संबन्ध
यह क्या ?
कैसा स्वार्थ ,
निजहित या जनहित,
नहीं नहीं
जनहित में
भेद-भाव कहाँ ?
जनहित में सबसे प्रीत,
यही है रीत!
ये नशा दौलत की
या सोहरत की,
आडम्बर ही आडम्बर
नहीं!
ये निज हित है।
फिर,
आडम्बर क्यों ?
कपट कैसा ?
हम सब
किरायेदार हैं,
मृत्य लोक के!
अदा मात्र करना है,
तन भी उधार का
घर भी उधर का
फिर कपट क्यों ?
मुस्कुरा कर जियो
स्वाभिमान से जियो
किन्तु,
सब को जीने दो!
सभी अपने हैं,
पराया मत समझो
किसी को,
लकीर मत खींचो
अपनों के बीच
कच्चे धागे जैसा
नाजुक होते हैं
रिश्ते,
गांठ पड़ जाते हैं,
टूटने के बाद ।
✍️ डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश "
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