी में स्नान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है। कार्तिक माह की पूर्णिमा तिथि पर व्यक्ति को बिना स्नान किए नहीं रहना चाहिए । महर्षि अंगिरा ने कहा है कि यदि स्नान में कुशा और दान करते समय हाथ में जल व जप करते समय संख्या का संकल्प नहीं किया जाए तो कर्म फल की प्राप्ति नहीं होती है। शास्त्र के नियमों का पालन करते हुए इस दिन स्नान करते समय पहले हाथ पैर धो लें फिर आचमन करके हाथ में कुशा लेकर स्नान करें, इसी प्रकार दान देते समय में हाथ में जल लेकर दान करें। आप यज्ञ और जप कर रहे हैं तब पहले संख्या का संकल्प कर लें फिर जप और यज्ञादि कर्म करें। सिख सम्प्रदाय में कार्तिक पूर्णिमा का दिन प्रकाशोत्सव के रूप में मनाया जाता है। सिख सम्प्रदाय के संस्थापक गुरू नानक देव का जन्म हुआ था। इस दिन सिख सम्प्रदाय के अनुयायी सुबह स्नान कर गुरूद्वारों में जाकर गुरूवाणी सुनते हैं और नानक जी के बताये रास्ते पर चलते है ।
कार्तिक पूर्णिमा को भगवान शिव की नगरी काशी यानी बनारस में देव दीपावली मनाई जाती है। कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को भगवान शिव की नगरी काशी यानी बनारस में देव दीपावली मनाई जाती है। देव दीपावली के दिन भगवान शिव और गंगा माता की पूजा की जाती है। संध्या के समय में गंगा आरती होती है। देव दीपावली के संदर्भ में शास्त्र के अनुसार महर्षि विश्वामित्र तथा दूसरी भगवान शिव से जुड़ी है । यह कथा महर्षि विश्वामित्र से जुड़ी है। पुराणों के अनुसार, एक बार विश्वामित्र जी ने देवताओं की सत्ता को चुनौती दी। उन्होंने अपने तप के बल से त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया। यह देखकर देवता अचंभित रह गए। विश्वामित्र जी ने ऐसा करके उनको एक प्रकार से चुनौती दे दी । इस पर देवता त्रिशंकु को वापस पृथ्वी पर भेजने लगे, जिसे विश्वामित्र ने अपना अपमान समझा। उनको यह हार स्वीकार नहीं थी।तब उन्होंने अपने तपोबल से उसे हवा में ही रोक दिया और नई स्वर्ग तथा सृष्टि की रचना प्रारंभ कर दी। इससे देवता भयभीत हो गए। उन्होंने अपनी गलती की क्षमायाचना तथा विश्वामित्र को मनाने के लिए उनकी स्तुति प्रारंभ कर दी। अंतत: देवता सफल हुए और विश्वामित्र उनकी प्रार्थना से प्रसन्न हो गए। उन्होंने दूसरे स्वर्ग और सृष्टि की रचना बंद कर दी। इससे सभी देवता प्रसन्न हुए और उस दिन उन्होंने दिवाली मनाई, जिसे देव दीपावली कहा गया। देव दीपावली की दूसरी कथा भगवान शिव से जुड़ी है। पौराणिक कथा के अनुसार, एक समय तीनों ही लोक त्रिपुर नाम के राक्षस के अत्याचारों से भयभीत और दुखी था। उससे रक्षा के लिए देवता भगवान शिव की शरण में गए। तब भगवान शिव ने कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को त्रिपुरासुर का वध कर दिया और तीनों लोकों को उसके भय से मुक्त किया। उस दिन से ही देवता हर वर्ष कार्तिक पूर्णिमा को भगवान शिव के विजय पर्व के रूप में मनाने लगे। उस दिन सभी देव दीपक जलाते हैं। इस दीपोत्सव को देव दीपावली कहा गया है।
त्रिपुरासुर : असुर बालि की कृपा प्राप्त त्रिपुरासुर भयंकर असुर थे। महाभारत के कर्ण पर्व में त्रिपुरासुर के वध की कथा बड़े विस्तार से मिलती है। भगवान कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध करने के बाद उसके तीनों पुत्रों ने देवताओं से बदला लेने का प्रण कर लिया। तीनों पुत्र तपस्या करने के लिए जंगल में चले गए और हजारों वर्ष तक अत्यंत दुष्कर तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। तीनों ने ब्रह्माजी से अमरता का वरदान मांगा। ब्रह्माजी ने उन्हें मना कर दिया और कहने लगे कि कोई ऐसी शर्त रख लो, जो अत्यंत कठिन हो। उस शर्त के पूरा होने पर ही तुम्हारी मृत्यु हो।
