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कलयुग के ज्ञानी

कलयुग के ज्ञानी 

           ~ डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश"
               
झट करे दोस्ती पाँव पकड़ 
उसमें अहंकार बड़ा हैभारी, 
लाख कोशो बद्तमीज को
फिर भी बेशर्मी रहेगा जारी l

सभी सब्जियां जैसी तैसी
लपेट कर खाओ तरकारी, 
कुछ भी करलो 'ओल' को
भाई ! मुँह नोचेगा करारी l

आल जाल भरा कर्म रहा, 
फर्जी डिग्री ,  गई नौकरी l
लूट खसोट में लिप्त सदा, 
समय बदला,बढ़ी बेकरारी l

 सभा मध्य जा बांटे ज्ञान, 
लगाबे चंदन भर लिलारी l
 लपेट पहने गेरुआ वस्त्र, 
 अंदर से है,बड़ा  दुराचारि l

हड़प नीति का पोषक है,
अलग रहती जिसकी नारीl  
कब तक सुधरेगा बेचारा, 
विवश हो भागी महतारी l

बेटा-बेटी तनिक भाव न देवे, 
लंपटों से  जिसकी हो यारी l
उमर पहुँचा करीब "साठ" के,
करे  नरक  यात्रा की तैयारी l

समझाने का कुछ असर नहीं,
हर जगह उसकी बरि-अ-री l
घर,समाज में ईज्जत नहीं, 
लात - जुत्ता ही लगे  प्यारी l

तेरी महिमा कितना बखानु l
धन्य हो  कलियुग के ज्ञानी ll
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