सत्यनारायण कथा में सामाजिक संगठन के सूत्र।
यूँ तो हम सभी अपने घरों में मासिक पूर्णिमा को सत्यनारायण व्रत का विधान करते हैं।सत्यनारायण रूप भगवान विष्णु की उपासना कर कथाश्रवण वा वाचन भी करते हैं।किंतु प्रथमोध्यायतः सप्ततमोध्याय वा पंचमोध्याय पर्यंत ब्राह्मण, बनिया ,राजा आदि प्रतीकों की कथामात्र है यह।क्या यह एक मासिक बैठकी या कथासुनकर पंचामृत एवं अन्य भोगपदार्थों के सेवन कर निज निज गृह जाहु भर है!आईये अपनी विचारणाशक्ति से दृष्टिपात करते हैं।
कथारंभ कलिकाल में लोगों के कष्ट निवारण हेतु ऋषियों की संगोष्ठी से होता है।पुनः नारद विष्णु संवाद का क्रम जहाँ सत्यनारायण पूजा का विधान एवं स्वरूप को वर्णित किया जाता है।अब इसके आगे की कथा एक गरीब ब्राह्मण के द्वारा सत्यनारायण की उपासना से आरंभ हो साधु नामक वैश्य से विस्तार पाआगे..
राजा एवं यदुवंशियों तक पहुचती है।इस पूरे कथाप्रकरण में ध्यातव्य यह कि कथा कभी भी किसी एक अकेले के द्वारा सम्पन्न नहीं होती।जिसने भी की अपने इष्टमित्रों परिजनों को आमंत्रण देकर ही सबके साथ मिलकर की।सर्वप्रथम वह ब्राह्मण जो अतिनिर्धन है ।जीवोपार्जन हेतु नित्य भिक्षाटन करता है उसने भी सर्वजन सम्मुख ही कथारंभ की है।उसने यह भी नहीं सोचा कि मैं निर्धन होकर इतने लोगों को बुलाकर इनका सम्मान किस बूते कर पाऊँगा।उसके बाद भी जिनलोगों ने की सबने ऐसा ही किया।और जिस एक राजा ने समूह से अलग हो पूजन की अवहेलना की उसकी भी स्थिति का स्पष्ट चित्रण किया गया।पुनः उसे भी समूह के मध्य आकर ही नवजीवन मिला।इस तरह सम्पूर्ण कथानक पर दृष्टिपात करने से एक बात स्पष्ट होती है कि हमारे ऋषियों के द्वारा जितने भी व्रत त्योहार या पर्वों की कल्पना की गई है वे निरर्थक नहीं पूर्णतया सार्थक हैं।यह सत्यनारायण व्रत कथा भी अपने आपमें संगठन के रहस्य को छिपाये है।यूँ कहें कि सांगठिक सूत्र है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।जब जब भी संगठन से इतर जिसने भी एकाकी गमन का प्रयास किया उसमें भटकाव दिखा।पुनर्कल्याणार्थ वापस संगठित होना ही पड़ा।एक मूल मंत्र जो इस कथा में देखने को मिला वह यह कि संगठन निर्माण हेतु धनोबल की नहीं मनोबल की प्रधानता है।क्योंकि यदि दरिद्र ब्राह्मण ने धन की चिंता की होती तो शायद कथाविस्तार नहीं कर पाती।मनोबल के आधार पर ही उसने धनबल के रूप में साधु नामक वैश्य एवं राजा तक को जोड़ा।यह भी बताने का प्रयास किया गया है कि जब जब भी हम अपने अह़ंवश समाज से विलग होते हैं हमें मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक कष्टों का सामना करना पड़ता है।और अंत में वापस समाज या संगठन ही हमें इनसे उबरने में सहायक होता है।
...मनोज कुमार मिश्र"पद्मनाभ"।
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