दूसरा वनवास
हे राम
मैं एक बार फिर बैठा हूँ
आपकी प्रतिक्षा में
तक रहा हूँ वन की तरफ
कब आयेंगे आप ?
अपने पहले वनवास से
जब लौटे थे आप
आपने दिया था मुझे
अपना सर्वोत्तम उपहार
कहा था--
इसे अपने तक मत रखना सीमित
बाँटते रहना औरों के बीच
इससे मानव हो जायेगा
विकारों से रहित
पा लेगा अपने होने का अर्थ
पर सदियों बाद आपका उपहार
अब बहुतेरे लेने से कर रहे हैं इनकार
कुछ कहते हैं --
ये नहीं हैं मेरे जाति और धर्म के
नहीं हैं मेरे विश्वासपात्र
कुछ जपते हैं आपका नाम
पहनकर आपका चोला
पर इनके दुराचार से
पीड़ित है समाज
कुछ सुनकर आपका नाम
रावण की भाँति
करते हैं अट्ठहास
कहते हैं--
मैंने ही दिया है
राम को दूसरा वनवास
ताकि कायम रहे मेरा साम्राज्य
मैं सुनकर उनकी बातें
हो जाता हूँ दुःखी और स्तब्ध
हे राम
एक प्रश्न उठता है
मेरे मन में बार- बार
क्या रावण इतना बुरा था
जितना कि आज का समाज ?
जलता है हर वर्ष रावण
पर क्यों होता है ऐसा प्रतीत
जलाने वाले भी हैं
उसी के प्रतीक ?
हे राम
आज नहीं है कोई शबरी
जो खिलाएगी आपको जूठे बेर
आज नहीं हैं सुग्रीव, जामवंत और हनुमान
आपके पास
पर कुछ लोगों के हृदय में
सदैव बसते हैं आप
उनमें आदर्श और मर्यादा के रूप में
उपस्थित रहते हैं आप
तभी तो है इंतजार
एक दिन लौटेंगे आप
और मनुष्यता बचाने की
हर कोशिश होगी साकार ।
--- वेद प्रकाश तिवारी
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