
परिवर्तनों के दौर में संस्कृति और कानून
संकलन अश्विनी कुमार तिवारी
जब भारत गुलामी के दौर में था, तो कई ऐसे कानून बने जिनके जरिये यहाँ की मूल जनता को कुचला जा सके। इनके कारण जो चीज़ें हमारी संस्कृति का हिस्सा थी, उनमें से कई लापता होने लगी। जब शास्त्रों और शस्त्रों पर प्रतिबन्ध लगने लगे तो कई कलाओं को उनका रूप बदलकर जीवित रखा गया। उदाहरण के लिए युद्ध कलाओं में प्रयुक्त होने वाले बिहार के परी-खांडा और ओड़िसा आदि के छाऊ को हम अब नृत्य कलाओं के रूप में जानते हैं। संविधान में “संस्कृति” पर कोई विशेष चर्चा नहीं थी। इसलिए दशकों तक किसी को याद ही नहीं आया कि देश तो केवल एक संस्कृति से जुड़ा है! धर्म, भाषा, परम्पराएं सभी संस्कृति के तारों से जुड़ी होती हैं।
हाल ही में सरकार बहादुर ने पुराने कई नियमों को बदला। इस क्रम में मणिपुर के थांग-ता, पंजाब के गटका, केरल के कलारीपयट्टू और महाराष्ट्र-मध्यप्रदेश के मल्लखंभ को भी खेलों में शामिल किये जाने की घोषणा हुई। अभी भी छाऊ और परी-खांडा इससे बाहर ही हैं, लेकिन कहा जा सकता है कि चलिए शुरुआत तो हुई! असम के क्षेत्र में स्वतंत्रता मिलने से पहले मुस्लिम लीग की सरकारों ने मदरसों का प्रांतीयकरण कर डाला था। एक सेक्युलर सरकार को मजहबी शिक्षा पर क्यों खर्च करना चाहिए, पता नहीं। अगर खर्च करती भी है, तो केवल एक मजहब के लिए ही ये विशेषाधिकार क्यों? सभी को ऐसी सुविधा क्यों नहीं दी जा रही, ये भी भी नहीं मालूम।
जो भी हो, आज हेमंत बिसवा शर्मा असम में मदरसों के प्रांतीयकरण को वापस लिए जाने का प्रस्ताव ला रहे हैं। ऐसे कई कानून थे जो भारत के मूल निवासियों का नहीं, उनपर शासन करने चले आये विदेशियों का हित साधते थे। करीब हजार वर्षों से हिन्दुओं ने ऐसे शासन (या कहिये शोषण) के विरुद्ध प्रतिरोध जारी रखा। जब तक तलवारों-बंदूकों से सामना होता रहा, युद्ध कलाओं को छाऊ जैसे नृत्यों का रूप देकर लड़ने की क्षमता को जीवित रखा गया। जब फ्रांसिस ज़ेवियर जैसे हत्यारे किताबों को जलाते और हिंसा के जरिये धर्म-परिवर्तन में लगे थे, तब कुछ लोगों ने धर्म ग्रंथों को याद करके भी उन्हें आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखा। आततायियों का दमन जैसे-जैसे बढ़ता रहा, ऐसे प्रयास और तेज ही होते रहे।
कानूनों के जरिये ऐसा कैसे किया जा सकता है, इसका सबसे आसान उदाहरण तो हाल ही में दिल्ली में पटाखे फोड़ने के लिए बनाया गया काला कानून था। जनता ने इस वर्ष उस कानून की भी गांधीवादी तरीके से “सविनय अवज्ञा” कर डाली। मगर क्या इतने भर से ये रुक जायेगा? ये पहली बार नहीं हो रहा था, ना ही ये अंतिम बार था। अगर 1955 के दौर की “हिन्दू मैरिज बिल” पर आई बहसें देख लें तो उतने से ही ये साफ़ हो जाता है कि ऐसा होता आया है। उस दौर में एनसी चटर्जी जो कि भूतपूर्व लोकसभा अध्यक्ष कॉमरेड सोमनाथ चटर्जी के पिता और हिन्दू महासभा के नेता थे, वो इस बिल के विरोध में बहस करते नजर आ जाते हैं। पिछले वर्षों का हिसाब देखें तो कुछ समय पहले तक के आंकड़ों के मुताबिक मोदी जी की सरकार औपनिवेशिक दौर के 1800 कानून (एक दिन में नौ कानूनों की दर से) ख़त्म कर चुकी थी।
