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गजबे जूल्मी जमाना जलीम हे

गजबे जूल्मी जमाना जलीम हे

विनय मिश्र की कलम से

गजबे जूल्मी जमाना जलीम हे ...
सुनू , देखूं - समझूं तनी ---
बहुरीयन के हवाले हल् अंगना ...
अब वहनीईये हथ दूरा के भी मलकीनी ... ।
बेटा बन् गेल् निर्मोही ....
बहुरीयां खाना देईत् हे अईसे --
लगैईत हे अचरा मे खोयल बेटा ...
कोख के किराया देईत हो जैसे ... ।
पोसली हल् जतन से ...
पांच गो - गबरु बेटा ---
गूह ,गडतर , क्ईली ...
पोछली केतना खखार औव नेटा ... !
पर माय औव गाय के हालत ...
ई जमाना मे बड़ा खराब ह्ई - धर्म धनी --
गजबे जमाना जालिम होयेल हे ....
सुनू , देखूं , समझूं तनी ... !
अब तो छूवा जा हे हमरा से हवा ..
विधाता बना देलन् हे जब से विधवा --
छोड़ गेलन् हे हमर मालिक मोहन ...
अब हम - खाली देह लेके जाऊं कहां ... !
घर मे ही की न- हम ...
न मतलब केकरों न इयाद हे --
काहें की सुहाग श्रृंगार ला भी ...
छूवाऐल हमर आशीर्वाद हें ... !
छाती के दुध पानी हो गेल् ...
श्रद्धा , संस्कार कहाँनी हो गेल् ---
सास बूढी़या बोझा ....
औव पुतोहीईन घर के रानी हो गेल् .. !
सूखल् गाय - बिधवा माय ...
अपंग , निर्धन , असहाय ...
अपने जन्मल पर कैसे उगलू ....
ज्वलंत हृदय के हाय .... !
दर्द मे लटपटायेल - सनायेल हे पीड़ा मे ..
कयामत होयेल् हे परिवारीक तकनीकी ...
बहुरियन के हवाले हल् अँगना ...
अब वहनीयें हथ दूरा दरवाजा के मलकीनी .. !
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