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पीती रही जहर

पीती रही जहर (कविता)


रहती है

अपनी मर्यादा में
देहरी के अंदर
रखती है 
सबके लिए छुपाकर
भावनाओं लहर
कभी वह कह नहीं पाती,
अकेली रह नहीं पाती,
बस जोहती रहती है
पथरीली आंखों से
सुनी डगर
जरूर है समझने की,
न की रुपये,कपड़े,गहने की,
दें देती वह सब
उसे समझोगे कब,
एक तेरे लिए ही है
चाहे मन हो या फिर नजर
रखती ममता की आंचल
सुखद और स्वप्निल पल
लेकिन हर बार छली गई,
भावना कुचली गई
जो जीवन की रसधार रही
वह पीती रही है जहर
कुछ तो सम्मान करो,
उसकी पीड़ा को हरो,
हमेशा भागते रहे हो तुम
अब तो ठहर
वह भी चाहती है,
कोई मुझे भी समझें
लेकिन तुम तैयार न हो
छोड़ देते हो अनसुलझे
उसे हाथ पकड़कर
       ---:भारतका एक ब्राह्मण.
         संजय कुमार मिश्र 'अणु'
         वलिदाद अरवल ( बिहार)
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