ऐसे कानूनों से विदेशियों की फेंकी बोटियों पर पलने वाली एक जमात को बड़ा फायदा होता था। कैसे? इसे अर्थशास्त्र और मार्केटिंग की भाषा में “एंट्री बैरियर” कहते हैं। ये कानून ऐसे थे जिनसे नए लोगों को किसी क्षेत्र में प्रवेश करने का अवसर ही ना मिले। ऐसे “एंट्री बैरियर” संस्थानों के नियमों और सरकार के कानून, दोनों तरीके से लागु किये जा सकते हैं। उदाहरण के तौर पर एएचडब्ल्यू व्हीलर की किताबों की दुकानें लगभग हर बड़े स्टेशन पर मौजूद हैं। अगर वो नियम बना दें कि दस वर्ष से पुराने प्रकाशनों की किताबें ही वो अपने पास रखेंगे, तो क्या होगा? रेलवे स्टेशन पर किताबों की दुकानें खोलने के लिए हमारे-आपके जैसे पाठकों के पास उतने स्रोत तो हैं नहीं, किसी लेखक के पास होंगे, इसमें भी संदेह है। नया लेखक अगर राजकमल-वाणी जैसे स्थापित प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित नहीं हुआ, तो वो पाठकों तक पहुँचता ही नहीं! यानी आज जिन्हें पढ़ा जाता है, वो सत्य व्यास, मानव कॉल, अंकिता जैन, अजित भारती, और अन्य कई, होते ही नहीं।
ऐसा ही कोई कानून सोचना हो तो “ड्रामेटिक परफॉरमेंस एक्ट 1876” के बारे में सोचिये। भारत में थिएटर, या कहिये नाटकों-नृत्य आदि के मंचन पर ये कानून लागू होता था। जाहिर है इसे फिरंगियों ने किसी दौर में इसलिए बनाया था ताकि नाटकों-नृत्य आदि के जरिये सरकार बहादुर के विरोध का भाव न जगाया जा सके। इसके जरिये युद्धों से ठीक पहले किये जाने वाले “राई नृत्य” आदि को रसातल में धकेल दिया गया। इन नर्तकियों के पास तवायफ हो जाने के अलावा कोई चारा नहीं रहा होगा। काफी प्रयासों के बाद राई को थोड़ा पुनःजीवित किया गया है। सवाल है कि इसके वाबजूद “नुक्कड़ नाटक” कैसे होते थे? तो लाइसेंस-परमिट राज में कुछ चुनिन्दा लोगों को, जिनके बारे में सरकार के नुमाइंदों को पता होता कि वो सरकार विरोधी नहीं हैं, उन्हें इसके लिए परमिट मिलता था। अगर आप ऐसे ख़ास संगठनों से जुड़े हैं, जिनके पास परमिट है, तो नाटक कीजिये, वरना नहीं। केवल एक ही आयातित विचारधारा के लोग नुक्कड़ नाटक में क्यों दिखते रहे? वो इस “एंट्री बैरियर” से होता था।
समय बदलने के साथ भारत को ऐसे हजारों नियम-कायदों से मुक्ति चाहिए। ऐसे हर कानून के हटने से उन सभी दलालों को दिक्कत होगी जो ऐसे “एंट्री बैरियर” के जरिये ही प्रतिस्पर्धा को कुचलकर अपने लिए जगह बनाए रखते हैं। कभी महामहोपाध्याय पीवी काने ने “हिन्दू धर्मशास्त्रों का इतिहास” जैसी किताबें लिखी थीं। आजकल ऐसी किताबें कम लिखी-पढ़ी जाती हैं। कानूनों के हटने, उनके बदलने के दौर में ऐसी किताबों को फिर से पढ़ने की जरूरत तो है ही, नीतियों के बदलने से होने वाले दूरगामी परिणामों पर भी सोचना होगा। किसी और की नक़ल से बने संविधान और कानूनों से वो सारी समस्याएँ जो उन्हें वर्षों पहले झेलनी पड़ी, वो सभी अब हमें झेलनी पड़ रही हैं ये तो सिर्फ एक “हिन्दू मैरिज एक्ट” को किसी और की नक़ल पर बनाए जाने से नजर आ गया होगा। नागरिकता कानूनों पर पुनःविचार और कृषि कानूनों में बदलाव से कुछ मुट्ठी भर धनपतियों-शक्तिसम्पन्नों को हो रही दिक्कत हम देख ही रहे हैं।
बाकी याद रखिये कि 1620, 1720, 1820 या 1920 सभी भारत में बदलावों के शुरुआत के दशक रहे हैं। हर शताब्दी के पचासवें दशक तक ऐसी उथल-पुथल से ही सुधार आये। हर शताब्दी में ऐसे बदलावों की गति बढ़ी भी है, इस बार और तेज बदलाव आएंगे, फिर चाहे आप माने, या ना मानें!
