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महाशिवरात्रि अर्थात् अमान्त माघ मास की कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि या पूर्णिमान्त फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी तिथि पर की जाने वाली पूजा, व्रत, उत्सव तथा जागरण।

महाशिवरात्रि अर्थात् अमान्त माघ मास की कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि या पूर्णिमान्त फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी तिथि पर की जाने वाली पूजा, व्रत, उत्सव तथा जागरण।

संकलन अश्विनीकुमार तिवारी

शिवधर्म ग्रन्थ में शिवरात्रि पर रामलीला खेले जाने की भी बात कही गई है।
कश्मीर में शिवरात्रि हररात्रि है जो बिगड़कर हेरात कही जाती है, विगत वर्ष बंदीपुरा संबल में शिव मन्दिर की सफाई, जलाभिषेक तथा प्रसाद में अखरोट वितरण भी वहाँ के मुस्लिमों ने किया था।
कहते हैं कि भोलेनाथ और उमा पार्वती का विवाह इसी तिथि को हुआ था। खगोलीय दृष्टि से सूर्य एवं चन्द्रमा के मिलन की रात्रि है तथा संवत्सर की गणना का आधार माघ अमावस्या रही है, काल गणना के हेतु से यह त्योहार चतुर्दशी से तीन दिन पहले से लेकर दो दिन बाद प्रतिपदा तक चलता था।
भारतवर्ष में धनिष्ठा नक्षत्र में उत्तरायणारम्भ होने के समय कालगणना नियम बने थे, एक हजार वर्षों में अयन सरक कर श्रवण में जा पहुँचा था। यह एक बड़ा कारण 'श्रवण' का अनेक त्योहारों से जुड़े होने में है।
इस कारण महाशिवरात्रि को कुछ ग्रन्थ त्रयोदशी तिथि से संयुक्त प्रदोष व्यापिनी चतुर्दशी तिथि ग्रहण कर मनाये जाने की बात करते हैं, इसमें कारण 'नक्षत्र का प्राधान्य' है।
चूँकि तीज-त्योहारों के मनाये जाने सम्बन्धी नियम निर्देश बहुत पहले निश्चित किये गये थे इस कारण अब कालगणना सम्बन्ध नहीं रहा।
काल के भी ईश्वर महाकालेश्वर की जय बोलते हुये उत्सव मनाइये, आशुतोष तो अवढर दानी हैं ही किसी को भी निराश नहीं करते हैं। मन्दिरों में काँच न फैलायें और न बहुत अधिक फूल पत्तियाँ ले जाना आवश्यक है केवल जल चढ़ा देने से भी शिव उतने ही प्रसन्न होते हैं।
✍🏻अत्रि विक्रमार्क

महाशिवरात्रि की कहानी

आपके पूर्वानुमान पर, आपके पूर्वाग्रहों पर कोई चीज़ सही सही ना बैठे तो बड़ी समस्या होती है | इस से नैरेटिव बिल्ड करने में दिक्कत हो जाती है | आप ये नहीं कह सकते कि “मैंने तो पहले ही कहा था” तो आपके अहंकार को भी चोट पहुँचती है | ज्ञानी सिद्ध होने में दिक्कत हो जाती है | हिन्दुओं के बारे में पूर्वाग्रहियों को यही सबसे बड़ी दिक्कत रही | उनके रिलिजन के कांसेप्ट पर हम फिट नहीं आते | कई बार हमारे बारे में चुप्पी साधनी पड़ती है | महाशिवरात्रि की कहानी के साथ भी ऐसा ही है |

