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अक्षपाद गौतम की शिक्षा नीति

अक्षपाद गौतम की शिक्षा नीति



  ॥  अक्षपादो महायोगी गौतमस्तपसि स्थित।
 गोदावरी समानेताअहल्यायापतिःप्रभु॥

महर्षि गौतम की चर्चा हमारे पुराणों में सर्वत्र हुई है ।ब्रह्मांड पुराण के अनुसार द्वापर युग के सत्ताइसवें परिवर्त में भगवान शिव के अवतार सोम शर्मा के पहले पुत्र के रूप में अवतरित हुए हैं ।इसकी पुष्टि वायु पुराण के पूर्व खंड के 30 में अध्याय से भी होती है ।लिंग पुराण के अध्याय 24 /120-123 के अनुसार अक्षपाद सोम शर्मा के सबसे बड़े पुत्र थे जो भगवान शिव के अवतार माने जाते थे । यद्यपि की वेद तथा पुराणों में अनेक गौतम नामक ॠषियों का परिचय मिलता है।मत्स्य पुराण के अध्याय 2 के अनुसार  महर्षि उर्शिज के पुत्र दीर्धतमा गौतम जन्मान्ध थे ।ऋग्वेद के अनुसार गौतम ऋषि के कूप- लाभ की बात कही गई हैः-
                                              जिह्न ननुदेऽवतं तया दिशाऽसिञ्चन्नुत्स गोतनाय तृण्णजे।
                                                         आगच्छतमवता चित्रमानवःकाम विप्र तर्पयन्त धामभिः॥485/म अ सु म
इस सूक्त के ॠषि रहुगण गौतम हें ।रहुगण के पुत्र होने के कारन इनका नाम रहुगण गौतम पड़ा ।
         शतपथ ब्राह्मण के अनुसार विदेह माधव राजा के पुरोहित के रूप में इनका परिचय मिलता है ।इसी क्रम में यह भी उल्लेखनीय है कि राजा जनक को न्याय सूत्रों का उपदेश उन्होंने दिया था। महामहोपाध्याय बिंदेश्वरी प्रसाद द्विवेदी ने अपने  न्याय वार्तिक तथा महामहोपाध्याय फणिभूषण तर्कबागीश ने अपने और बंगला न्यायभाष्य की भूमिका में गौतम का विशेष परिचय देते हुए बृहद् वर्णन किया है।
मुक्तये य शिलात्वाय शास्त्रमुवे सचेतसाम्।
 गौतमतमवेत्येव यथाबित्थ तदैव स ॥नैषधीयचरित्रम्-7/5
 यद्यपि न्याय सूत्र कार के लिए गौतम के लिए बुद्ध का प्रयोग भी किया गया है,श्री हर्ष ने गौतम ऋषि के अपत्य अर्थ में गौतम का उपहास किया है ।
माहाभारत में गौतम को मेधातिथि बताया गया है जिन्होने पति होने के कारण अहिल्या का परित्याग किया था ।इन्होने अपने पुत्र चिरकारी को अपनी माँ अहिल्या की हत्या का आदेढ दिया था ,परन्तु अपने संस्कार के कारण उन्होने ऐसा नहीं किया ।इस प्रकार अपने पुराणों में गौतम कई मिलते हैं,परन्तु मेरे केंद्र में महर्षि अक्षपाल गौतम हैं ।
      सर्वप्रथम हमने देवी पुराण की कथा प्रयाग के कुम्भ मेले में एक बहुत बड़े महात्मा से सुनी थी। इसके अनुसार संपूर्ण भारत में नास्तिकता आवाध गति से फैल रही थी। उस समय धर्म अनुष्ठान लुप्तप्राय हो रहे थे जिससे देवताओं के अंश पर भी ग्रहण लग रहे थे। सभी देवताओं ने भगवान शंकर से प्रार्थना की।भगवान शंकर की प्रेरणा से देवगन गौतम ऋषि के पास गए । उन्होंने भगवान शंकर का आदेश मानकर नास्तिक मतों के उन्मुलन हेतु बुद्ध परिकर होकर संपूर्ण आर्यावर्त की यात्रा की एवं नास्तिक मतों को उच्छेदित किया। कहा जाता है कि भगवान शंकर बालक रूप धरकर इनके साथ रहे एवं नास्तिक मतों के पक्ष में नए-नए तर्क देते रहे ।भगवान शंकर इनकी मेधा शक्ति की परीक्षा कर रहे थे ।इस तर्क में किसी  की जय पराजय नहीं हुई ,परंतु भगवान शिव ने इन्हें तर्क में नहीं हराने के कारण यह कह कर मौन होने का आदेश दे दिया कि तुम एक बालक को नहीं हरा सके तो नास्तिक मतावलम्बियाों को कैसे हरा पाओगे । इन्होंने भी भगवान शिव को अंतर्दृष्टि से पहचान कर उनसे प्रार्थना की और उनसे वरदान लेकर न्याय शास्त्र की रचना की ।इसका पहला प्रयोग उन्होंने अपने 10 शिष्यों पर 10 दिनों तक किया जो आज  पंचाध्याई न्याय शास्त्र के रूप में विद्यमान हैं ।भगवान वेदव्यास ने महर्षि गौतम से इस न्याय शास्त्र का विधिवत अध्ययन किया था ।बाद में उन्होंने तर्कशास्त्र का खंडन करते हुए ब्रह्मसूत्र की स्थापना की। इससे गुरु महर्षि गौतम ने गुस्से में आकर अपने शिष्य वेदव्यास को इन आंखों से नहीं देखने का संकल्प ले लिया । शिष्य वेदव्यास के द्वारा तर्कयुक्त प्रार्थना करने पर गुरु महर्षि गौतम ने अपने चरण में आंख उत्पन्न कर लिया जिससे उन्हें देखा। तभी से महर्षि गौतम अक्षपाद के नाम से जाने गए। परंतु यह कथा देवी भागवत में मुझे नहीं मिली ।लोगों से विमर्श करने पर ज्ञात हुआ कि मातृका
 (पांडुलिपि )में उपलब्ध है, ऐसा प्रमाण महामहोपाध्याय फणिभूषण तर्कबागीश की भूमिका तथा आचार्य उदयन द्वारा न्याय दर्शन के शिवमतावलंबी होने के प्रमाण के रूप में न्याय कुसुमांजलि के उधृर मिलता है ।बाद में भगवान शंकर को संतुष्ट कर उनसे  न्याय दर्शन प्राप्त किया था ।(न्यायिक जयंत भट्ट -न्यायमंजरी)
       महर्षि गौतम का आश्रम प्राचीन परंपरा के अनुसार मिथिला में था ।भौगोलिक दृष्टि से बिहार के दरभंगा नगर से उत्तर लगभग  28 किलोमीटर उत्तर इनके आश्रम का अवशेष आज भी विद्यमान है ।वही निकट में अहिल्या का स्थान भी है और वेद प्रसिद्ध वह कूप भी है जिससे देवताओं ने  महर्षि गौतम को संतुष्ट किया था। यही कारण है कि मिथिला में आदि काल से न्याय शास्त्र का अधिक प्रचार- प्रसार हुआ।
                                                                                                                                   डॉ सच्चिदानान्द प्रेमी
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