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वोटों की कीमत

वोटों की कीमत

चुनाव की व्यार सन-सना-सन बहने लगे हैं, 
कुर्सी की खातिर रसाकशी अब होने लगे हैं। 
कुर्सी मिल चुकी थी किसी की मेहरवानी से, 
सालों से बैठ बंगले में रंगरेलियां मनाते रहे हैं। 
खत्म हुआ कार्यकाल आया मौसम चुनाव का, 
मौसमी मेढक के तरह सब टर-टर-टर्राने लगे हैं । 
धू-धू कर जलती थी जब गरीब जनों की बस्तियाँ, 
ओछी राजनीति की रोटियां सेंकने में लगे रहे हैं। 
दंगे होते रहे मजबूर थे सब घर में कैद रहने को, 
दंगों के आग में नफरत का घी डालने में लगे रहे हैं। 
जो उड़ रहे थे बिना पंख के सुदूर आसमानों में,
जन सभाओं में खुद खून की आँशु बहाने लगे हैं। 
जनता के अरमानों की होली खेलने वाले नेताजी, 
अब मोहब्बत की मिठाईयाँ फिर बांटने लगे हैं। 
मैं कहता हूँ अच्छे दिन अब गुजर गए तुम्हारे, 
बिना तेल दीपक के बाती अब क्यों जलाने लगे हैं। 
जीत की आखरी फैसला आखिर वोटों सेही होंगे,   
हर जनता भी अब वोटों की कीमत समझने लगे हैं। 

        ✍️ डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश "
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