यही वजह है कि जैसे होलिका दहन का किस्सा सुनाया जाता है वैसे शिवरात्रि के लिए नैरेटिव बिल्ड करने की कोशिश कम होती है | ऐसे में कोशिश की जाती है कि चुप रहकर शिवरात्रि की कहानी को भुला देने की कोशिश की जाए | इस त्यौहार से जुडी कहानी छोटी सी है, और एक व्याध यानि बहेलिये या शिकारी की कहानी है | चित्रभानु नाम के इस शिकारी ने कुछ कर्ज ले रखा होता है जिसे ना चुकाने पर साहूकार उसे बंद कर देता है | संयोग से उसी दिन शिवरात्रि थी और बंद पड़ा चित्रभानु बाहर धार्मिक चर्चा कर रहे लोगों को सुन रहा होता है | शाम में जब उसे खोला गया तो वो कर्ज चुकाने का वादा करके छूटता है |
अब शिकारी था तो वो जंगल में जाकर शिकार के लिए झील के पास एक मचान बनाना शुरू करता है | इस बार किस्मत से वो बिल्व वृक्ष यानि बेल के पेड़ पर मचान बना रहा होता है जो कि शिव का प्रसाद है | मचान बनाने के लिए तोड़ी गई पत्तियां नीचे शिवलिंग पर गिर रही होती हैं | अब हिन्दुओं की कहानी है तो यहाँ अन्य जीव जंतुओं को भी मनुष्यों जैसी ही भावना, और बात-चीत में समर्थ दर्शाया जाता है | इसलिए झील पे जो पहली हिरणी आती है वो भी शिकारी को तीर चढ़ाते देख उस से बात करने लगती है |

वो हिरणी बताती है कि वो गर्भवती है इसलिए उसे अभी मारना उचित नहीं | बच्चे के जन्म तक उसे जीवनदान दिया जाना चाहिए | हिरणी वादा करती है कि प्रसव के बाद वो शिकारी के पास लौट आएगी | अब अकारण की गई भ्रूणहत्या से ठीक एक स्तर नीचे का पाप गर्भवती को मारने पर होता तो शिकारी रुक जाता है | थोड़ी देर और बीती तो दूसरी हिरणी, हिरण के बच्चों के साथ आती है | शिकारी फिर तीर चढ़ाता है लेकिन ये हिरणी भी उसे देख लेती है और वो कहती है कि उसे बच्चों को पिता के पास छोड़ कर आने का अवसर दिया जाये |

शिकारी कहता है कि वो मूर्ख नहीं कि हाथ आये शिकार को जाने दे, और हिरणी कहती है बच्चों को घर से दूर अनाथ करने का पाप उसपर आएगा | शिकारी फिर मान जाता है और हिरणी का बच्चों को घर छोड़ कर आने का वादा मानकर उसे जाने देता है | थोड़ी देर में तीसरी हिरणी आती है और वो भी शिकारी को देखकर उससे प्राणदान माँगना शुरू करती है | उसका कहना था कि उसका ऋतुकाल अभी समाप्त हुआ है इसलिए उसे पति से मिल आने का समय दिया जाए | शिकारी को पता नहीं क्या सूझा था, वो अपने बच्चों के भूखे होने वगैरह का सोचता भी है मगर फिर से हिरणी को जाने देता है |

अब तक रात का चौथा पहर हो गया था | सुबह होने ही वाली थी कि अब एक हिरण वहां पहुंचा | अब जब शिकारी तीर चढ़ाता है तो हिरण बोला कि अगर शिकारी ने तीन हिरणियों और उसके बच्चों को मार डाला है तो उसके जीने का भी कोई ख़ास मकसद नहीं बचा | इसलिए शिकारी तीर चला दे ! चित्रभानु बताता है कि तीन हिरणियां वहां आई तो थी मगर उन सब के लौट आने के वादे पर उसने सबको जाने दिया है | अब हिरण कहता है कि अगर उसे मार दिया तो तीनों हिरणियां अपना वादा तो पूरा कर नहीं पाएंगी, क्योंकि पति तो वो है, उसी से मिलने गई हैं तीनों !