✍🏻आनंद कुमार
अगर आयातित विचारधारा वालों और वेटिकन पोषित दल हित चिंतकों की मानें तो ब्राह्मण काम काज तो करते नहीं थे | ऐसे में उनका अंगरक्षक होना, या हथियारों और मल्ल युद्ध का शिक्षक होना तो संभव ही नहीं | फिर भी भारत में घूम कर देखें तो आज ज्येष्ठी मल्ल गुजरात, मैसूर, हैदराबाद और राजस्थान में होते हैं | बड़ोदा में आज भी कुछ ज्येष्ठी मल्ल अपने अखाड़े चलते हैं | ये मोधा ब्राह्मणों के कुल से होते हैं और पारंपरिक रूप से कृष्ण भक्त भी हैं | बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में जब इनका जिक्र आता है तो इन्हें आयुधजीवी ब्राह्मण बताया गया है | मतलब वो ब्राह्मण जो शस्त्रों के जरिये अपनी आजीविका चलाते हैं |
सोलहवीं शताब्दी तक भी इनके मल्ल होने का ही लिखा जाता है | आज भी गुजरात में अगर दो लोगों में गंभीर लड़ाई हो जाये, तो कहते हैं कि वो ज्येष्ठीमल्लों जैसा भिड गए | बारातों के रक्षकों और राजाओं, राजकुमारों के अंगरक्षकों के तौर पर इनका इतिहास बहुत पुराना है | अब इनकी कला धीरे धीरे लुप्त हो चली है इसलिए आपने शायद इनका जिक्र ना सुना हो | अब ना राजा रहे ना उनके अंगरक्षकों में ज्येष्ठीमल्ल नियुक्त होते हैं, इसलिए इन्हें प्रश्रय देने वाला कोई नहीं रहा | अब केवल मैसूर के दुर्गा पूजा उत्सव में ज्येष्ठीमल्ल नजर आते हैं |
इनकी लड़ाई का तरीका इसलिए ख़ास होता है क्योंकि इनके परंपरागत तरीके में सिर्फ सर और छाती पर वार किया जाता है | उस से नीचे प्रहार निषिद्ध है | अपने दाहिने हाथ में ये वज्रमुष्टि पहनते हैं | वही जिसे आम तौर पर Knuckle Duster कहा जाता है | शायद फिल्मों में आपने देखा होगा | पुराने ज़माने में ये भैंस की सींग, हाथी दांत, लकड़ी, लोहे सबसे बनता था | आज ये आम तौर पर सिर्फ लोहे का होता है | युद्धों में इस्तेमाल होने वाली वज्रमुष्टि मं, किनारे की तरफ धारदार नोक भी होती थी | ऐसे ही हथियार का जिक्र पुराने ग्रीक साहित्य में भी आता है |
अभ्यास के लिए हाथों को जकड़ लेने के कई तरीके ज्येष्ठीमल्लों को सिखाये जाते हैं | प्रहारों से सुरक्षा के लिए भी कई दावं पेंच हैं | इस युद्ध में घुटनों और कोहनी का भी इस्तेमाल होता है | अभ्यास या प्रदर्शन के लिए होने वाली लड़ाइयों में छाती से नीचे प्रहार नहीं किया जाता |
जिन पुराणों में इनका जिक्र है उनमे से एक है मल्लपुराण | पीढ़ी दर पीढ़ी आगे आते आते ये ग्रन्थ आज जरा लुप्तप्राय हो गया है लेकिन 1731 की इसकी एक देवनागरी में लिखी प्रति अभी भी ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टिट्यूट, पुणे में देखी जा सकती है | इस ग्रन्थ में अन्य तरीकों के अलावा ज्येष्ठीमल्लों की कला का जिक्र भी है | वज्रमुष्टि के उनके इस्तेमाल का जिक्र भी पाया जाता है | ये शब्द ज्येष्ठ यानि सबसे बड़े, सबसे उत्तम से निकल कर आया है | कई अन्य हिन्दुओं के ग्रंथों की तरह ही मल्लपुराण में भी अठारह अध्याय हैं और ये कुश्ती के दाँव पेंच से लेकर, आहार विहार तक, हर चीज़ बताती है |
जो प्रमुख विधाएं मल्लपुराण में हैं, उनमें हैं :
