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श्रावणीकर्म परिचय

श्रावणीकर्म परिचय

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। (गीता ४-१३ पूर्वार्द्ध) श्रीकृष्ण कहते हैं—मैंने गुण-कर्म के अनुसार चार वर्णों का सृजन किया । वर्तमान समय की अनेकानेक जातियों की बात यहाँ नहीं की जा रही है। जाति परिचय एक अलग विचारणीय विषय है।
ध्यातव्य है कि गुण और कर्म के अनुसार सर्जना हुयी है। सुनार की हथौड़ी और लुहार की हथौड़ी कदापि एक सी नहीं हो सकती। यदि हो तो दोनों की क्षति होगी। पेंचकस से हथौड़ी का काम और हथौड़ी से पेंचकस का काम लेना बुद्धिमानी नहीं। सामाजिक व्यवस्था में भी हम पाते हैं कि कार्यानुसार शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था है। यदि हम इसके विपरीत जायेंगे तो समाज की बहुत हानि होगी। डॉक्टर ईंजीनियर का काम करने लगे और ईंजीनियर डॉक्टर का, तो दोनों के अहित के साथ-साथ समाज का भी अहित होगा।
ठीक इसी भाँति सामाजिक व्यवस्था को सुचारु रुप से चलाने हेतु चार वर्ण—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की व्यवस्था दी गयी सृष्टि के प्रारम्भ में ही। चारों वर्णों के विहित कर्म निर्दिष्ट किये गए। वर्णानुसार ही शारीरिक और बौद्धिक क्षमता मिली।
बात यहाँ ऊँच-नीच की नहीं है, प्रत्युत कर्म के अनुसार गुण या कहें गुण के अनुसार कर्म का निर्धारण मात्र है। स्थिति ऊपर-नीचे न होकर, क्षैतिज है। समान तल पर चारों अपने-अपने कार्यभार लिए हैं।
हालाँकि वर्तमान समय में इस बात को बिलकुल विसार दिया गया है। और इसके कारण हो रही हानि पूरे समाज को भुगतनी पड़ रही है। ब्राह्मण ब्रह्मणत्व विहीन हो चुका है और श्रेष्टता का अहंकार उसे खाये जा रहा है। शूद्र को नीचा बताकर परोक्ष रुप से उसमें ऊपर चढ़ने की अनचाही तृषा जगा दी गयी है। परिणामतः सामाजिक व्यवस्था के चारो खूँटे अपने-अपने स्थान पर अव्यवस्थित रुप से कम्पायमान हैं।
यूँ तो सभी सनातनी सामाजिक मेलजोल से सालों भर कोई न कोई व्रत-त्योहार-पर्व आदि मनाते ही रहते हैं। किन्तु स्मृति, धर्मशास्त्र, गृह्यसूत्रादि के नियमानुसार चारों वर्णों के लिए अन्यान्य कर्मो के अतिरिक्त वर्ष में एक-एक मुख्य कर्म (उपासना) निर्धारित किया गया है। यथा—ब्राह्मण के लिए श्रावणमास की पूर्णिमा को श्रावणीकर्म (उपाकर्म), क्षत्रिय के लिए विजयादशमी का शौर्य-प्राप्त्यर्थ विजयकर्म, वैश्य के लिए दीपावली (लक्ष्मी-प्राप्त्यर्थ) एवं शूद्र के लिए होलीका दहनो परान्त रंगोत्सव ।
स्पष्ट है कि ब्राह्मणों का मुख्य पर्व श्रावणीकर्म (उपाकर्म) ही है। वर्तमान समय में रक्षाबन्धन(राखी) के नाम से लोक-प्रसिद्धि है इसकी। रक्षाबन्धन के औचित्य और महत्त्व की अलग कथा है। वस्तुतः ये आत्मरक्षा की व्यवस्था का दिन है, जो देवगुरु वृहस्पति द्वारा इन्द्राणी शची को दिए गए आशीष पर आधारित है। किन्तु विडम्बना ये है कि आज ये मात्र भाई-बहन का त्योहार बन कर रह गया है। इसका उपासना-पक्ष बिलकुल गायब हो गया है।