जैसा कि अभ्यास से होता है, वैसे ही, बार बार भलमनसाहत दिखाने से शायद आम हिन्दुओं टाइप, शिकारी चित्रभानु को भी दया दिखाने की आदत पड़ गई थी | अब वो हिरण को भी हिरणियों से मिल कर वापिस आने की इजाजत दे देता है | अब चारों शिकारों को जाने देने वाला शिकारी सोच ही रहा होता है कि क्या करे इतने में हिरण परिवार सहित उपस्थित हो जाता है | हिन्दुओं वाले हिरण थे तो मरने की स्थिति की स्थिति में भी वादा पूरा करने चले आये | पारधी चित्रभानु भी हिन्दू ही था तो वो ऐसा होता देख कर पश्चाताप और ग्लानी से भरा अपने मचान से नीचे उतर आया |

उधर रात भर पेड़ से बेलपत्र गिरने के कारण शिव जी सोच रहे थे ये घने जंगल में पूजा कौन कर रहा है ? तो उन्होंने भी शिकारी पर नजर बना रखी थी ! शिकारी कहता नहीं मार रहा, और हिरण परिवार कहता वादा पूरा होना चाहिए, इसकी बहस हो ही रही थी कि सुबह सुबह भगवान शिव भी पूजा का फल देने प्रकट हुए | हिरण परिवार को कठिनतम परिस्थिति में भी अपना किया वादा निभाने के लिए मोक्ष मिला | शिकारी को हिंसा के त्याग और पश्चाताप के फलस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति हुई | ये ही कहानी थोड़े बहुत अंतर के साथ सभी हिन्दू शिवरात्रि की कथा के रूप में जानते हैं |

गुजरात का सोमनाथ हो, या महाकाल उज्जैन, काशी विश्वनाथ का मंदिर हो या फिर त्रयम्बकेश्वर नासिक, बैजनाथ बिहार का मंदिर हो या सुदूर रामेश्वरम, दुर्गम हिमालय का केदारनाथ हो, नेपाल का पशुपतिनाथ या फिर मद्रास का शैल मल्लिकार्जुन हर जगह यही कथा सुनाई जायेगी | ग्रंथों से कम वास्ता रखने वाले अघोरी हों, या भयानक रूप से शिक्षित नागा सन्यासी, सब इसी कथा का श्रवन करेंगे | ये कहानी विविधता में एकता का उदाहरण भी है | बहेलिये की कहानी है, सुनने वाले ब्राह्मण भी होंगे, तो मोक्ष के अधिकार पर जात-पात के बंधन की गुंजाइश भी नहीं रहती |

हिरणियों या हिरण के शिकार से उनके बच्चों यानि अगली पीढ़ी पर असर ना हो ये भी याद दिलाया गया है तो आज के सस्टेनेबल डेवलपमेंट की भी कहानी है | चित्रभानु पेड़ पर बैठा अनजाने ही पूजा कर बैठा था, तो मंदिरों में प्रवेश के लिय ऊँची-नीची जाति की बात करने वालों को भी सुननी चाहिए | हां नैरेटिव बिल्ड करने, साधारण कहानियों में वर्ण भेद, स्त्री विरोध या हाशिये पर के वर्ग का शोषण ढूँढने की कहानी खोज रहे लोगों को थोड़ी निराशा होगी | वो शायद इसे ना पढ़ना-सुनना चाहें | चुप्पी साधकर वो इसे भुलाने या इग्नोर करने की कोशिश जारी रख सकते हैं |

बाकी शिवरात्रि है तो “भक्तों” के साथ साथ “विभक्तों” अर्थात बंटे हुए लोगों को भी शुभकामनाएं !