रंगाश्रम – ये सीधा कुश्ती के दाँव पेंच हैं | विरोधी को पटकने से लेकर पटके जाने पर कैसे बचाव करें वो तरीके इस हिस्से में हैं |
स्तम्भाश्रम – मल्लखंभ नाम की जो विधा एक खम्भे पर जिमनास्ट जैसा आपने कभी देखा होगा, वो इसी हिस्से में है |
गोनितका – ये एक भारी भरकम छल्ला होता था तो कई किस्म की कसरतों में काम आता था | कई बार इसे गले और पीठ को मजबूत करने के लिए घंटों गले में टाँगे रखा जाता था |
प्रमदा – गदा और मुग्दर जैसे शस्त्रों के इस्तेमाल की कला इस हिस्से में है | मुग्दर लगभग सभी भारतीय अखाड़ों में अभी भी होता है |
कुंडकवर्तन – दंड बैठक जैसे बिना औजार के होने वाले कसरतों का वर्णन करता है |
उपाहोहाश्रम – किसी कठिन परिस्थिति, किसी दाँव में फंस जाने पर अपने को छुड़ाने की कला |
इस के हिसाब से प्रशिक्षण करीब दस वर्ष की आयु में शुरू होता था | शुरू में ताकत और लम्बे समय तक श्रम करने की विधा पर ध्यान होता था (बल-अतिबल) | बैठक और दंड, ख़ास तौर पर push up के भारतीय प्रकार पर जोर दिया जाता था | उसके बाद छात्र को मल्लखंभ पर अभ्यास करने दिया जाता था ताकि उसकी पकड़ और शरीर पर नियंत्रण बेहतर हो | दौड़ना और तैराकी भी इन अभ्यासों में शामिल था |
इसके बाद अखाड़े में ही दाँव पेंचों का अभ्यास शुरू होता था | अखाड़ा करीब दस गज के व्यास का गोल घेरा सा होता था, कभी कभी चौकोर भी होता था | लगभग हर तीसरे दिन अखाड़े में पानी छिड़का जाता था, मौसम के हिसाब से और तेल, छाछ जैसी चीज़ें भी मिटटी में डाल कर उसे नर्म रखने का विधान था |
ध्यान रहे कि जिन विधाओं पर किताबें लिखी जा सके उनके बनने में सदियाँ लगती हैं | ख़त्म होने में पांच दस साल | भारत चूँकि श्रुति की परम्पराओं पर चलता है और परिवार एक पेशे को आगे बढ़ाता है इसलिए ये युद्ध कलाएं अभी बची हुई हैं | अंग्रेजों के बनाये आर्म्स एक्ट के कारण भारत की सामरिक कलाओं का बहुत तेजी से लोप हुआ है | इन कलाओं को पुनर्जीवित करने में कोई बहुत से साल नहीं लगने वाले | कुंग फु और शाओलीन टेम्पल का नाम पिछले 30-40 साल में ही दुनियां के सामने आया है | ब्रूस ली से पहले कोई जुडो कराटे का नाम भी नहीं जानता था |
बाकी अब ये हमपर है कि हम इन भारतीय परम्पराओं को कितने दिन और जिन्दा रख सकते हैं |
आनन्द कुमार
व्यायाम पर पुराण
श्रीकृष्ण "जुगनू"
जीवन में व्यायाम उतना ही जरूरी है जितना खाना। व्यायाम के अंग है : कुश्ती, दाव पेच, दौड़ना, गदा, कर्कर जैसे आयुध घुमाना, गोणिका उठाना, श्रम करना, तैराकी आदि। व्यायाम से शरीर स्वस्थ रहता है और अंग प्रत्यंग कसे रहते हैं। मल्ल शाला या अखाड़ा जाना हमारे यहां परम्परा रही है। मल्ल या जेठी के मुकाबले देखने भीड़ उमड़ती रही।
आज जिम जाने, घूमने और योग के आसन, प्राणायाम आदि की जो महत्ता बताई और प्रचारित की जा रही है, उसके मूल में भारत की प्राचीन मल्ल विद्या रही है। योग और आयुर्वेद का अनूठा संगम, जिसका नाम अखाड़ा कौशल भी रहा है। दक्षिण एशिया में यह शब्द और विद्या के अनेक प्रसंग प्रचलित रहे हैं। धनुर्विद्या का विकास भी इसी का एक सोपान है।
