कहानी संस्कार का
~ डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश"
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लोग कहते हैं युग बदला है
कर्म बदला, संस्कार बदले
मैं कहता हूँ, कुछ नहीं बदला
मन की शेखी है
क्या? कुछ और बदलोगे?
जो आहार थे निकृष्ट
वाह! हुए बडे़ स्वादिष्ट
पाओ शुद्ध शाकाहारि भोजन
सात्विक होगा मन
तन निरोग और हृष्ट
काया होगा बलिष्ट
पहचान बनेगा विशिष्ट
जो कभी करते थे शुद्ध शाकाहारि भोजन
तभी पहचान थी उनकी विशिष्ट
फिर बंश क्यों और कैसे हुआ अशिष्ट
तुम खाकर अभक्ष भोजन
कैसे हो सकते शिष्ट?
दुहाई देना बंद करो
पिता के संस्कारों का,
बात करते हो आदर्शों की ?
यही परिचायक है संस्कार का?
पिता थे साहित्याचार्य, ज्योतिषचार्य, आयुर्वेदाचार्य
पिता के लाड-प्यार और शोखी में
गुजर गया दिन बचपन का
आया जवानी आरंभ किया पढाई
पिता तृबिषयक आचार्य
पुत्र बन गया पंचबिषयक आचार्य
अवेदाचार्य, लवेदाचार्य,
झवेदाचार्य, लंपटाचार्य,
लफंगाचार्य !
लेकर तमाम डिग्रियाँ
अपमानित करते हो आचार्यों का
बात करते हो आदर्शों की ?
यही परिचायक है संस्कार का?
पिता देते थे दान, गरीबों को, आशक्तों को
तुम लेते हो दान, पर वो दान नहीं?
देते हैं लोग तुम्हें,भिक्षा समझ कर,
कहीं तुम छीन न लो भूखों की रोटी,
बातें बड़ी बड़ी पर किस्मत तेरी खोटी,
क्या यह भी एक कला है जीने का?
बात करते हो आदर्शों का?
यही परिचायक है संस्कार का?
शायद दादा बाँधते थे हांथी,
दादा के थे मोटी-मोटी पुस्तकें
सिक्कड और एक एक पन्ना बेच दिया,
पूर्वजों से मिली विरासत को
एक झटके में लुटा दिया!
पूर्वजों की संस्कार को
तूने मिट्टी में मिला दिया?
बात करते हो आदर्शों की?
यही परिचायक है संस्कार का?
छीन कर पेंशन की राशि
ऐश मौज करते रहे,
बिलाप करते वृद्ध माता-पिता
खाने को तरस रहे,
फिर कहीं अन्यत्र चले गए
क्या हक है तुम्हें जीने का?
बात करते हो आदर्शों की?
यही परिचायक है संस्कार का?
भाई तो - भाई ठहरा
ये रिस्ता कितना होता है गहरा!
थोड़ी सी दौलत के खातिर,
बन गए जान के दुश्मन
हुआ न कभी सहोदर भाई का,
बात करते हो आदर्शों की?
यही परिचायक है संस्कार का?
इतना गिर गए क्यों?
अब पता चला बड़ा जालिम हो तुम,
खुदगर्ज मुलाजिम हो तुम,
पत्नी के अरमानों को तोड़ा!
राम भरोसे बच्चों को छोड़ा!
एक दाने को तरसते रहे सभी,
अति का अंत हुआ ,
सभी ने तुमसे नाता तोड़ा! फिर मुँह मोड़ा,
वाह! क्या फर्ज अदा की दुनियादारी का?
बात करते हो आदर्शों की?
यही परिचायक है संस्कार का?
अंत भला तो सब भला
सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को,
छद्म नाम रख कर
बन बैठे संयासी
खाने को कहीं कुछ दे दे लोग
खा लेंगे रोटी चाहे क्यों न हो बासी
पिता स्वर्ग में चिंतित,
बेटा क्यों कुल कीर्ति को नाशी!
अच्छा तो यह होता,
चल जाते मथुरा या काशी।
क्या यही मोल है मानवता का?
बात करते हो आदर्शों की ?
यही परिचायक है संस्कार का?
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