ये कहानी लम्बी सी है, और काफी भाव के साथ कथावाचक इसे बांचते सुनाई दे जायेंगे। मोटे तौर पर ये शिवरात्रि से जुड़ी कहानी है जो भक्तों को भाव विभोर करने के लिए सुनाई जाती है। इसे सुनकर आस्था कितनी जागती है या लोग कितने भाव-विह्वल होते हैं ये हमारा मसला नहीं।

हम इस कहानी से बस इतना समझते हैं कि भगवान, भगवान होते हैं, कोई राक्षस नहीं होते। छोटी मोटी सी कोई पूजा में पाठ में गलती हो भी गई तो वो आपको खा जाने नहीं कूद पड़ेंगे। गलतियाँ अनदेखी करके आपके सिर्फ अच्छे काम जोड़े जायेंगे। “परमहंस” के स्तर पर पहुंचे साधुओं तक भी बदबू जैसी चीज़ें नहीं पहुँचती, वो सिर्फ सुगंध महसूस कर पाते हैं तो भगवान तक कमियां कैसे पहुंचेंगी ? पाठ की विधि से आपके पुण्य कम-ज्यादा हो सकते हैं, असर अलग अलग हो सकता है, पाप नहीं हो सकता। हिन्दुओं में अँधेरे का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता, रौशनी का ना होना अँधेरा है। आप रौशनी कर सकते हैं अँधेरा नहीं कर सकते।

धर्म का लोप होना अधर्म होता है, आप अलग से अधर्म नहीं कर सकते। परिग्रह बंद करने से अपने आप अपरिग्रह होता है, हिंसा बंद करने पर अपने आप अहिंसा होगी। पुण्य का ना होना पाप होता है, अलग से पाप नहीं किया जा सकता। किसी पुराण-धार्मिक ग्रन्थ के पाठ की पूरी विधि का पालन नहीं किया या जानकारी ही नहीं तो पुण्य थोड़ा सा कम हो सकता है, पाप नहीं हो सकता। पैदा होते ही पापी होने की या अलग से पाप कर लेने की इसाई मानसिकता को हिन्दुओं पर मत थोपिए। 

सही विधि का आश्वासन खुद शंकराचार्य उतर आयें तो भी नहीं दे सकते, और ये सभी ग्रंथों में लिखा होता है कि पूर्ण विधि की जानकारी किसी को नहीं। विधि-विधान के पूरे ना होने पर पाप नहीं लगता, उठाइये और पढ़िए।
✍🏻आनन्द कुमार

