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प्रेमचंद और उनकी प्रासंगिकता

प्रेमचंद और उनकी प्रासंगिकता

साहित्य समाज का दर्पण होता है । इतिहास किसी के दबाव में लिखा जा सकता है ।मगर साहित्य एक ऐसी विधा है जिसमें लेखक दबाव में नहीं रहता है। इसलिए हम कह सकते हैं साहित्य इतिहास से ज्यादा विश्वसनीय है । प्रेमचंद का पूरा साहित्य उनके समय का जीता जागता दस्तावेज है । हम विश्वास के साथ कह सकते हैं कि इतिहास जला दिया जाए और प्रेमचंद का साहित्य बचा लिया जाए इतिहास अपने आप बच जाएगा । प्रेमचंद का जो समय था वह एक सामंती युग था । गरीब , किसान और मजदूर महाजनी व्यवस्था में कदमों के नीचे दबे हुए थे।
नामवर सिंह ने प्रेमचंद की रचनाओं के बारे में कहा था- ‘उन्होंने हिंदी साहित्य से मध्यमवर्ग का ध्यान हटाकर आम आदमी, गरीब, देहाती और किसानों को उपन्यासों और कहानियों का विषय बनाय जो अपने आप में क्रांतिकारी कदम था । 
प्रेमचंद के जितने भी पात्र हैं वे सभी दबे कुचले वर्गों से आते हैं । खासतौर से उनकी महिला नायिकाएं हैं वे अपेक्षाकृत पुरुषों से ज्यादा सफल है। इसके पीछे प्रेमचंद की दृष्टि साफ महसूस की जा सकती है । समाज या परिवार में  महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से  ज्यादा है। मगर इस पुरुष प्रधान व्यवस्था ने उन्हें कमतर समझने की कोशिश की है । इसके पीछे पुरुषवादी कुंठा है । प्रेमचंद के यहां स्त्री पात्र  जहां भी है उसकी भूमिका बहुत ही उल्लेखनीय है। प्रेमचंद का साहित्य गांधी जी से प्रभावित दिखाई देता है । उनके ‘स्वराज’ का स्वप्न महात्मा गांधी के विचारों के काफी निकट है। प्रेम, त्याग और बलिदान के उच्च आदर्श उनके आरंभिक लेखन में भी दिखते हैं, पर उनका दायरा व्यापक और यथार्थपरक होता गया। वे आजादी की लड़ाई को केवल राजनीतिक सत्ता हस्तांतरण नहीं, साधारण जनों के आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक सवालों से जोड़ना चाहते थे। किसान, स्त्री और दलितों को समाज की सामंती और पूंजीवादी व्यवस्था के शोषण और उत्पीड़न से मुक्त कराना चाहते थे। इसलिए उन्होंने इन वर्गों की वास्तविकता को अपनी कहानियों और उपन्यासों में दिखा कर, उनकी मुक्ति के सवाल बार-बार उठाए।प्रेमचंद स्त्री की मुक्ति चाहते थे।
 स्त्री-समाज आज भी असुरक्षित अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रहा है। वे बलात्कारियों की हवस का शिकार हो रही हैं। दूरदराज के अंचलों में घरों की सीलन भरी कोठरियों में गीली लकड़ी की तरह सुलग और घुट रही हैं। पुरूष वर्चस्व का शिकंजा उनकी गर्दनों पर पहले जैसा ही कसा हुआ है। हिंदू-मुसलिम सहअस्तित्व की जरूरी चिंताएं भी उनके लेखन से अछूती नहीं हैं । किसानों की स्थितियों को लेकर प्रेमचंद सदैव चिंतित रहे। भले ही देश आजाद है पर महिलाओं, दलितों और किसानों की स्थितियों में बहुत कुछ वैसा ही अन्याय और शोषण दिखाई देता है।
डॉ राम विलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘प्रेमचंद और उनका युग’ में उनके एक लेख के हिस्से का ज़िक्र किया है – ‘इस समाज व्यवस्था ने व्यक्ति को यह स्वाधीनता नहीं दी है कि वह जनसाधारण को अपनी महत्वाकांक्षाओं की तृप्ति का साधन बनाए और तरह तरह के बहानों से उनकी मेहनत का फायदा उठाए, या सरकारी पद प्राप्त करके मोटी मोटी रकमें उड़ाए और मूंछों पर दाव देता फिरे’। डॉ शर्मा के मुताबिक प्रेमचंद उस आज़ादी के विरोधी थे जिसके ज़रिये मुट्ठी भर लोग जनता को ठगकर अपना घर भरते हैं और जब जनता असंतुष्ट होकर अपनी मांगें पूरी कराने के लिए संगठित होती है तब उसे शांति और अहिंसा का उपदेश देते हैं।
प्रेमचन्द ने भारतीय समाज के सभी वर्गों, भारतीय जीवन के सभी पक्षों और भारतीय मनुष्य के सभी रूपों का चित्रण किया है , उतना दूसरे किसी भारतीय लेखक की पुस्तकों में नहीं मिलता है। देश के लिए उनके देखे सपने की आकांक्षा अभी खत्म नहीं हुई है। इसलिए प्रेमचंद का प्रासंगिक होना स्वाभाविक है। वे अपनी सर्जना और विचारों के साथ आज के संघर्षों और चुनौतियों के मार्गदर्शक हैं। साहित्य के इतने विस्तार के बावजूद प्रेमचंद का कोई विकल्प नहीं है । 

-- वेद प्रकाश तिवारी
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