तीनों ने खूब विचार कर ब्रह्माजी से वरदान मांगा- हे प्रभु! आप हमारे लिए तीन पुरियों का निर्माण कर दें और वे तीनों पुरियां जब अभिजीत नक्षत्र में एक पंक्ति में खड़ी हों और कोई क्रोधजित अत्यंत शांत अवस्था में असंभव रथ और असंभव बाण का सहारा लेकर हमें मारना चाहे, तब हमारी मृत्यु हो। ब्रह्माजी ने कहा- तथास्तु!शर्त के अनुसार उन्हें तीन पुरियां (नगर) प्रदान की गईं। तारकाक्ष के लिए स्वर्णपुरी, कमलाक्ष के लिए रजतपुरी और विद्युन्माली के लिए लौहपुरी का निर्माण विश्वकर्मा ने कर दिया। इन तीनों असुरों को ही त्रिपुरासुर कहा जाता था। इन तीनों भाइयों ने इन पुरियों में रहते हुए सातों लोकों को आतंकित कर दिया। वे जहां भी जाते, समस्त सत्पुरुषों को सताते रहते। यहां तक कि उन्होंने देवताओं को भी उनके लोकों से बाहर निकाल दिया। सभी देवताओं ने मिलकर अपना सारा बल लगाया, लेकिन त्रिपुरासुर का प्रतिकार नहीं कर सके और अंत में सभी देवताओं को तीनों से छुप-छुपकर रहना पड़ा। अंत में सभी को शिव की शरण में जाना पड़ा। भगवान शंकर ने कहा- सब मिलकर के प्रयास क्यों नहीं करते? देवताओं ने कहा- यह हम करके देख चुके हैं। तब शिव ने कहा- मैं अपना आधा बल तुम्हें देता हूं और तुम फिर प्रयास करके देखो, लेकिन संपूर्ण देवता सदाशिव के आधे बल को संभालने में असमर्थ रहे। तब शिव ने स्वयं त्रिपुरासुर का संहार करने का संकल्प लिया। सभी देवताओं ने शिव को अपना-अपना आधा बल समर्पित कर दिया। अब उनके लिए रथ और धनुष-बाण की तैयारी होने लगी जिससे रणस्थल पर पहुंचकर तीनों असुरों का संहार किया जा सके। इस असंभव रथ का पुराणों में विस्तार से वर्णन मिलता है। पृथ्वी को ही भगवान ने रथ बनाया, सूर्य और चन्द्रमा पहिए बन गए, सृष्टा सारथी बने, विष्णु बाण, मेरू पर्वत धनुष और वासुकि बने उस धनुष की डोर। इस प्रकार असंभव रथ तैयार हुआ और संहार की सारी लीला रची गई। जिस समय भगवान उस रथ पर सवार हुए, तब सकल देवताओं द्वारा संभाला हुआ वह रथ भी डगमगाने लगा। तभी विष्णु भगवान वृषभ बनकर उस रथ में जा जुड़े। उन घोड़ों और वृषभ की पीठ पर सवार होकर महादेव ने उस असुर नगर को देखा और पाशुपत अस्त्र का संधान कर तीनों पुरों को एकत्र होने का संकल्प करने लगे।उस अमोघ बाण में विष्णु, वायु, अग्नि और यम चारों ही समाहित थे। अभिजीत नक्षत्र में उन तीनों पुरियों के एकत्रित होते ही भगवान शंकर ने अपने बाण से पुरियों को जलाकर भस्म कर दिया और तब से ही भगवान शंकर त्रिपुरांतक बन गए। त्रिपुरासुर को जलाकर भस्म करने के बाद भोले रुद्र का हृदय द्रवित हो उठा और उनकी आंख से आंसू टपक गए। आंसू जहां गिरे, वहां 'रुद्राक्ष' का वृक्ष उग आया। 'रुद्र' का अर्थ शिव और 'अक्ष' का अर्थ आंख अथवा आत्मा है। मत्स्य पुराण में भगवान श्रीहरि के मत्स्य अवतार , तीर्थ, व्रत, यज्ञ, दान , जल प्रलय, मत्स्य व मनु के संवाद, राजधर्म, तीर्थयात्रा, दान महात्म्य, प्रयाग महात्म्य, काशी महात्म्य, नर्मदा महात्म्य, मूर्ति निर्माण माहात्म्य एवं त्रिदेवों की महिमा आदि पर वर्णित है। मत्स्य पुराण में सात कल्पों में नृसिंह वर्णन से शुरु होकर यह चौदह हजार श्लोकों का पुराण है। मनु और मत्स्य के संवाद से शुरु होकर ब्रह्माण्ड का वर्णन ब्रह्मा देवता और असुरों का पैदा होना, मरुद्गणों का प्रादुर्भाव इसके बाद राजा पृथु के राज्य का वर्णन वैवस्त मनु की उत्पत्ति व्रत और उपवासों के साथ मार्तण्डशयन व्रत द्वीप और लोकों का वर्णन देव मन्दिर निर्माण प्रासाद निर्माण आदि का वर्णन है। मत्स्य पुराण के अनुसार मत्स्य (मछ्ली) के अवतार में भगवान विष्णु ने एक ऋषि को सब प्रकार के जीव-जन्तु एकत्रित करने के लिये कहा और पृथ्वी जब जल में डूब रही थी, तब मत्स्य अवतार में भगवान ने उस ऋषि की नांव की रक्षा की थी। इसके पश्चात ब्रह्मा ने पुनः जीवन का निर्माण किया। एक दूसरी मान्यता के अनुसार शंखासुर राक्षस ने जब वेदों को चुरा कर सागर में छुपा दिया था । भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों को प्राप्त किया और वेदों को पुनः स्थापित किया। कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा सनातन धर्म तथा मानवीय जीवन चेतना तथा खुशहाली का द्योतक है।
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