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शीतोष्ण सुखदुःखदा।

शीतोष्ण सुखदुःखदा।

राधावल्लभ राजराजेश्वर त्रैलाक्याधिपति गुरुणांगुरु श्रीकृष्ण ने सुखदुःख की स्थिति का वर्णन करते हुये अपने अभिन्न सखा अर्जुन को उपदेशित करने के क्रम में कहा कि हे कौंतेय...
*मात्रास्पर्शास्तु कौंतेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमपायिनोनित्यास्तांतितिक्षस्व भारत।।
अर्थात् जीव की स्थिति सदैव यथावत् रहती है।परिवर्तन क्षणमात्र में मात्र शरीर का ही होता है।जीव के गर्भगत होते ही परिवर्त्तन का यह क्रम क्षणैः क्षणैःआरंभ हो जाता है।मृत्यु की ओर कदम बढ़ाता जीव गर्भावस्था से बाल्यावस्था, पुनः युवावस्था और वृद्धावस्था से होते हुये देह़ांतरावस्था को प्राप्त कर पुनर्जन्म की ओर अग्रसर होता है।इस प्रकार परिवर्त्तन करता हुआ भी जीव अपरिवर्त्तित ही रहता है।वैसे ही समस्त लौकिक परिस्थितियाँ भी नित्य परिवर्त्तनशील हैं ।जो आज है वह कल नहीं होता।प्रतिपल परिवर्त्तन के दौर से ही गुजरता है।हर मिलन का अर्थ बिछुड़न ही होता है।फिर भी मानव मन सदैव यही चाहता है कि हमारी स्थिति सदैव एक समान ही हो।हम सदा सुखमय जीवन ही व्यतीत करें।दुःख का लेशमात्र भी हमारे अंतःया वाह्य प्रवेश न करे।किंतु उसकी यह साध कभी पूरी नहीं होती।क्यो़कि प्रकृति अपने कठोर नियमों में बँधी है।इसका गमन चक्रवत्त होता है ,यही कारण है कि सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख वैसे ही आता जाता है जैसे गर्भावस्था से देहांतरावस्था का चक्रमण करते हुये पुनर्जन्म तक की अवस्था।यही प्रकृति और परमेश्वर का विधान है।हम चाहकर भी इसे बदल नहीं सकते।प्रसन्नता पूर्वक इसे स्वीकार कर लेना ही हमारी नियति है।परिवर्त्तनशील पदार्थ में स्थायित्व की कल्पना ही व्यर्थ है।इसी हठ के कारण हम माया ,ममता और कामना के वशीभूत हो दुःख के भागी बनते हैं।उसके लिये शोकमग्न होते हैं जो हमारा है ही नहीं।जो लोग इस सत्य को जानकर मान लेते हैं उनके लिये सुख दुःख के भाव समान होते हैं।"समदुःखसुखं"।और अंत में चिरशांति को प्राप्त कर अमरत्व को प्राप्त कर लेने में सक्षम हो जाते हैं।एतदर्थ मनुष्य मात्र को चाहिये कि  सदैव अपने आपको श्रीमद्भगवद्गीता जैसे सद्ग्रंथों से जोड़कर सदाचरण करते हुये अमरत्व की ओर गमन करे।
श्रीकृष्णार्पणमस्तु।
.....मनोज कुमार मिश्र "पद्मनाभ"।
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