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धरती को हमें बचाना है

धरती को हमें बचाना है

देख प्रकृति का कहर भयानक,
उठो नींद से जागो मानव 
लील रहा धरती का जीवन,
भीषण रूप धरा बन दानव।।

     फिर भी सब के सब मौन खड़े,
तब मुखर उन्हें यहां कौन करे।
 इससे छुटकारा पाने को
स्वयं बचें औरों को बचाने को।। 

हम दूर- दूर तक देख रहे,
 वैज्ञानिक खेला- खेल रहे।
आखिर इन्हें यहां कौन कहे,
कुदरत की मार क्यों झेल  रहे।।

 क्यों है अज्ञान का घोर पहर,
ज्ञानी जन का पग गया ठहर।
हो रहा विकास के नाम विनाश,
जंगल पहाड़ जीवों का नाश।।

आगे आकर कोई बचा सके, 
जिस पर  विश्वास भरोसा हो।
कोई दूर- दूर तक नहीं दिखता
तुम हीं "विवेक" बची आशा हो।। 

धरती को हमें बचाने का,
इस महानाश से बचने का  
कोई राह तुम्हें दिख लाना है।। 
सोए हैं उन्हें जगाना है।।
           धरती को हमें बचाना है।
   डॉ. विवेकानंद मिश्रा,
डॉक्टर. विवेकानंद पथ गोल बगीचा,गया (बिहार)।

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