दूर दूर हुए सब नाते
अब दूर-दूर हुए सब नाते
कहाँ किसी को नाते हैं भाते ।
सबकी है अपनी -अपनी पड़ी
सब ओर कुछ मृषा मांग खड़ी ।
सहज राग रहा नहीं क्यों
टूट गये अणु-परमाणु ज्यों।
खिंची -खिंची हुई सब धुरी
बढ़ गयी सभी से दूरी।
बेचैनी है जिधर निहारो
ध्यान कर अपने को सुधारो ।
अब सामंजस्य कठिन है भाई
बचना , हर ओर है रुसबाई ।
पहले निज अंतसश्चित्त निहारो
तभी पर अस्तित्व पर विचारो।
जमाना हुआ अपने में दिवाना
होम करते निज हाथ न जलाना ।
कुछ बोध करो संसृति की
जो पीछे रह गये उनकी।
आगे बढ़ हाथ बढ़ाओ
फिर उनको गले लगाओ।
राधामोहन मिश्र माधव
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