सभी वर्ण और कुलों के लोग अपनी-अपनी विधि से इस दिन अपने कुलदेवी/देवता के साथ-साथ ग्रामदेवी की पूजा भी करते हैं। श्रावण पूर्णिमा को संस्कृतदिवस के रुप में भी मनाने का चलन है। चाहें तो इसे संस्कृतिदिवस भी कह सकते हैं। वस्तुतः गूढ़ सनातन संस्कृति के स्मरण और अनुपालन का दिन है ये।
संस्कृत, संस्कृति और श्रावणीकर्म का त्रियोग अपने आप में विशिष्ठ है। विशेषकर ब्राह्मणों के लिए तो और भी महत्त्वपूर्ण है। समाज को सनमार्ग दिखाने वाला ब्राह्मण, यदि अपना ही मूल कर्तव्य भूल जायेगा तो फिर क्या बचेगा ! सृष्टि-व्यवस्था ही चर्मराने लगेगी यदि ब्राह्मण संस्कारहीन हो जायेगा ।
अतः शास्त्र-निर्धारित वार्षिक अत्यावश्यक कर्म के प्रति हमें सचेष्ट रहने की आवश्यकता है। आलस्य और लापरवाही वर्णोचित संस्कार में अवश्य-अवश्य कमी ला रही है—इस पर वर्तमान पीढ़ी का जरा भी ध्यान नहीं है।
समयानुसार ब्राह्मणों की संस्कारहीनता के पीछे अपने विहित कर्म—श्रावणी (उपाकर्म) को विसार देना, एक मुख्य कारण है। पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति के कुटिल प्रहार से हमारी गुरुकुल परम्परा लगभग नष्ट हो चुकी है। चालीस संस्कारों में किंचित मात्र ही शेष रह गया है। इस कुव्यवस्था में सुधार लाने की आवश्यकता है।
समय पर (८ से १२ वर्ष तक) यज्ञोपवीतसंस्कार ग्रहण कर, संध्या-गायत्री उपासना का नित्य अभ्यास अति आवश्यक है। इसके साथ ही वार्षिक कर्म—श्रावणी की विशिष्ट क्रिया भी सम्पन्न होनी चाहिए। ध्यातव्य है कि इसी दिन पूरे वर्ष भर के लिए यज्ञोपवीत को पूजित-संस्कारित करके सुरक्षित रख लिया जाना चाहिए। यज्ञोपवीत का परिवर्तन जननाशौच, मरणाशौच के अतिरिक्त प्रत्येक मास संक्रान्तियों में होना चाहिए। जो लोग प्रत्येक मास संक्रान्तियों में यज्ञोपवीत नहीं बदलते, उन्हें भी कम से कम अयन परिवर्तन पर तो अवश्य ही बदल लेना चाहिए। श्रावणी कर्म के अन्तर्गत किए गये यज्ञोपवीत-पूजन की विशेष महत्ता है। बाकी दिनों में अज्ञान वा लाचारीवश सिर्फ गायत्राभिमन्त्रण क्रिया करके जनेऊ बदल लेते हैं।
वस्तुतः श्रावणी एक कर्म विशेष न होकर कर्मसमुच्चय है। इसके मुख्य दो पक्ष है—अन्तःपक्ष और वाह्यपक्ष। अन्तःपक्ष तो अति गूढ़ और रहस्यमय साधना प्रक्रिया है, किन्तु वाह्यपक्ष सहज अनुकरणीय है। वाह्यपक्ष के भी पुनः दो भेद हैं—पितृजीवी और पितृहीन। यानी जिसके पिता जीवित हैं उसके लिए श्रावणी-पद्धति किंचित न्यून(भिन्न) है और जिनके पिता दिवंगत हैं उनके लिए पद्धति किंचित विस्तृत है।
विधिवत श्रावणी-कर्म लगभग छः से आठ घंटे की क्रिया है। नदी, सरोवर (अभाव में किसी पवित्र स्थल) पर ये क्रिया सम्पन्न करनी चाहिए।
सर्वप्रथम अचमनादि के पश्चात् महासंकल्प (करीब दो हजार शब्दों का) का विधान है। वर्तमान समय में महासंकल्प हेतु विहित पुस्तक भी उपलब्ध होना कठिन है। आधुनिक पुस्तकों में संक्षिप्त संकल्प मात्र ही प्राप्त होते हैं। महासंकल्पोपरान्त देव, ऋषि, पित्र्यादि का तर्पण (जलदान), भूतशुद्धि, संध्या, गायत्री, सूर्योपस्थान, सूर्यार्घ्य, यज्ञोपवीत पूजन, विस्तृत विधान से ब्रह्मयज्ञादि क्रिया एवं ऋषिश्राद्धादि कर्म सम्पन्न किये जाते हैं। किंचित क्रिया भेद से तर्पणक्रिया आदि और मध्य में (दो बार) करनी पड़ती है। अस्तु।
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