इस विद्या पर आधारित है : मल्ल पुराण। यह पुराण न महापुराणों और न उप पुराणों में है लेकिन उन पुराणों में है जो जीवनोपयोगी कुंजियां लिए है। कंस के पठाए ज्येष्ठी मुष्टिक, चाणूर आदि का मल्ल विद्या से मर्दन करने वाले श्री कृष्ण ने सोमेश्वर को इस विद्या का जो उपदेश किया, वह 18 अध्यायों में "मल्ल पुराण" कहलाया। इसकी कुछ पांडुलिपियां मिली है, कुछ श्लोक बिखरे बिखरे पड़े हैं जिनके आधार पर करीब हजार श्लोकों का पाठ तैयार हुआ है।
मित्रवर श्री प्रमोद जी जेठी स्वयं इस विद्या के जानकार और संवाहक है। उन्होंने इस पुराण का पाठ मुझे इस आग्रह से भेजा कि इसका शोधपूर्ण अध्ययन हो और फिर अनुवाद सहित प्रकाशन हो...। काफी परिश्रम से मैंने यह सब किया... वृंदावन में ब्रज संस्कृति शोध संस्थान में पिछले दिनों इस पर मैंने पर्चा पढ़ा और फिर मन हुआ कि सब मित्र इस भारतीय ज्ञान विरासत से अवगत हों...।
ब्रज की कलाओं में थी पहलवानी, उसका कोई सानी नहीं था। मल्ल अपने विक्रम से कुवलया कुंजर तक को पछाड़ देते या निष्प्रभावी कर देते थे, ऐसी कहानियां पुराण पोषित हैं। कृष्ण - बलदेव के साथ जुड़ी रोचक कहानियों ने भूलोक मल्ल सोमेश्वर को प्रभावित किया तो "मानसोल्लास' में अनेक गीत उदाहरण बने और मोधेरा ( मोढेरा, गुजरात) में "मल्ल पुराण" जैसा ग्रंथ भी रचा गया।
भारतीय स्वास्थ्य साधना में आहार के साथ व्यायाम को आवश्यक माना गया है! व्यक्ति को सार और सत्व प्रधान बनाने के लिए श्री कृष्ण को इस विद्या का उपदेशक कहा गया है। अखाड़े में ताल ठोकने और दाव पेंच लगाने की अनूठी विद्या! ब्रज ने गुजरात तक इसकी सीख और अलख जगाई...।
पिछले बरस, वृंदावन में ये सब बातें ब्रज संस्कृति शोध संस्थान में कही थीं। अब यह पुराण तैयार हो गया है। ज्येष्ठी मल्ल श्री प्रमोद जी जेठी ने इसका पाठ जुटाया था। इस यादगार आयोजन के स्मरण के लिए आभार प्रियवर श्री लक्ष्मी नारायण तिवारी, गोपाल शरण शर्मा जी...
✍🏻डॉ श्रीकृष्ण जुगनू
जिस युद्धकला पर अंग्रेज़ों ने डाली कुदृष्टि, उसे हिन्दुओं ने नृत्य शैली के रूप में बचाया
मराठी में जिसे ‘दंडपट्ट‘ कहते हैं लगभग वैसी ही तलवार को उड़िया में सिर्फ ‘पट्ट’ कहा जाता है। संभवतः आपने इसे किसी संग्रहालय में देखा भी होगा। इसमें कलाई तक ढकने वाली बंधी मुट्ठी के आगे एक धारदार टुकड़ा लगा हुआ दिखता है। देखने में भले ये ऐसा लगता है जैसे इसका इस्तेमाल घोंपने में होता होगा, लेकिन असल में ये छुरे की तरह नहीं बल्कि काटने में इस्तेमाल होने वाली तलवार है। पैदल सैनिकों का सामना बख्तरबंद घुड़सवारों से हो, तो ये तलवार बहुत काम की होती थी। इसके साथ जो दूसरे किस्म की तलवार इस्तेमाल होती थी, उसे खांडा कहा जाता है। मराठा क्षेत्रों में भी ये अक्सर दिख जाएँगी क्योंकि इन इलाकों में जिन फौजों का सामना करना पड़ता था वो अक्सर बख्तरबंद घुड़सवार हमलावर होते थे।
