कभी घरों की शान कहाती थी खटिया
कभी घरों की शान कहाती थी खटिया,
कभी खटौला और खटोली थी खटिया।
बाबाजी की खाट बड़ी घर में सबसे थी,
बच्चों को मिल पाती थी छोटी खटिया।
रोज शाम को उसको कसना काम हमारा,
सुबह हुई तो खड़ी करते थे सबकी खटिया।
बड़ी खड़ी करते थे पहले उसके पीछे छोटी,
खटिया की बाहों में तब होती थी खटिया।
कभी कभी तो पायां एक उठा लेती थी,
बड़े जतन से ठीक, ऐंठ गयी जो खटिया।
गर्मी की शामों में छत पर बिछ जाती थी,
भरी दोपहरी पीपल नीचे होती खटिया।
बरसात में अक्सर खटमल हो जाते थे,
गर्म गर्म पानी से नहलाई जाती खटिया।
सुबह सवेरे आंगन या छत पर आ जाती,
शाम ढले ही घर के भीतर जाती खटिया।
कभी मूंज और सनी के बानों से बनती,
खाज कमर की मिट जाती लेट के खटिया।
हुये पुराने बान अधिकतर टूट कर लटके,
हिंडोला सा खेल खिलाती थी खटिया।
टूट गयी है खटिया फिर से नया बुनेंगे,
बानों को सुलझाकर हम बुनते थे खटिया।
हुआ दौर पुराना अब शहरों में खटिया का,
अब होटल की शान बन गयी देखो खटिया।
बड़े सिरहाने बैठेंगे और सब छोटे पायंत,
संस्कारों का बोध सिखाती थी खटिया।
खड़ी करी जो घर के बाहर उल्टी हमने,
मृत्यु का सन्देश सुनाती थी वह खटिया।
था वैज्ञानिक आधार शोध कर इसको खोजा,
गर्मी से निजात दिलाती सबको खटिया।
अ कीर्ति वर्द्धन
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