शिव महेश्वर (11500 विक्रमी पूर्व)
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परिचयः-------------
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वंश-  ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार शिव की माता का नाम
सुरभि और पिता का नाम प्रजापति कश्यप था। शिव के
दश सहोदर भाई थे। शिव ज्येष्ठ थे।
महाभारत अनुशासनपर्व 17 के अनुसार शिव के 1008
नाम हैं। शान्तिपर्व 284 के अनुसार शिव के 600 नाम
हैं।
शिव के प्रधान नामों में से हैं.....शिव, शर्व, भव,
शंकर, शम्भू, पिनाकी, शूलपाणी, महेश्वर, महादेव,
स्थाणु, गिरीश, विशालाक्ष और त्र्यम्बक।
त्रिपुरदाह के कारण शिव का नाम महादेव पडा---
महाभारत, कर्णपर्व..34.13
प्राच्यदेशवासी शिव को शर्व कहते हैं और बाहीक लोग
भव कहते हैं---शतपथ ब्राह्मण--1.7.3.8
शिव ने देवों के हित के लिए अविलुप्त ब्रह्मचर्य व्रत
धारण किया। इसलिए शिव को ब्रह्मचारी, ऊर्ध्वरेता,
ऊर्ध्वलिङ्ग और ऊर्ध्वशायी कहते हैं---"ऊर्ध्वरे
ता---अविलुप्तब्रह्मचर्य। ऊर्ध्वलिङ्गः---
अधोलिङ्गो हि रेतः सिंचति, न तूर्ध्वलिङ्गः।
ऊर्ध्वशायी---उत्तानशायी---इति नीलकण्ठः।।"
महाभारत--अनु. 17.46 (17.75)।
क्योंकि शिव ने नित्य-ब्रह्मचर्य के कारण पार्वती में
किसी वंशकर (पुत्र) को उत्पन्न नहीं किया , इस
कारण शिव का एक नाम "स्थाणु" भी प्रसिद्ध
हुआ।---"स्थिरलिङ्गश्च यन्नित्यं तस्मात्
स्थाणुरिति स्मृतः। नित्येन ब्रह्मचर्येण लिङ्मस्य
यदा स्थितम्।।"(महा.अनु. 161.11,15)
लोक में भी फलशाखाविहीन शुष्क वृक्ष (ठूँठ) के लिए
स्थाणु शब्द का व्यवहार होता है।
शिव बहुत बडे राजनेता भी थे, अतः उनका नाम
"विशालाक्ष" पडा। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में
विशालाक्ष के अनेक मत उद्धृत किए हैं।
शिव जन्म से परम-ज्ञानी थे, अतः उनका नाम गुह्यगुरु
पडा---अभिधानचिन्तामणि कोष (स्वोपज्ञ-टीका----
हेमचन्द्र)
शिव का शास्त्र-ज्ञानः---
शिव अनेक ग्रन्थों के प्रवक्ता थे।महाभारत
शान्तिपर्व (142.47) के अनुसार शिव सात महान् वेद-
पारगों में से एक थे।
शिव सांख्ययोग-ज्ञान के प्रवर्तक, गीतवादित्र के
तत्वज्ञ, शिल्पियों में श्रेष्ठ तथा सर्वविध शिल्पों के
प्रवर्तक थे-----सांख्याय सांख्यमुख्याय
सांख्ययोगप्रवर्तिने।।महा.शा.284.114
"गीतवादित्रतत्वज्ञो गीतवादनकप्रियः" 142
"शिल्पिकः शिल्पिनां श्रेष्ठः सर्वशिल्पप्रवर्तकः।।"
148
शिव वेदाङ्गों के प्रवर्तक थे--"वेदात् षडङ्गान्युद्धृत
्य" महा.शा. 284.82
मत्स्यपुराण 251 के अनुसार वे वास्तुशास्त्री भी थे।
आयुर्वेद के रसतन्त्रों के अनुसार शिव रसविद्या के
परम-ज्ञाता थे।
शिव अर्थशास्त्र के भी प्रवक्ता थे---महा,शा.
59.81,82
शिष्यः---
यादवप्रकाश कृत पिङ्गल छन्दःशास्त्र के अनुसार
शिव ने बृहस्पति को छन्दःशास्त्र का उपदेश
किया था। उन्होंने गुह, पार्वती और
नन्दी को छन्दःशास्त्र का प्रवचन किया था।
नन्दी शिव का प्रियतम शिष्य और अनुचर था।
काल---
शिव का काल सतयुग का चतुर्थ-चरण है। इस प्रकार
शिव का प्रादुर्भाव आज से लगभग 11 सहस्र पूर्व
है।
असाधारण अखण्ड ब्रह्मचर्य, योगजशक्ति और
रसायन के सेवन से शिव ने मृत्यु को जीत लिया था।
इसीलिए उन्हें "मृत्युञ्जय" कहा जाता है।
शिव परम-योगी थे, परन्तु देवों की प्रार्थना पर उन्होंने
तात्कालिक देवासुर-संग्रामों में अनेक बार महत्वपूर्ण
भाग लिया था। उनमें त्रिपुरदाह एक विशेष घटना है।
यह एक ऐसा महान् कार्य था, जिसे अन्य कोई भी देव
करने में असमर्थ था। अत एव त्रिपुरदाह के कारण
शिव देव से महादेव बनें।
समुद्र-मन्थन के समय लोककल्याण के लिए शिव
का विषपान करना और योगज-शक्ति से उसे जीर्ण कर
देना भी एक आश्चर्यमयी घटना थी।
इसी प्रकार दक्ष-प्रजापति के यज्ञ का ध्वंस भी एक
विशेष घटना थी। इसी में इन्द्र के
भ्राता पूषा का दन्त-भग्न हुआ था।
 ✍🏻वैदिकसंस्कृत