पैदल सैनिकों के लिए इस्तेमाल होने वाले संस्कृत शब्द के मामूली से अपभ्रंश से ‘पाइका’ शब्द बना। ये अखाड़े होते थे जो अभी भी ओडिशा में पाए जाते हैं। कलिंग के काल से ही ओडिशा की सैन्य सुरक्षा का काफी हिस्सा इन्हीं ‘पाइका’ अखाड़ों पर निर्भर था। बंगाल के इस्लामिक शासक भी इन्हीं पाइका अखाड़ों के कारण ओडिशा पर विजय नहीं पा सके थे। ऐसे अखाड़ों का नियंत्रण ‘खंडायत’ के हाथ में होता था। इस शब्द में भी फ़ौरन ‘खांडा‘ यानी दूसरी किस्म की तलवार नजर आ जाएगी। सन 1817 में जगबंधु बिद्याधर मोहपात्रा राय के नेतृत्व में पाइका अखाड़ों ने फिरंगियों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूँक दिया था। दूसरे कई विद्रोहों की तरह ही ये विद्रोह भी कुचला गया था।
गजपति वंश के शासन काल में पाइका अखाड़े अपने चरम पर थे। अंग्रेजों का समय आने तक इनकी क्षमता लगातार इस्लामिक आक्रमणों के कारण काफी कम पड़ चुकी होगी। अंग्रेजों के आक्रमण के बाद से जब हिन्दुओं पर शस्त्र रखने और उनके संचालन की शिक्षा-दीक्षा पर पाबन्दी लगी तो अपनी कला को जीवित रखने के लिए इन्होंने एक अनूठा तरीका चुना। तलवार चलाने की कला, नृत्य के रूप में सिखाई जाने लगी। आज जो कलाएँ बिहार में परी-खांडा और ओडिशा में छाऊ नृत्य के नाम से जानी जाती हैं, ये वही तलवारबाजी के करतब होते हैं। छाऊ शब्द भी सेना की छावनी शब्द से ही बना हुआ है। अभी भी पाइका अखाड़े अपनी कला का प्रदर्शन दुर्गा-पूजा या नवरात्रि के अवसर पर करते हैं।
कल (22 जुलाई 2019) जब जगन्नाथ पुरी के एक पुजारी की तस्वीरें इन्टरनेट पर नजर आने लगीं तो कुछ तथाकथित हिन्दुओं की मासूम, अहिंसक, गाँधीवादी, सेक्युलर भावना बड़ी बुरी तरह आहत हो गईं। गोरे साहबों के जाने के बाद आए भूरे साहबों ने भी भारतीय युद्धकलाओं की हत्या करने में उससे ज्यादा तत्परता दिखाई थी, जितनी उनके गोरे साहब दिखा पाते। इस वजह से शारीरिक शौष्ठव, शस्त्र इत्यादि देखकर उनका छाती कूट कुहर्रम मचाना कोई आश्चर्यजनक भी नहीं। अब अगर वापस पट्ट नाम के इस हथियार की ओर आएँ तो ये सबसे भयावह हथियारों में से एक माना जाता था। ऐसा इसलिए था क्योंकि अक्सर योद्धा इसका प्रयोग अपने अंतिम समय में करना शुरू करते थे।
कई बार दो-दो के जोड़ों में योद्धा पट्ट चलाना शुरू करते, कलाई इसके दस्ते को पकड़ने पर मुड़े नहीं इसलिए ये दो लोगों के सम्मिलित नृत्य जैसा कुछ दृश्य होता होगा। ये एक तथ्य है कि मराठा सैनिक गिरते समय इसका इस्तेमाल करते थे ताकि अपने साथ-साथ ज्यादा से ज्यादा मलेच्छ शत्रुओं को भी लिए जाएँ। दो की जोड़ी में अगर पट्ट चलाया जा रहा हो तो अन्दर प्रवेश करके चलाने वालों पर प्रहार करना बहुत मुश्किल होगा। अब पहली किस्म के खड़ग यानी खांडा से तो खंडायत नाम बना था, दूसरे किस्म के लिए पट्टनायक नाम के बारे में सोचिये।
बाकी जब याद आ जाए कि जाने-माने लेखक देवदत्त पट्टनायक के नाम में आपको नायक शब्द का मतलब तो पता है, तब ये सोचिएगा कि भला ये ‘पट्ट’ क्या होता होगा? तब तक पाइका अखाड़ों और पाइका विद्रोह भी पढ़िएगा। हम बताते चलें कि शेखुलरों के लिए ओडिशा का इतिहास हजम करने में दिक्कत होनी तय है! आनन्द कुमार
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