लकुलीश - एक शिवावतार

उत्‍तर से पश्चिमी भारत होते हुए दक्षिण तक लाकुलीश शिव के कई मन्दिर मिलते हैं। मेवाड में 8वीं सदी से ही लाकुलीश मंदिरों का निर्माण आरंभ हुआ था और पहला शिवालय कल्‍याणपुर में था जिसको शूलिन मंदिर कहा गया है। यहां जो शैव साधक रहा था, वह अपने मार्ग को शिव आम्‍नाय कहता है और आम्‍नाय की परिभाषा भी देता है। 

दसवी सदी के आरंभ में उदयपुर जिलांतर्गत कैलासपुरी लाकुलीश मंदिर बना था। इसमें शिव की जो मूर्ति विराजित है, वह तीर्थंकर की तरह है और हाथ में बीजपूरक (बीजोरा नींबू), लकुटी लिए है जबकि शिव ऊर्ध्‍वमेढ्र हैं। लाकुलीश मूर्ति का यही लक्षण विश्‍वकर्मावतार नामक ग्रंथ में आया है।

चौथी सदी में संपादित हुए वायुपुराण में शिव के इस अवतार की कथा आती है। कहा गया है कि यह अवतार तब हुआ जबकि द्वापर में कृष्‍ण का जीवनकाल था। तब शिव ने कायावरोहण (गुजरात के बडौदा के पास) नामक स्‍थान पर श्‍मशान में साधक के रूप में अपना अवतार ग्रहण किया था। बाद में, 13वीं सदी में संपादित हुए शिवपुराण में तो इस अवतार की पूरी कथा ही दे दी गई है। इसके साधक बहुत कठिन साधना करते थे और शरीर को इतना तपाते थे कि आज तो विचार करना ही कठिन होता है।

कायावरोहण माहात्‍म्‍य नामक ग्रंथ में इसका संदर्भ मिलता है। यह माहात्म्य तीर्थ स्थलों के बढ़ते प्रभाव के काल की देन है जिसको "लाकुलीश पुराण" के रूप में विस्तृत करने का प्रस्ताव मुझे मिला था।

इस सम्‍प्रदाय का एकमात्र ग्रंथ 'गणकारिका' है। इसमें मात्र आठ ही श्‍लोक हैं और प्रारंभ 'ओम नम: सर्वज्ञाय' श्‍लोक से हुआ है। आचार्य हरदत्‍ताचार्य ने इसकी रचना की और आचार्य भासर्वज्ञ ने इसकी रत्‍नटीका नामक विवृत्ति रची थी। इसका अनुवाद मैंने एकलिंगपुराण के परिशिष्‍ट में दिया है। (एकलिंगपुराण पृष्‍ठ 500-502) इसके साधकों के लिए यह निर्देश था कि वे निवास के कर्म का सदैव ध्‍यान रखें, जप करें, ध्‍यान करें, एकमेव रुद्र का ही ध्‍यान करें और स्‍मरण करें- 

वासचर्या जपध्‍यानं सदारुद्रस्‍मृतिस्‍तथा। 
प्रसादश्‍चैव लाभानामुपाया: पंच निश्चिता।। (गणकारिका 7)

कश्मीर और व्रज - मथुरा से लेकर पंजाब, हरियाणा, राजस्‍थान, वारंगल, हिमालय, गुजरात आदि में इस मत के बहुत मंदिर मिलते हें। कहां-कहां है, मित्र बनाएंगे, मैं तो बस शिवरात्रि के उपलक्ष्‍य में यह बात शुरू कर रहा हूं। मित्र प्रकाशजी मांजरेकर ने चित्र भेजे तो अच्‍छा लगा कि इस संबंध में कुछ लिख दिया जाए। वैसे बाणभट के हर्षचरित में शैव साधकों की क्रियाओं का अच्‍छा वर्णन मिलता है।
✍🏻श्रीकृष्ण "जुगनू"
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